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जावेद शेख सेरेब्रल पाल्सी या मस्तिष्क पक्षाघात का शिकार है। शरीर के निचले हिस्से पर उसका नियंत्रण बहुत कम है। साथ ही उसे सुनाई भी कम देता है। सरकार के सर्व शिक्षा अभियान के तहत एक विशेष शिक्षक की कोशिशों के बाद 14 साल की उम्र में उसने पहली बार कक्षा में कदम रखा है। जावेद की कहानी विशेष जरूरतों वाले भारतीय बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने की उम्मीदों की कहानी है। हम बता दें कि 594,000 अशक्त बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।

जावेद शेख की जिंदगी 14 वर्ष तक घर के अंदर ही सांस लेती रही। जावेद दक्षिण मुंबई के एक निम्न मध्यम वर्ग वाले इलाके शिवड़ी में कला टैकी में रहता है। जावेद का जन्म कई तरह की कमजोरियों के साथ हुआ था। जावेद शेख मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रसित है। शरीर के निचले हिस्से पर उसका नियंत्रण बहुत कम है। साथ ही उसे सुनाई भी कम देता है। उसका सारा दिन बिस्तर पर लेटे या टीवी देखते हुए बीतता था। वह बोल नहीं सकता था। वह हमेशा कुरकुरे खाने की जिद्द करता रहता।

आज की तारीख में, उपचार और नियमित स्कूल में चार साल बिताने के बाद जावेद का नया रंग और अलग रुप सामने आया है। अब उसे स्कूल से छुट्टी करना पसंद नहीं है। वह अपनी किताबों के साथ खुश रहता है ।उसके अब कई दोस्त भी हैं। अब वह अपने आप खाना खा सकता है। स्कूल की वर्दी भी अपने आप ही पहनता है। मोबाईल फोन भी चला लेता है, होठ हिला कर पढ़ सकता है । यही नहीं अब कुछ-कुछ शब्द बोल भी सकता है। वह अपने स्कूल बैग की ओर देखता है और अपनी मां सैमसुनसा शेख से जल्दी चलने को कहता है। जावेद की मां ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया, “मैंने कभी सोचा नहीं था कि वह कभी स्कूल जा सकेगा।”

जावेद की जिंदगी में आए इस बदलाव के श्रेय का एक बड़ा हिस्सा सुनील भदन को भी जाता है। भदन एक विशेष शिक्षक हैं और सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के साथ जुड़े हैं। हम बता दें कि सर्व शिक्षा अभियान का उदेश्य 6-14 वर्ष आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। उन्होंने एक दिन शिवड़ी में अपने घर के पास जावेद को देखा था और फिर वे उनके घर गए थे। फिर जावेद की कहानी ही बदल गई।

जावेद की कहानी विशेष जरूरतों वाले भारतीय बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने की संभावना को दर्शाती है। हम बता दें कि 594,000 ( 28.2 फीसदी ) अशक्त बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। जबकि, इस संबंध में सामान्य बच्चों के लिए आंकड़े 60 लाख या 2.9 फीसदी है। तीन आलेखों की श्रृंखला के पहले लेख में इस पर विस्तार से बताया गया है।

इसी श्रृंखला केतीसरे और अंतिम लेख में मुंबई से 80 किलोमीटर पूर्व वांगानी में एक नेत्रहीन के जरिए विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसरों की की हम जांच करेंगे।

जावेद के पिता शिवड़ी मछली बाजार में काम करते हैं और रोजाना 300 रुपए तक कमा लेते हैं। उनकी आय इतनी नहीं है कि वे जावेद का उपचार करा सकें। पर्याप्त उपचार और पोषण के बिना 14 वर्ष की उम्र में भी जावेद छह साल के बच्चे की तरह दिखता था।

सुनील भदन ने जावेद के परिवार की मुखिया यानी जावेद की दादी को तैयार किया, ताकि उन्हें पास के परेल स्थित जगन्नाथ भाटंकर नगर निगम स्कूल में विशेष जरूरतों वाले बच्चों के स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जा सके। वहां एक आर्थोपेडिक विशेषज्ञ ने जावेद की जांच की और हियरिंग एड, यानी सुनने की मशीन और लेग ब्रेसिज़ की सिफारिश की, जो कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत नि: शुल्क प्रदान की जाती है। कुछ दिन बाद भदन एक बार फिर जावेद के घर गए और उसकी दादी को परेल के एक स्कूल परिसर में आयोजित "स्कूल रेडीनेस" कक्षाओं में जावेद के भेजने के लिए राजी किया।

