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मुंबई: अगर स्कूल में बच्चे साल के अंत की परीक्षा में असफल होते हैं तो राज्य अब ग्रेड V और VIII में बच्चों को रोक रखने का विकल्प चुन सकते हैं। लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक,यह सीखने के परिणामों में सुधार करने के लिए पर्याप्त नहीं है।इससे पहले, छात्रों को नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम-2009 (आरटीई अधिनियम) के अधिकार के तहत ग्रेड IX तक रोका नहीं जा सकता था। इसका मतलब था कि छात्रों को अगली कक्षा में पदोन्नत किया गया था, भले ही उनके सीखने के परिणाम उनके ग्रेड स्तर से मेल न खाते हों।संसद ने 2 जनवरी, 2019 को आरटीई अधिनियम में एक संशोधन पारित किया, जिसमें राज्यों को ग्रेड V और VIII में छात्रों को रोके जा सकने के विकल्प का अधिकार दिया है।

22 राज्यों द्वारा इसकी मांग के बाद संशोधन की शुरुआत की गई थी, जैसा कि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 18 जुलाई, 2018 को लोकसभा को बताया था। उन्होंने बताया कि नो-डिटेंशन पॉलिसी ने एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण किया था, जहां शिक्षा की गुणवत्ता ओर जिम्मेदारी की कमी थी।

जुलाई 2018 में लोकसभा में जावड़ेकर ने कहा, "स्कूल, शिक्षक, अभिभावक और छात्र शिक्षा के प्रति कम जिम्मेदार हो गए हैं। कई स्कूल मिड-डे-मील स्कूल बन गए हैं। छात्र स्कूल आते हैं, खाना खाते हैं और घर वापस जाते हैं।”

संशोधन के अनुसार, यदि कोई राज्य ग्रेड V और VIII में रोके जाने को फिर से पेश करने का फैसला करता है, तो वर्ष के अंत में असफल रहने वाले छात्रों को परिणाम घोषित होने के दो महीने के भीतर दूसरे प्रयास की अनुमति दी जानी चाहिए। एक छात्र को ग्रेड दोहराने के लिए तभी कहा जा सकता है, जब वह दूसरी परीक्षा में असफल हो जाए। जावड़ेकर ने कहा, भारतीय स्कूलों में सीखने के परिणामों में सुधार लाने के उद्देश्य से संशोधन किया गया है। संख्या और साक्षरता मानक औसत से नीचे बने हुए हैं और, कई उदाहरणों में, 10 साल पहले 2008 में दर्ज किए गए मानकों से कम है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2018 के आधार पर 15 जनवरी, 2019 की रिपोर्ट में बताया है।

ग्रेड V के छात्रों में पढ़ने और गणित का कौशल, 2006-2016

भारत में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए काम करने वाला, एक गैर लाभकारी संस्था प्रथम एजुकेशन द्वारा प्रकाशित एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार, V ग्रेड में ग्रामीण बच्चों का प्रतिशत, जो कक्षा II के स्तर पर पाठ पढ़ सकते हैं, 2009 में, जब आरटीई लागू किया गया, 52.9 फीसदी था, जो गिर कर 2016 में 47.8 फीसदी हुआ है। जो बच्चे गणित में विभाजन समस्या को हल कर सकते थे उनका प्रतिशत 2009 में 38.1 फीसदी था, जो गिरकर 2016 में 26 फीसदी हुआ है। हालांकि, दरों में हाल ही में सुधार दिखा है। 2018 में, ग्रेड V के 50.5 फीसदी छात्र ग्रेड II स्तर का पाठ पढ़ सकते थे। यानी 2016 से 2.7 प्रतिशत अंक ज्यादा। इसी प्रकार, ग्रेड V के 27.9 फीसदी छात्र, गणित में विभाजन की समस्या हल कर सकते थे। आंकड़े 2016 से 1.9 प्रतिशत अंक ज्यादा हैं।

कुछ विशेषज्ञों ने खराब सीखने के परिणामों के लिए 2009 में आरटीई द्वारा शुरू किए गए स्वत: प्रोन्नति, यानी ऑटोमेटिक प्रोमोशन को दोषी ठहराया है। मुंबई के एक पश्चिमी उपनगर, विले पार्ले में श्री माधवराव भागवत हाई स्कूल की हेडमिस्ट्रेस, सुधा नायर कहती हैं, "नो-डिटेंशन पॉलिसी ने सीखने के परिणामों को प्रभावित किया है। बावजूद इसके कि बच्चा जानता है या नहीं, बच्चे को अगली कक्षा में प्रमोट करने की प्रणाली ने छात्रों और अभिभावकों को इसे गंभीरता में न लेने के लिए प्रेरित किया है। इसे बदलने की जरुरत है।" संशोधन को एक अच्छी पहल के रूप में देखते हुए, नायर ने कहा, "मैं नहीं चाहती कि बच्चा एक साल खो दे। यदि बच्चा किसी परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं है, तो पुन: परीक्षा ली जाए और उसे अगली कक्षा में पदोन्नत किया जाए।”

हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि,एक ही कक्षा में छात्र को रोके जाने के दंड से, विफलता का सारा दोष छात्रों पर ही आता है और रोके जाने के अन्य कारणों, जैसे कि पैसे का अभाव, अप्रशिक्षित शिक्षक, रिक्त शिक्षक पद और स्कूल में बुनियादी सुविधाओं की कमी पर पर्याप्त ध्यान नहीं जाता है।

शैक्षिक नेटवर्क, शिक्षकों के यूनियनों, गैर सरकारी संगठनों और शिक्षाविदों के एक मंच, शिक्षा का अधिकार मंच के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय कहते हैं, "एक ही कक्षा में एक बच्चे को रोकने पर बच्चे के मानस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और इससे उसका आत्मविश्वास डगमगा जाता है।" राय आगे कहते हैं, "यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण कदम है, जो सभी बच्चों को प्रभावित करेगा, विशेष रूप से सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए, जहां ड्रॉपआउट की संख्या में लगातार वृद्धि है।" पुनरावृत्ति के नकारात्मक प्रभाव काफी हद तक अपेक्षित लाभ को प्रभावित करते हैं, जैसा कि केंद्रीय सलाहकार बोर्ड ऑफ एजुकेशन ( सीएबीई ) के तहत एक उप समिति द्वारा 2015 की रिपोर्ट में कहा गया है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि, इस पुनरावृत्ति से संसाधनों का अपव्यय होता है, क्योंकि यह छात्र द्वारा दोहराए जाने वाले ग्रेड की सेवा क्षमता को कम करता है। विशेषज्ञों का मानने का है कि केवल डिटेंशन को दोबारा पेश किए जाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक माधव चव्हाण कहते हैं, सीखने के तरीकों में बदलाव की जरूरत है। मूलभूत कौशल सीखने पर अधिक ध्यान केंद्रित होना चाहिए, न कि केवल सिलेबस पूरा करने पर। बहुत सारी जानकारी को याद रखने के बजाय सीखने के कौशल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।”

निधि का उपयोग नहीं होता, विषयांतर और दुरुपयोग के मामले देखे गए: सरकारी लेखा परीक्षक

पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में काम कर रहे गैर-लाभकारी संस्था, सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटबिलिटी ( सीबीजीए ) और बाल अधिकारों के लिए काम करने वाला एक गैर सरकारी संगठन, चाइल्ड राइट्स एंड यू ( क्राई ) द्वारा दिसंबर 2018 के अध्ययन के अनुसार पिछले तीन वर्षों में, स्कूल शिक्षा बजट निरपेक्ष रूप से बढ़ा है। अध्ययन ने 2014-15 से 2017-18 की अवधि के लिए छह राज्यों ( उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ) के शिक्षा बजट का विश्लेषण किया और पाया कि बढ़ी हुई धनराशि के बावजूद, राज्यों ने अपने खर्च की संरचना को बदलने के लिए बजट का उपयोग नहीं किया है। राज्य सरकारों की ओर से खराब नियोजन और निष्पादन ने आरटीई अधिनियम-2017 के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के कार्यान्वयन पर कुछ लक्ष्यों को पूरा नहीं किया है।

आरटीई के लिए कोई अलग बजट नहीं है; यह सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए या शिक्षा सभी के लिए) के माध्यम से वित्त पोषित है, जो केंद्र सरकार का एक कार्यक्रम है- जो अब समग्र शिक्षा के तहत है।

अधिनियम के तहत व्यय केंद्र और राज्यों के बीच 60:40 के अनुपात (केंद्र सरकार द्वारा खर्च का 60 फीसदी) में साझा किया जाता है। यह उत्तर-पूर्वी राज्यों और हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू और कश्मीर को छोड़कर, जहां अनुपात 90:10 है।

