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नई दिल्ली: भारत में कुष्ठ रोग वापस आ गया है। 13 साल पहले जब भारत ने घोषणा की थी सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता के रूप में कुष्ठ रोग समाप्त हो गया है तो स्वास्थ्य अधिकारियों और कार्यकर्ताओं ने तब जश्न मनाया था। लेकिन चेतावनी की घंटी बज चुकी है । स्वास्थ्य मंत्रालय के केंद्रीय कुष्ठ विभाग ने बताया है कि 2017 में भारत में 135,485 कुष्ठ के नए मामलों का पता चला है। इसका मतलब है कि हर चार मिनट में एक कुष्ठ रोगी का पता चला है। इससे लगता है कि हम उन्मूलन के करीब नहीं हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 1 फरवरी, 2017 को बजट भाषण में संसद को बताया कि भारत 2018 तक कुष्ठ रोग को खत्म करेगा। इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि लक्ष्य हासिल करना असंभव है। नए मामलों में से लगभग आधे (67,160) उन्नत चरण में पाए गए हैं। और नए मामलों की संख्या अधिक है। उदाहरण के लिए, तेलंगाना के आदिलाबाद जिले में, कुशनपल्ली नामक एक छोटा सा गांव है। वहां 250 घर (1,040 लोग) हैं। वहां 19 मामले सामने आए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने 2016 में बताया कि, “ उच्च स्थानिक इलाके हर साल कई हजार नए मामलों की सूचना देते हैं।” डब्लूएचओ ने आगे कहा था कि, 2015 में, वैश्विक कुल नए मामलों का 60 फीसदी हिस्सेदारी भारत की थी। कुष्ठ रोग की घटनाओं पर कोई विश्वसनीय अखिल भारतीय अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार अपने 'उन्मूलन' की स्थिति को खो देने के डर से नए मामलों को दर्ज करने के लिए अनिच्छुक है।

2015 में नए कुष्ठ मामलों की सूचना देने वाले टॉप छह देश

अवांछित और उपेक्षित

रचना कुमारी की शादी 18 साल की उम्र में हुई थी। 21 वर्ष की होते-होते वह दो बच्चों की मां बन गई थी। बिहार के मुंगेर जिले में उसकी जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी। कुष्ठ रोग का पता चलने पर उसकी जिंदगी अचानक कठिन हो गई। उसके परिवार ने उसे अस्वीकार कर दिया और उसे घर छोड़ने के लिए कहा। पूरी तरह से टूट चुकी, रचना बीमारी से लड़ने और अपने जीवन को फिर से पाने के लिए अकेले लड़ी। ठीक होने के बाद, उसने कुष्ठ रोगियों को लेकर भेदभाव से लड़ने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया। आज वह ‘इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ एंटी-लेप्रोसी असोसिएशंस’ के पैनल में बैठती हैं, जो कुष्ठ रोगियों के लिए काम करती है। वह मुंगेर( बिहार) में ‘लेप्रा सोसाइटी’ के रेफरल सेंटर के साथ काम करती है। वह कहती हैं, “मेरा सपना दुनिया को कुष्ठ-मुक्त करना है। मैं हर नए कुष्ठ रोगी को कहती हूं कि शर्म महसूस करने की जरुरत नहीं है, बल्कि सिर ऊंचा रखना चाहिए और डरना नहीं चाहिए। अगर हम सभी ईमानदारी के साथ काम करते हैं, तो हम कुष्ठ रोग को मिटा सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे हमने पोलियो को हटाया है। " भारत में कुष्ठ रोग के कारण विकृत हो चुके लोगों की संख्या 30 लाख से ज्यादा है। वे समाज के हाशिये पर चले जाते हैं और उपेक्षित और अवांछित महसूस करते हैं, उसमें से ज्यादातर देश के 750-कुष्ठ कॉलोनियों में रहते हैं। लोग काफी हद तक उन्हें सामाज अलग मानते हैं। संक्रामक होने के कारण, कुष्ठ रोग आसानी से फैल सकता है। यदि समय पर पता नहीं लगाया जाता है, तो यह त्वचा और नसों के माध्यम से फैलता है, हाथ और पैरों की नसों को नुकसान पहुंचाता है जिससे नसों की संवेदना मृत हो जाती है। इसमें स्वाभाविक रूप से जख्म भरते नहीं हैं। यही कारण है कि कुष्ठ रोग का डर है और इसे कलंक समझा जाता है। हम में से अधिकांश को कुष्ठ रोग इसलिए नहीं होता कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत है और हमने, रोग पैदा करने वाले जीवाणु , माइकोबैक्टीरियम लेप्रे के लिए प्रतिरोध का निर्माण किया है। कमजोर प्रतिरक्षा वाले लोग इसका शिकार होते हैं। वास्तव में, वे गरीब होते हैं और कुपोषित भी और चिकित्सा सुविधाओं तक वे आसानी से नहीं पहुंच पाते हैं।