यह पहला मौका था जब जावेद ने कक्षा में कदम रखा। यह स्कूल विशेष जरूरत वाले बच्चों के लिए तैयार किया गया था। यहां पहली बार भदन के साथ जावेद ने सीधे ढंग बैठना, कुरकुरे के अलावा दूसरा भोजन खाना और खुद शौचालय जाना सीखा। यहां जावेद को हियरिंग एड, स्कूल की वर्दी और एक स्कूल बैग के सेट दिए गए। औपचारिक रूप से शिवड़ी के प्रबोधनकार ठाकरे नगर स्कूल में जावेद का नाम दर्ज कराया गया।

मिल-जुल कर होता है काम

एसएसए एक समावेशी शिक्षा मॉडल का अनुसरण करता है। देखभाल में विशेष जरूरत वाले बच्चे नियमित कक्षाओं में अध्ययन करते हैं, चाहे वो किसी भी तरह की विकलांगता की श्रेणी में हों। हालांकि यह गंभीर रूप से विकलांग बच्चों के लिए घर-आधारित शिक्षा भी प्रदान करता है। वर्ष 2012 में विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य समावेशी शिक्षा प्रदान करने के लिए ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’-2009 में संशोधन किया गया था। इसके बाद से स्कूल में इस तरह के बच्चों के नामांकन में लगातार वृद्धि हुई है।

वर्ष 2003-04 में 17 लाख विशेष जरूरत वाले बच्चों को स्कूल में नामांकित किया गया। वर्ष 2014-15 में यह आंकड़ा बढ़कर 25 लाख हुआ है। यानी 11 वर्ष में 47 फीसदी की वृद्धि हुई है। फिर भी 28.2 फीसदी विशेष जरूरतों वाले बच्चों स्कूल से बाहर हैं, जैसा कि भारत में 6 से 13 साल के बीच स्कूल से बाहर बच्चों के लिए किए गए आकलन ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’-2014 में बताया गया है।

भदन 42 विशेष शिक्षकों में से एक हैं, जो कि मुंबई में विशेष जरूरतों वाले 16,000 से अधिक बच्चों की देखभाल करते हैं। इस संबंध में आंकड़ा प्रत्येक 400 बच्चों के लिए एक विशेष शिक्षक का है। इनका काम बच्चों को पढ़ाना नहीं, बल्कि विशेष जरूरतों वाले बच्चों को ट्रैक करने और उनके शिक्षकों को निर्देशित करना है। उदाहरण के लिए, वे यह सुनिश्चित करते हैं कि अधिक अक्षम, मानसिक मंदता और मस्तिष्क पक्षाघात जैसे बच्चों पर कैसे विशेष ध्यान दिया जा सके।

कॉंट्रैक्ट पर नियुक्त किए गए भदन प्रति माह 20,000 रुपए कमाते हैं। उन्हें प्रति बच्चे पर भत्ता के आधार पर पैसे दिए जाते हैं और वे सप्ताह में छह दिन काम करते हैं।

एक विशेष शिक्षक का काम देर शाम तक चलता है। शाम के करीब 5.30 बजे तक वे काम करते हैं। उन्हें अक्सर काम के लिए बाहर भी जाना पड़ता है। बच्चों को इलाज के लिए नगरपालिका अस्पताल ले जाना, उन्हें विकलांगता प्रमाणपत्र प्राप्त करने में मदद करना और अधिकारियों के साथ उनके यंत्र और उपकरणों के बारे में जानकारी देना भी उनके काम का विशेष भाग है।

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सुनील भदन एक विशेष शिक्षक हैं। वह सर्व शिक्षा अभियान से जुड़े हैं। चार साल पहले उन्होंने जावेद शेख को देखा था। अब जावेद की दुनिया बदल गई है। भदन प्रति माह 20,000 रुपए कमाते हैं और उनका काम देर शाम तक चलता है।

एक विशेष शिक्षक की जिम्मेदारियों में जावेद जैसे बच्चों की पहचान और आकलन करना शामिल है। हर साल मई के महीने में शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत से एक महीने पहले, विशेष शिक्षक विशेष जरूरतों वाले बच्चों का पता लगाने के लिए घर-घर जा कर सर्वेक्षण करते हैं।

भदन ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया, “माता-पिता अक्सर अपने बच्चे की स्थिति को मानने से इंकार करते हैं। उन्हें स्कूल भेजने के लिए हमें समझना और सलाह देना पड़ता है। अन्य जिम्मेदारियों में कक्षा शिक्षकों के साथ एक विशेष मॉड्यूल तैयार करना शामिल है। और उनकी प्रगति भी देखनी पड़ती है। ”