एसएसए के तहत कुछ हस्तक्षेपों में स्कूल के बुनियादी ढांचे का निर्माण, शिक्षकों के लिए प्रावधान, समय-समय पर शिक्षक प्रशिक्षण और शैक्षणिक संसाधन सहायता शामिल हैं।

अप्रैल 2010 से मार्च 2016 तक सभी राज्यों के 112 जिलों के 3,370 स्कूलों को कवर करने वाले ऑडिट में पाया गया कि प्रत्येक वर्ष के अंत में 12,259.46 करोड़ रुपये से लेकर 17,281.66 करोड़ रुपये के बीच एसएसए के तहत अव्ययित थे।

कैग ने विभिन्न स्तरों पर विषयांतर, निधियों के दुरुपयोग और अनुदानों के अनियमित उपयोग के कई मामलों का उल्लेख किया है।

2010-16 के बीच, उत्तर प्रदेश, ने केंद्र सरकार को 47,403.24 करोड़ रुपये के खर्च की रिपोर्ट दी है। हालांकि, लेखा परीक्षित वित्तीय राशि का केवल 96.61 फीसदी (45,797.05 करोड़ रुपये) है।ओडिशा में, ऑडिट में पाया गया कि पांच नमूना जिलों में 58 हेडमास्टर ने उन्हें आवंटित किए गए 80 अवसंरचना कार्यों को निष्पादित किए बिना 1.04 करोड़ रुपये निकाले और रखे। इसी तरह, बिहार में, छह जिलों के 234 स्कूलों के हेडमास्टरों ने नागरिक कार्यों के लिए 12.06 करोड़ रुपये निकाले - जो अधूरे रह गए।

अनुसंधान मूल्यांकन निगरानी और पर्यवेक्षण कार्यक्रम के लिए निधि ( अनुसंधान गतिविधियों को अंजाम देने, उपलब्धि परीक्षण या मूल्यांकन करने और प्रभावी क्षेत्र-आधारित निगरानी के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधन व्यक्तियों का एक पूल बनाने के लिए ) अव्ययित रहे हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘लर्निंग एनहांसमेंट प्रोग्राम’ ( जो बाल-केंद्रित पाठ्यक्रम सुधारों का आह्वान करता है ) के तहत अव्यित निधि शिक्षण-सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

रिपोर्ट में पाया गया कि मार्च 2013 तक बुनियादी ढांचे के लक्ष्य जो पूरे होने थे, 2016 तक भी अपरिवर्तित रहे हैं।

यह तब है जब कई स्कूल कम स्टाफ वाले हैं और बुनियादी सुविधाओं की कमी है।

शिक्षकों की कमी, कमजोर बुनियादी ढांचा सीखने के परिणामों को प्रभावित करता है

सीबीजीए-क्राई रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2014 तक, प्राथमिक विद्यालयों में 500,000 से अधिक शिक्षकों की कमी थी और 14 फीसदी सरकारी माध्यमिक विद्यालयों में निर्धारित न्यूनतम छह शिक्षक नहीं थे।

बिहार और उत्तर प्रदेश में संयुक्त रुप से 420,000 से अधिक पद रिक्त हैं,जबकि तमिलनाडु और महाराष्ट्र ने लगभग 95 फीसदी स्वीकृत पदों पर भर्ती की सूचना दी है।

नियमित शिक्षकों की भर्ती के बजाय, राज्य शिक्षकों को तैनात करने या संविदा शिक्षकों को नियुक्त करने की प्रक्रिया में हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि,कम भर्ती दर या कोई भर्ती नहीं हो पाने का कारण राजकोष से जुड़ा हुआ है।

सीबीजीए के वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी और सीबीजीए और सीआरवाई के अध्ययन के लेखक प्रोतिवा कुंडू कहती हैं, शिक्षकों की भर्तियों के बाद राज्यों को मिलने वाले धन की यह कमी इसलिए है, क्योंकि एसएसए के तहत धन सशर्त है।

"इसके अलावा, स्थायी शिक्षकों को काम पर रखने के लिए राज्यों को वेतन आयोग के अनुसार वेतन का भुगतान करने और शिक्षकों को अन्य लाभ प्रदान करने की आवश्यकता होती है।"

अध्ययन के अनुसार, 60 फीसदी (छत्तीसगढ़) से लेकर 82 फीसदी (महाराष्ट्र) तक भारतीय राज्यों में स्कूल शिक्षा के बजट में शिक्षक वेतन का बड़ा हिस्सा है। लेकिन, पेशेवर योग्यता वाले शिक्षकों की भारी कमी को देखते हुए यह बहुत अधिक होना चाहिए।इसके अलावा, प्राथमिक स्तर पर 66.4 लाख शिक्षक, 11 लाख (16.5 फीसदी) अभी भी अप्रशिक्षित हैं।