उन्मूलन का अर्थ जड़ से नष्ट होना नहीं

चूंकि भारत को कुष्ठ रोग से निपटने के लिए डब्ल्यूएचओ से धन प्राप्त हुआ था, इसलिए यहां प्रगति दिखाने का एक दबाव भी था, जैसा कि कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का कहना है। सरकार ने 2005 में जल्द ही घोषणा की कि कुष्ठ रोग को समाप्त कर दिया गया - जिसका अर्थ है कि प्रति 10,000 (0.01 फीसदी) पर एक मामला है। कुछ विशेषज्ञों ने सवाल किया कि किस तरह से इस उन्मूलन को प्राप्त किया गया था - उदाहरण के लिए, सक्रिय मामले की खोज को रोककर (और स्वयं रिपोर्टिंग पर भरोसा करते हुए, जो कि हमेशा से संख्या में कम होता है), और एकल-घाव वाले मामलों की गिनती नहीं करके (जिसे कम गंभीर माना जाता है)। यहां भारत की विशाल जनसंख्या को भी देखना होगा, "10,000 मामलों में 1" से भी कम, लेकिन कुल मिलाकर लाखों में संख्या ! 2005 में सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में कुष्ठ रोग को खत्म करने के बावजूद, दुनिया में कुष्ठ रोगियों की सबसे बड़ी संख्या भारत में थी, जैसा कि डब्ल्यूएचओ ने 2016 की रिपोर्ट में बताया है। इसके अलावा, 10,000 में से एक का आंकड़ा सभी राज्यों के औसत से आया था। उदाहरण के लिए, बड़े और अविकसित उत्तर प्रदेश में ज्यादा मामले थे, जबकि केरल जैसे विकसित राज्यों का आंकड़ा कम था। उन्मूलन का दर्जा हासिल करने के लिए इन सभी को एक साथ बांधना एक महंगी गलती साबित हुई।

मार्च 2017 तक रिकॉर्ड किए गए कुष्ठ रोग के मामले

‘उन्मूलन’ का अर्थ ‘पूरी तरह से नष्ट’ होना मान लिया गया और कुष्ठ रोग के खतरे को समय से पहले खत्म होना माना लिया गया था। कुष्ठ उन्मूलन के लिए काम करने वाली सरकारी मशीनरी सुस्त हो गई, और इसके कर्मियों को अन्य स्वास्थ्य विभागों में स्थानांतरित कर दिया गया, जिन्हें तत्काल आवश्यकता के रूप में ज्यादा जरूरी माना गया। फ़्रंट-लाइन वर्कर्स ने मामलों की पहचान करने के लिए घरेलू दौरे रोक दिए।

मामलों की अंडर रिपोर्टिंग

उन्मूलन की घोषणा के बाद सक्रिय निगरानी को रोकने के कारण भारत में गंभीर रूप से मामलों की रिपोर्टिंग कम हो गई है, जैसा कि बिहार के मुंगेर से इस तरह के अध्ययनों ने इशारा किया है।

2016 के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम के लिए एक मध्यावधि मूल्यांकन में कहा गया है कि नए मामलों के बीच 'बढ़ी हुई विकलांगता' में वृद्धि की पहचान, यह संकेत देती है कि समुदाय में मामलों का पता देर से चल रहा है और ऐसे कई मामले हो सकते हैं जो छिपे हुए हैं। समीक्षा में कहा गया है कि, ये छिपे हुए मामले खतरनाक हैं क्योंकि अनुपचारित रोगी "समुदाय में एक सक्रिय जलाशय की तरह है, जो रोग को अन्य लोगों तक पहुंचाता है। बच्चों में भी बड़ी संख्या इस तरह के मामले देखे गए हैं।

फिर भी, नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कुष्ठ रोगियों के साथ काम करने वाले कई कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं ने इंडियास्पेंड को बताया कि सरकार नए मामलों के प्रलेखन का विरोध कर रही है। उन्होंने बताया कि 2005 के बाद कई वर्षों तक, नए कुष्ठ मामलों की संख्या 130,000 सालाना के आंकड़े के आसपास पाई गई, क्योंकि इसे जानबूझकर उन्मूलन सीमा (भारत की आबादी का 0.01 फीसदी) के भीतर रखा गया था।

