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नई दिल्ली / गुरुग्राम: 43 वर्षीय पारुल मित्तल एक शॉपिंग वेबसाइट के लिए काम कर रही थीं, जब उन्हें लगा कि वह कुछ रचनात्मक लिख सकती हैं और उन्हें लिखने पर ध्यान देना चाहिए। वह 2008 का साल था। वह 12 साल से एक कंपनी में मध्य प्रबंधन स्तर पर काम कर रही थीं और उनके पास नौकरी छोड़ने का कोई विशेष कारण नहीं था।

हां, अपनी छोटी बेटी के स्वास्थ्य को लेकर वह थोड़ी चिंतित थीं। मित्तल अपने जीवन में उस स्तर पर थीं, जहां उनके पति एक उद्यम पूंजी कंपनी में बढ़िया काम कर रहे थे। वह कहती हैं, " लेकिन मैं हर समय मानसिक और शारीरिक रूप से थका हुआ महसूस करने लगी थी।"

यह वह समय था, जब मित्तल ने अपनी पहली किताब ‘हार्टब्रेक एंड ड्रीम्स: द गर्ल्स@ आईआईटी’ लिखी।

दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री और मिशिगन यूनिवर्सिटी (एन आर्बर) से कम्प्यूटर साइंस में मास्टर्स करने के बाद मित्तल ने कई तरह की नौकरियों में ध्यान लगाया। यहां तक कि पार्ट टाइम और फ्रीलान्सिंग भी।कुछ दिनों के लिए उन्होंने एक ‘पेरेंटिंग वेबसाइट’ भी चलाई थी, लेकिन वर्ष 2016 में फंडिंग में मुश्किल की वजह से उन्हें बंद करनी पड़ी।

फिर भी, उन्होंने तकनीकी क्षेत्र को नहीं छोड़ा। वह इस साल की शुरुआत तक एक यात्रा पोर्टल के लिए एक मात्र महिला वाईस प्रेसिडेंट के पद पर काम करती रही थीं। लेकिन ऑफिस की राजनीति और काम के लिए चौबिस घंटे की मांग के कारण वह इससे बाहर आई।

यहां तक भी शायद बर्दाश्त किया जा सकता था।

लेकिन सबसे बड़ा कारण ऑफिस की संस्कृति थी, जहां दूसरे कर्मचारी 8 बजे तक और उससे भी ज्यादा देर तक ऑफिस में खुशी से रहने के लिए तैयार थे। मित्तल कहती हैं, “मेरे लिए, 6 से 8 बजे तक का समय बेहद कीमती है। यही वह समय होता है, जब मैं अपने परिवार से साथ बैठ कर कुछ बात करती हूं। ”

इसलिए, हालांकि उनकी दोनों बेटियां घर में उनकी अनुपस्थिति के साथ सामंजस्य कर रही थी। घर के कामकाज के लिए उनके पास एक सहायक थी । सास-ससुर का साथ भी था, लेकिन फिर भी उन्होंने इस साल फरवरी में कंपनी के साथ 11 महीनों को पूरा करने के बाद अपना इस्तिफा दे दिया। इसके साथ ही उन्होंने 20 साल के करियर को समाप्त किया। अब वह इस महीने रूपा पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित अपनी तीसरी किताब ‘लेट्स हैव कॉफी’ को बाजार में लेकर आएंगी।मित्तल उन लाखों भारतीय महिलाओं में से एक हैं, जो जो भारत में रोजगार मैप से बाहर जा रही हैं, जैसा कि हमने पहले के रिपोर्ट में बी बताया है। लेकिन हम इस लेख में जिन महिलाओं की चर्चा करेंगे, वे महिलाओं की एक विशेष श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

पिछले आठ सालों से 2012 तक, 1.96 करोड़ महिलाओं ने नौकरियां छोड़ी हैं। ग्रामीण या शहरी, औपचारिक क्षेत्र या अनौपचारिक, अशिक्षित महिलाएं या स्नातकोत्तर, हर क्षेत्र में यह गिरावट स्पष्ट दिखता है। सबसे बड़ी गिरावट दो समूहों के बीच रही है - अशिक्षित महिलाएं और स्नातकोत्तर, जैसा कि विश्व बैंक की 2017 की एक रिपोर्ट – ‘प्रिकेरीअस ड्रॉप: रिएसेसिंग पैटर्न ऑफ फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन इन इंडिया’ से पता चलता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमबल में अशिक्षित महिलाओं की भागीदारी में 11.5 फीसदी की कमी आई है। शहरी क्षेत्रों में, कार्यबल में अशिक्षित महिलाओं की भागीदारी 5 फीसदी थी।