राज्यवार व्यावसायिक रूप से अप्रशिक्षित शिक्षक

रिपोर्ट में कहा गया है कि, आरटीई अधिनियम लागू होने के बाद, शिक्षा के लिए संस्थागत क्षमता के निर्माण की बजाय सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत ‘इन-सर्विस टीचर ट्रेनिंग’ के माध्यम से अप्रशिक्षित शिक्षकों के मुद्दे को हल किया है।संस्थागत क्षमता का निर्माण संसाधन के बाद संभव है और राज्यों ने लंबे समय तक इसमें निवेश नहीं किया है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रावधान में स्कूल के बुनियादी ढांचे की भी अहम भूमिका है। सीखने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने के लिए, स्कूल में बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता एक शर्त है।

हालांकि, राज्यों में, स्कूल की इमारतों, कक्षाओं, कक्षाओं में मरम्मत कार्य और अन्य भौतिक बुनियादी ढांचे जैसे पीने के पानी, लड़कियों और खेल के मैदानों के लिए अलग-अलग शौचालय होने में अंतर है।

अप्रैल 2016 तक, बिहार में केवल 34.9 फीसदी स्कूलों में और उत्तर प्रदेश में 40.5 फीसदी स्कूलों में बिजली थी।

प्राथमिक स्कूलों में प्रत्येक 30 छात्रों (ग्रेड I-V) के लिए कम से कम एक शिक्षक होना चाहिए और उच्च प्राथमिक (VI-VIII) स्कूलों में 35 छात्रों के लिए कम से कम एक शिक्षक होना चाहिए। इसके अलावा, स्कूल में प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा होनी चाहिए।

अप्रैल 2016 तक, बिहार में, तीन में से दो प्राथमिक स्कूलों में प्रति कक्षा 30 से अधिक छात्र थे, और 10 उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सात में प्रति कक्षा में 35 से अधिक छात्र थे, जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है।

राज्य द्वारा प्राथमिक स्तर पर स्कूल इन्फ्रास्ट्रक्चर

School Infrastructure At Elementary Level, By State
StatesBiharChhattisgarhMaharashtraTamil NaduUttar PradeshWest Bengal
Govt. primary schools with SCR > 3066.319.72217.639.521.3
Govt. upper primary schools with SCR > 3571.926.435.429.827.955
Schools with drinking water facility94.2099.299.710098.798.4
Schools with girls' toilet facility89.9099.499.499.999.898.3
Schools with ramp86.7077.99372.886.591.9
Schools with playground35.3054.687.27770.540.4
Schools with boundary wall52.5061.181.379.671.642.8
Schools with kitchen shed62.584.788.296.382.386.3
Schools with electricity34.964.885.998.740.572.4

Source: Budgeting for School Education: What Has Changed and What Has Not?, December 2018

Figures in %; SCR- Student-Classroom Ratio

बुनियादी ढांचे में कमी के बावजूद, बुनियादी ढांचे के लिए संसाधन आवंटन की कोई स्पष्ट प्रवृत्ति नहीं है।जबकि बिहार और छत्तीसगढ़ ने अपने आवंटन में वृद्धि की है, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने कम कर दिया है।

राज्य शिक्षा बजट में अवसंरचना का हिस्सा

क्राई की निदेशक, प्रीति महारा कहती हैं, "भौतिक संसाधनों के बेहतर और कुशल प्रबंधन के साथ, शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए मानव संसाधनों की कमी के मुद्दे को हल करना आवश्यक है।"

"योजना की एक बेहतर सुधार प्रक्रिया के तहत निधि राशि प्रवाह को सुचारू बनाना, निधि उपयोग प्रक्रिया में आने वाली अड़चनों को हल करना और निरंतर निगरानी से संसाधन की जरूरतों, बजट आवंटन और वास्तविक व्यय के बीच अंतराल को पाटने में मदद मिल सकती है।"

प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन के चव्हाण कहते हैं, "नो-डिटेंशन पॉलिसी 'सभी के लिए उच्च सीखने के परिणामों से संतुलित नहीं थी। यही कारण है कि डिटेंन के कारणों पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना नो-डिटेंशन पॉलिसी को खत्म कर दिया गया । "

(श्रेया रमण डेटा एनालिस्ट हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। ।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 04 फरवरी, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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