नए मरीजों की आधिकारिक संख्या "बड़े पैमाने पर निष्क्रिय रिपोर्टिंग से आ रही है क्योंकि मामलों का पता लगाने के लिए कोई देशव्यापी कदम नहीं है", जैसा कि सिकंदराबाद के लेप्रा सोसाइटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आशिम चौला ने इंडियास्पेंड को बताया है।

दिल्ली, चंडीगढ़, दादर और नगर हवेली, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और लक्षद्वीप जैसे स्थान, जो उन्मूलन के लक्ष्य में सबसे आगे थे, अब सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए, केरल, जिसका भारत में सबसे अच्छा स्वास्थ्य संकेतक है और कभी कुष्ठ रोग की सबसे कम दर थी, अब वहां कुष्ठ रोगियों की एक बड़ी संख्या है। शायद इसकी वजह उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा से आने वाले प्रवासी श्रमिकों की अधिक संख्या है, जहां मजदूरी दर कम है।

प्रारंभिक पहचान और उपचार

कुष्ठ रोग के मामले में, किसी भी तरह की विकलांगता पनपने से पहले उसका जल्दी से पता लगाना और उपचार महत्वपूर्ण है। सबसे पहले तो उन विकलांगों का पुनर्वास है, ताकि वे स्वतंत्र रूप से रह सकें और एक गरिमापूर्ण जीवन बिता सकें। लेकिन समाज कलंक और भेदभाव से ग्रस्त है। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को कई तरह के मिथकों से जूझना पड़ता है। ऐसा ही एक मिथक है कि कुष्ठ रोग पिछले पापों के लिए ईश्वरीय दंड है।

ससाकावा इंडिया लेप्रोसी फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक, विनीता शंकर कहती हैं, “रोग से जुड़े कलंक की वजह से ज्यादातर रोगी चिकित्सा उपचार के लिए सामने नहीं आते हैं और जब वे इलाज शुरु करते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।” तंत्रिका क्षति को भरा नहीं जा सकता और एक बार शारीरिक अक्षमता हो जाए सामाजिक पुनर्वास बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है। चौला कहते हैं, "हमें उच्च शिक्षित और समाज को प्रभावित करने वाले लोगों के साथ भी संघर्ष करना पड़ता है। हाल ही में, पोप ने कहा कि बाल शोषण हमारे घर में 'कुष्ठ रोग' की तरह था। इसमें शामिल कलंक के कारण, रोगी इसे छिपाने की कोशिश करते हैं। दृष्टिकोण बदलने में समय लगता है। यहां तक ​​कि सरकार के पास इतनी जटिल चीज़ों से निपटने और त्वरित परिणाम देने के लिए साधन नहीं है। "

हाल ही में, संसद ने विभिन्न कानूनों में कुष्ठ रोगियों के खिलाफ भेदभाव को दूर करने के लिए एक संशोधन पारित किया, विशेष रूप से वहां, जहां इस रोग से जुड़े भ्रम या मिथक विवाह और तलाक को प्रभावित कर रहे थे। 119 ऐसे कानून थे, जो कुष्ठ रोगियों के खिलाफ भेदभाव करते थे - उदाहरण के लिए, कुष्ठ रोग तलाक के लिए एक वैध कारण था, और कुष्ठ रोग को "लाइलाज और विषाणुजनित" बीमारी माना जाता था। कुष्ठ रोग से प्रभावित व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए सरकार एक मसौदा विधेयक पर भी काम कर रही है।

पता लगाने में व्यावहारिक समस्याएं भी हैं। अच्छी रोशनी में रोगी के शरीर के सभी हिस्सों की जांच करने की आवश्यकता होती है, लेकिन अधिकांश स्थानों पर जहां रोगियों की जांच की जाती है, वहां बहुत अच्छी रोशनी नहीं होती है। पुरुष कर्मचारी अक्सर महिलाओं से, विशेषकर गांवों में, परीक्षण के लिए कपड़े उतारने को नहीं कह पाते हैं। कई महिलाएं ऐसा करने से मना भी करती हैं। इसका अर्थ है छोटे रोगग्रस्त पैच का पता नहीं लग पाता है।