रिपोर्ट कहती है कि, 1993-94 और 2011-12 के बीच ग्रामीण भारत में कॉलेज-शिक्षित महिलाओं की कार्यबल भागीदारी में 8 फीसदी अंक और शहरी भारत में 4 फीसदी अंक की गिरावट हुई है।

शिक्षा स्तर के अनुसार महिला श्रम बल भागीदारी में बदलाव- 1993-94 से 2011-12

Source: Precarious Drop: Reassessing Patterns of Female Labour Force Participation in Indian, World Bank

कॉलेज की शिक्षा के साथ एक महिला रोजगार क्यों छोड़ती है? शायद इसका जवाब कॉलेज में ही छुपा है ।

हर एक क्षेत्र में महिला नेतृत्व के लिए, भारत को बड़े संस्थानों में अधिक महिला विद्यार्थियों की जरूरत

भारत के स्कूलों और कॉलेजों में महिला विज्ञान अध्यापकों की कोई कमी नहीं है, जैसा कि ‘एसोसिएशन ऑफ अकादमी एंड सोसायटी ऑफ साइंसेज इन एशिया’ द्वारा 2015 की रिपोर्ट से पता चलता है। यह अंतर डिग्री लेने और विज्ञान में अपना कैरियर के पारगमन के दौरान आती है।

कई पश्चिमी देशों के विपरीत, भारत में यह मुद्दा लड़कियों को विज्ञान और इंजीनियरिंग का अध्ययन के लिए राजी करना नहीं है। ‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ की उपाध्यक्ष और इंडिया ऐनेक्स रिपोर्ट की लेखक, रोहिणी गोडबोले कहती हैं, भारत में यह मुद्दा "विज्ञान में कैरियर के लिए महिलाओं को आकर्षित करने और विज्ञान में प्रशिक्षित वैज्ञानिक महिला शक्ति को बनाए रखने के तरीके" के बारे में अधिक है।

भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में महिलाओं का काफी अच्छा प्रतिनिधित्व है। 2000-01 के लिए प्रवेश आंकड़े बताते हैं कि इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में 30 फीसदी और 45 फीसदी महिलाएं शामिल हैं । लेकिन जब आईआईटी की बात आती है, तो संख्याएं सिर्फ एक अंक के प्रतिशत में दिखती है - 2016 में 8 फीसदी, 2015 में 9 फीसदी और 2014 में 8.8 फीसदी।

यहां तक ​​कि जब महिलाएं आईआईटी में शामिल होती भी हैं तो उनके टॉप रैंक को लेने की संभावना कम होती है।

2017 के लिए, केवल 20.8 फीसदी महिलाओं ने सयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) पास की थी, जो आईआईटी के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किया गया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे कठिन स्नातक प्रवेश परीक्षाओं में से एक के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके अलावा, टॉप 1,000 पदों में से 93.2 फीसदी पुरुषों द्वारा भरा गया था।

गोडबोले कहती हैं, हालांकि आईआईटी में महिला छात्रों का अंश छोटा है, लेकिन उच्च स्थान प्राप्त करने वाले छात्रों के बीच लिंग अंतर नगण्य है।

आईआईटी में ज्यादा लड़कियां क्यों नहीं आ रही हैं?

गोडबोले कहती हैं, "प्रवेश प्रक्रिया की कट्टर प्रतिस्पर्धी प्रकृति में प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए पैसा और समय आवश्यक है। मुझे लगता है कि माता-पिता बेटियों के लिए यह खर्च नहीं करते हैं। "

विज्ञान शिक्षा और रिसर्च में महिलाएं

Source: Women in Science and Technology in Asia, 2015, The Association of Academies and Societies of Science in Asia

माता-पिता के लिए अपनी बेटी को कोचिंग कक्षाओं में भेजना आर्थिक रूप से भी एक समस्या है।

कोचिंग कक्षाओं के बिना यह परीक्षा करना आसान नहीं। कोचिंग कक्षाएं घर से दूर हो सकती हैं और शाम को देर तक चल सकती हैं।

वाणी लीन कौर जोली, वर्तमान में दिल्ली आईआईटी में दूसरे वर्ष की छात्रा हैं। बाणी याद करते हुए बताती हैं कि दिल्ली में सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन की अनुपस्थिति में उनके पिता को उन्हें कोचिंग कक्षाओं तक छोड़ने जाना पड़ता था। इसके लिए उनके पिता को घर से काफी पहले निकलना पड़ता था और उन्हें वापस लेने के लिए 6 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती थी।

अभी भी, कॉलेज में देर रात चलने वाली कक्षाओं में उपस्थित हो पाना जोली के लिए इसलिए संभव है कि उनके पास उनके पिता का साथ है। वह मुस्कुराते हुए कहती हैं ,“इस मामले में हम भाग्यशाली हैं।”

आईआईटी (कानपुर) के प्रोफेसर और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव, आशुतोष शर्मा, कहते हैं, “लेकिन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अधिक महिला नेतृत्व और रोल मॉडल तैयार करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के शीर्ष संस्थानों में अधिक नामांकन की जरूरत है। ”

यह एक तत्काल समस्या है और जिसे विभिन्न योजनाओं के द्वारा निपटा जा सकता है, इनमें सीटों की संख्या में वृद्धि करना और उसे योग्य महिलाओं के लिए यह निर्धारित करना शामिल है। कुछ आईआईटी योग्य महिला उम्मीदवारों के लिए फीस छूट पर भी विचार कर रहे हैं।

2018 के शुरूआत से सरकार देश के विभिन्न स्कूल बोर्डों से 50,000 लड़कियों की पहचान करेगी। इन लड़कियों को स्कूल में अपने 11 वीं और 12 वीं कक्षा को पूरा करने के लिए एक फेलोशिप प्राप्त होगी और विभिन्न आईआईटी, आईआईएसईआर (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च) और यूनिवर्सिटी कैंपस में विज्ञान कैंप और विशेष कक्षाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाएगा।

शर्मा कहते हैं, “विज्ञान शिविर का विचार केवल प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लड़कियों को पढ़ाना ही नहीं है। यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। उन्हें उन विभिन्न रोल मॉडलों के संबंध में बताया जाए जो विभिन्न सांस्कृतिक और वैज्ञानिक मुद्दों को संबोधित करते हैं, ताकि उन्हें विज्ञान में शिक्षा और कैरियर का लाभ उठाने में मदद मिल सके, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां महिलाओं का बहुत कम प्रतिनिधित्व है। ”

वह आगे कहते हैं, “जब आप जेईई के परिणामों को देखते हैं तो आप लड़कियों के एक समूह को दहलीज पर देखते हैं, उन सभी को प्रोत्साहन की जरुरत है। ”

करियर की वक्र रेखा और लिंग अंतर

तकनीकी नौकरियों में प्रवेश स्तर पर महिलाओं की वास्तव में सभी नौकरियों की 51 फीसदी की हिस्सेदारी है, जैसा कि ‘ट्रेड एसोसिएशन नासकॉम’ और ‘प्राइसवाटरहाउसकूपर्स’ की ओर से वर्ष 2011 के एक अध्ययन ‘डायवर्सिटी इन एक्शन’ में बताया गया है।

फिर भी, प्रवेश के स्तर पर 51 फीसदी महिलाओं का नौकरी के स्तर पर 34 फीसदी तक कैसे आती हैं? किस स्तर पर वे नौकरियां छोड़ती हैं? और क्यों ?

नौकरी के स्तर, वेतन और यहां तक ​​कि आकांक्षा की जब बात आती है तो भारत में उच्च क्षमता वाले पुरुष और महिलाएं एक समान स्तर पर शुरू होती हैं, जैसा कि आरती श्यामसुंदर और नैन्सी एम कार्टर द्वारा 2014 के अध्ययन ‘हाई पोटेशियल अंडर हाई प्रेशर इन इंडियाज टेक्नोलोजी सेक्टर’ में पाया है।

लेकिन, समय के साथ, महिलाओं के लिए एक लिंग अंतर उभर रहा है, जो कम कमाते हैं, कम विकास के अवसर प्राप्त करते हैं, जो प्रगति के लिए आगे बढ़ते हैं और पुरुषों की तुलना में घर पर अधिक जिम्मेदारी का सामना करते हैं।

कैरियर की गति: कैसे होती है पुरुष और महिला प्रगति

Career Trajectory Graph

Source: Catalyst: High Potentials Under High Pressure In India’s Technology Sector, Aarti Shyamsunder, Nancy M. Carter, 2014

घोष का मानना ​​है कि यह भारत के लिए एक रोमांचक और भविष्य को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका का समय है। वह कहती हैं, "स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र और हमारी छिपी हुई परिसंपत्ति, भारत की महिलाएं, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी और इन दोनों क्षेत्रों पर मैं एक संरक्षक और एक निवेशक के रूप में ध्यान केंद्रित कर रही हूं।"