एक बार पता चलने पर, सरकार कुष्ठ रोगियों का इलाज मुफ्त में करती है। मरीजों को एक मल्टीड्रग थेरेपी दी जाती है ( विभिन्न दवाओं का एक संयोजन ) जो बहुत प्रभावी है और आमतौर पर छह से 12 महीनों के भीतर ठीक हो जाती है।

शुरुआत में बीमारी का पता लगाने और इलाज की तरह दवा प्रतिरोधी उपभेदों की पहचान करने के लिए प्रारंभिक पहचान और फॉलो-अप जरुरी है।

तंबाकू विरोधी आंदोलन की सफलता से चौला को उम्मीद है। उन्होंने कहा, "कुष्ठ रोग को खत्म करने के पीछे कॉरपोरेट, निजी संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों के साथ की कुछ इसी तरह की जरूरत है।"

चूंकि कुष्ठ रोग मुख्य रूप से गरीबों को प्रभावित करता है, इसलिए इसे वह ध्यान नहीं मिलता है, जिसकी जरूरत है। मामलों का पता लगाकर और बहु-औषध चिकित्सा पर तुरंत प्रभाव डालकर ट्रांसमिशन को समाप्त करना चुनौती है, जिसे भारत के सबसे दूरस्थ भागों में भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "इस समय कोई ठोस बुनियादी ढांचा नहीं है, जिससे मरीजों के खिलाफ भेदभाव का पता लगाया जा सके, रोगियों का इलाज कर उसे समाप्त किया जा सके।"

2020 के लिए नई वैश्विक रणनीति के लक्ष्य

  • नए बाल रोगियों के बीच शून्य विकलांगता।
  • प्रति 10 लाख लोगों पर 1 से कम मामले की विकलांगता दर प्राप्त करना।
  • कुष्ठ रोग के आधार पर कानून में भेदभाव वाले शुन्य देश।
  • राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों से निरंतर समर्थन के साथ-साथ राष्ट्रीय कार्यक्रमों द्वारा निरंतर और प्रतिबद्ध प्रयास।
  • बीमारी से प्रभावित लोगों का सशक्तिकरण, सेवाओं में उनकी अधिक भागीदारी और समुदाय को बिना किसी कुष्ठ रोग के दुनिया को करीब लाने का प्रयास ।

Source: World Health Organization (June 2017)

इस वर्ष की शुरुआत में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों और केंद्र सरकार को कुष्ठ रोग के बारे में जागरूकता कार्यक्रम शुरू करने का निर्देश दिया। सात साल पहले ही भारत को कुछ करना चाहिए था, जब यह कुष्ठ रोग से प्रभावित व्यक्तियों और उनके परिवार के सदस्यों के साथ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर हस्ताक्षरकर्ता बना था।

अदालत ने कहा कि अभियान को कुष्ठ प्रभावित लोगों की भयावह छवियों का उपयोग नहीं करना चाहिए, लेकिन जो लोग ठीक हो गए हैं उनकी सकारात्मक छवियों और कहानियों का उपयोग करें। लेप्रोसी मिशन ट्रस्ट, इंडिया एडवोकेसी की प्रमुख, निकिता सारा ने कहा, “बीमारी से तत्काल निपटने की आवश्यकता पर जोर देने के निर्णय से बड़ी राहत मिली है।” भारत में एक अच्छी व्यावहारिक रणनीति, स्वास्थ्य देखभाल के अन्य क्षेत्रों के साथ कुष्ठ रोग को जोड़ने से हो सकता है, ताकि इस रोग के भयावह होने की धारणा समाप्त हो सके। कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई में मुख्य चुनौतियों में से एक यह है कि अभी तक इसके खिलाफ कोई टीका नहीं है, जैसा कि लेप्रोसी मिशन ट्रस्ट इंडिया की कार्यकारी निदेशक, मैरी वर्गीज ने इंडियास्पेंड को बताया है। उन्होंने कहा, ट्रांसमिशन को समाप्त करने का एकमात्र तरीका यह सुनिश्चित करना है कि लोग कुष्ठ रोग के शुरुआती संकेतों और लक्षणों को पहचानें और इलाज के लिए तुरंत आएं। कुष्ठ नियंत्रण के लिए संसाधन आवंटन का बढ़ना जरूरी है।

(रमेश मेनन एक लेखक, पुरस्कार विजेता स्वतंत्र पत्रकार, डॉक्यूमेंट्री फिल्म-निर्माता और सिम्बायोसिस इंस्टीट्यूट ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशन में सहायक प्रोफेसर हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 04 जनवरी, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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