घोष ने कहा, "जैसा कि हम एआई और स्वचालन का स्वागत करते हैं, नई नौकरियां पैदा हो जाएंगी और मुझे महिलाओं के लिए कई अवसर दिखाई देते हैं। दुनिया को अधिक डेटा वैज्ञानिकों और विश्लेषकों की आवश्यकता होगी और मुझे विश्वास है कि इन क्षेत्रों में सफल होने के लिए महिलाओं के पास सारे गुण हैं। ”

लिंग जागरूकता की आवश्यकता के मुकाबले कम्पनियां जागने लगी हैं, हालांकि विलम्ब हो चुका है। एक्सेंचर, इंटेल और एचपी कुछ कंपनियां हैं, जहां के टॉप पदों पर महिलाएं नेतृत्व कर रही हैं। घोष ने कहा, " लैंगिक विविधता को बढ़ावा देने के प्रयास 100 गुना बढ़ गए हैं। लेकिन समस्या की भयावहता को देखते हुए जो किया जा रहा है अभी भी पर्याप्त नहीं है। हमें इसके पैमाने को बढ़ाने और इसे एक लाख गुना अधिक बढ़ाने की जरूरत है। "

ज्यादातर महिलाएं नौकरी छोड़ती हैं जब वे मध्य प्रबंधन की स्थिति में होती हैं। नौकरी छोडने का कारण बच्चे हैं या फिर वे जीवन के एक ऐसी चरण में हैं जब माता-पिता को सहायता और देखभाल की आवश्यकता हो सकती है।

इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में डिग्री के साथ 47 वर्षीय शालिनी सलुजा को हमेशा से फैशन में रुचि थी। उन्होंने फैशन डिजाइन में तीन साल का कोर्स किया और काम करने लगीं।

अपनी बेटी के जन्म के तुरंत बाद, उनकी सास ने बिस्तर पकड़ लिया और उनके ससुर के कैंसर का इलाज किया गया। उनके पति अपनी नौकरी के साथ काफी व्यस्त थे और इसलिए उनका काम करना मुश्किल हो गया और उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ा।

उन्होंने बताया कि "मेरे ससुराल वाले बहुत आधुनिक थे, लेकिन मुझे यह स्पष्ट किया गया कि मेरा काम परिवार के बाद है। काम से घर आने के बाद मुझसे खाना पकाने की उम्मीद की जाती थी। "

फिर भी, सलुजा की कहानी थोड़ी अलग है। अपने कौशल को बर्बाद न करने के निश्चय के साथ सलुजा अब ‘इंडी कॉटन रूट’ चलाती हैं, जो ग्राहकों के लिए अनुकूलित वस्त्र बनाने के लिए ग्रामीण कारीगरों से सामग्री स्रोत करती है। व्यापार उनके घर से चलता है।

स्टार्ट-अप में चमक नहीं

आईआईटी (दिल्ली) के पूर्व छात्र अपर्णा सारागी और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से निर्णय और जोखिम विश्लेषण में पीएचडी सरणदीप सिंह ने 2016 में वीईई (महिला सशक्तिकरण और उद्यमिता) फाउंडेशन के गठन का नेतृत्व किया। दोनों ने महिलाओं उद्यमियों के लिए अवसरों की स्पष्ट कमी के बारे में बात करना शुरू किया।

एक निवेश बैंकर के रूप में नौकरी जारी रखने वाली सारागी कहती हैं, “बहुत सी महिलाओं के पास अच्छे विचार हैं, लेकिन कभी-कभी यह पता नहीं होता कि इन्हें व्यापारिक उद्यमों में कैसे बदला जा सकता है। ”

वह कहते हैं, "महिलाओं को पुरुषों के समान समर्थन नहीं मिलता। इस बात का सबूत है कि पुरुषों को स्टार्टअप में अधिक निवेश मिलने की संभावना होती है। हम महिला उद्यमियों को सक्षम करना चाहते हैं और यह करने का एक तरीका विभिन्न एजेंसियों के साथ मिलकर सभी के लिए एक स्तर के मैदान बनाने का काम हो सकता है। "

सिर्फ एक साल की उम्र में, आईआईटी (दिल्ली) और सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के साथ वीईई भागीदारों ने अपने व्यापार को चलाने पर तीन माह के कार्यक्रम के माध्यम से महिलाओं उद्यमियों को प्रशिक्षित किया है। अब तक व्यापारिक विचारों से संवर्धित वास्तविकता से 3 डी प्रिंटिंग के साथ 19 से 57 उम्र से तीन बैचों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। हाल ही में आईआईटी (दिल्ली) में सूचना प्रौद्योगिकी स्कूल में 35 महिलाओं की कक्षा में उत्साह, ऊर्जा या विचारों की कोई कमी नहीं देखी गई है।

राधाका आडोलिया, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और वह ‘युनिवॉल्ड हेल्थ सॉल्यूशंस’ नाम का एक पोर्टल चलाती हैं, जो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मरीजों को उचित स्वास्थ्य सुविधाओं और डॉक्टरों से जोड़ने में मदद करता है।

रेणुका भगत एक विशेष जरुरत वाली महिला हैं, जिन्हें देखने में परेशानी होती है। वह एक ऐप विकसित कर रही है जो विकलांग लोगों को उनके लिए पढ़ने की इच्छा रखने वाले लोगों से जुड़ने या अन्य तरीकों से उनकी सहायता करती है। भगत कहती हैं, "मैं एक टीम बनाने की कोशिश कर रही हूं।" यह करना कठिन है और जब आप एक महिला हो, और जब आप विशेष जरुरत वाली महिला हो, तो यह और भी कठिन होता है।"

स्टार्ट-अप दुनिया महिलाओं के लिए कठिन है, जो काम में हर रोज़ पूर्वाग्रह और रूढ़िबद्धता का सामना करती हैं, जैसा कि ‘लीडरशिप लेसन फ्रॉम वूमन ह्वू डू’ की लेखिका, अपर्णा जैन कहती हैं। वह कहती हैं, “ यह मजबूत, स्वतंत्र महिलाओं के लिए भी मुश्किल है जो किसी न किसी बिंदु पर इसे महसूस कर सकती हैं।”

अफसोस की बात है कि केवल 9 फीसदी भारतीय स्टार्टअप संस्थापक और सह-संस्थापक महिलाएं हैं, जैसा कि 2015 की नैशकॉम रिपोर्ट में बताया गया है।

2015 में भारतीय स्टार्टअप से प्राप्त 5 बिलियन डॉलर (30,545 करोड़ रुपये) के वित्तपोषण में से महिलाओं के नेतृत्व वाले स्टार्टअप द्वारा प्राप्त वित्त पोषण 3.6 फीसदी या 168 मिलियन (1026 रुपये) से अधिक नहीं था।

कंप्यूटर से संबंधित एक स्टार्ट-अप ‘मैड स्ट्रीट डेन’ की सीईओ 35 वर्षीय अश्विनी असोकन हैं। उन्होंने 2014 में अपने पति आनंद के साथ कैलिफोर्निया से भारत लौट कर इस कंपनी की स्थापना की और शुरु से ही उनके पास एक एक सवाल था- क्या कंपनी 'संतुलित' है? अशोकन कहती हैं, "यह सिर्फ लिंग के संदर्भ में नहीं बल्कि उम्र, कौशल सेट और व्यक्तित्व के मामले में भी है।"

कंपनी के 51 कर्मचारियों में से 27 महिलाएं हैं। शुरुआती पांच सदस्यीय टीम में से दो महिलाएं थीं। अशोकन कहती हैं, "शुरूआती और प्रत्येक चरण में विविधता की आवश्यकता होती है। यह बकवास लगता है जब लोग कहते हैं कि महिलाओं कोडर्स खोजना मुश्किल है अगर वास्तव में देखा जाए तो कोई कमी नहीं है। "

महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए स्वस्थ माहौल है। स्तनपान के लिए एक नर्सिंग रूम के लिए एक जगह है और एक खेल क्षेत्र जहां बच्चों को स्कूल के बाद आने की अनुमति है, ताकि माताएं ठीक से काम कर सकें।

अशोकन कहती हैं, "हम कार्य और जीवन को स्पष्ट रूप से अलग नहीं देखते हैं। हम समझते हैं कि नौकरी बहुत समय की मांग करती है। तो यह केवल तभी निष्पक्ष है कि हम लोग अपने परिवार के साथ समय बिताते हुए इसे संभव बनाएं।

रोल मॉडल सब कुछ हैं। अशोकन ने वेबसाइट ‘मीडीअम’ पर एक लेख में लिखा था, “एक भूमिका जो मैंने निभाई है वह है लिंग कोड हैक करने की, दिन का हर एक मिनट। अधिक महिलाएं हों यह केवल संतुलन का सवाल नहीं है, अच्छे व्यवसाय की नींव है यह।”

‘श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी’ पर इंडियास्पेंड द्वारा की गई लेखों की श्रृंखला का यह अंतिम लेख है। पहले के भाग आप यहां, यहां और यहां पढ़ करते हैं।

(भंडारे पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं। वे अक्सर भारत के उन लैंगिक के मुद्दों पर लिखती हैं, जिनका सामना समाज कर रहा होता है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 09 सितंबर 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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