ठाणे जिले के कल्याण से सुबह 8 बजे चलने पर भदन 10.30 बजे तक 38 किलोमीटर दूर परेल स्थित कार्यालय पहुंचते हैं। कुछ कागजी कार्रवाई से निपटने के बाद वह हर दिन तीन स्कूलों का दौरा करते हैं। वह शिक्षक, माता-पिता और बच्चों के साथ मिलते हैं। वे कहते हैं, “हम शिक्षकों को विशेष जरुरतों वाले बच्चों को उनकी क्षमताओं के अनुसार कक्षा भेजने को कहते हैं। ”

वे हमें समझाते हुए कहते हैं कि विशेष आवश्यकताओं और नियमित बच्चों के लिए विभिन्न मूल्यांकन मानदंडों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

नवंबर 2016 में जब इंडियास्पेंड ने स्कूल का दौरा किया तो में 18 वर्षीय जावेद मराठी-माध्यम वाले प्रबोधनकार ठाकरे नगर स्कूल के कक्षा 4 की पहले सीट पर बैठा था। क्लास टीचर चरुलाता पाटिल सामान्य ज्ञान पढ़ा रही थीं। जावेद ने अपनी नोटबुक में वर्णमालाएं लिखीं। टीचर ने उसका नाम लिया तो वह मुस्कुराया।

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जब इंडियास्पेंड ने इलाके का दौरा किया तो जावेद अपनी नोटबुक पर वर्णमालाएं लिख रहा था। टीचर ने जब उसका नाम लिया तो वह मुस्कुराया।

पाटिल कहती हैं, “पिछले वर्षों में जावेद में काफी सुधार हुआ है।जब हम जावेद का नाम पुकारते हैं तो उसके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। ”

पाटिल और बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) स्कूलों के अधिकांश शिक्षकों ने कार्यशालाओं में भाग लिया है जिसमें शिक्षकों को प्रत्येक विकलांगता समूह के लिए विभिन्न जरूरतों के संबंध में बताया जाता है। साथ ही शिक्षकों को उचित शिक्षण तकनीकों का उपयोग करने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। स्कूल के हेडमास्टर परजी खेमनर कहते हैं, "हम ये उम्मीद नहीं करते हैं कि इन बच्चों को अकादमिक रूप से उत्कृष्टता मिलेगी, लेकिन हम चाहते हैं कि वे स्कूल के अनुभव का आनंद लें और रोज स्कूल आएं।"

अध्ययनों से पता चलता है कि जब विशेष जरुरतों वाले बच्चे दूसरे सामान्य बच्चों के साथ पढ़ते हैं तो वे केवल शिक्षा ही प्राप्त नहीं करते हैं बल्कि उनके बीच उच्च स्तर का सामाजिक संपर्क और संवाद होता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि समावेशी कक्षाएं नियमित छात्र की शिक्षा पर समझौता नहीं करती हैं। वास्तव में समेकित कक्षाओं में पढने वाले बच्चे गणित में अधिक लाभ प्राप्त करते हैं और शामिल किए गए बच्चों की वजह से विकलांगता के प्रति संवेदनात्मक रूप में अधिक समझ बना पाते हैं।

पूर्वाग्रह जारी

विशेष जरूरतों वाले बच्चों का नियमित बीएमसी विद्यालयों में दाखिला मिलना हमेशा आसान नहीं होता है। वर्ष 2006 में दीपक खेडेकर अपने बेटे साहिल का दाखिला प्रबोधनकर ठाकरे स्कूल में कराना चाहते थे। साहिल को सुनाई देने में परेशानी थी, लेकिन तत्कालीन हेडमास्टर ने उसे दाखिला देने से इनकार कर दिया। बाद में खेडेकर ने शिवड़ी में एक और बीएमसी स्कूल, बारदेवी नगर स्कूल की कोशिश की। वहां साहिल को दाखिला मिल गया।

एसएसए के विशेष शिक्षकों ने उनसे संपर्क किया और साहिल की आंखों के लिए सर्जरी की सुविधा दी। उसके कानों का भी इलाज कराया गया। आज साहिल कक्षा 8 में है । अच्छी तरह से काम कर सकता है। उसे क्रिकेट पसंद है और इस खेल से वह पूरी तरह से घुला-मिला है। इस पर वह अच्छी तरह से बात कर सकता है। खेडेकर कहते हैं, “साहिल में 100 फीसदी सुधार हुआ है। अब वह खुद को सामान्य बच्चा समझता है।”

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अपने बेटे साहिल के साथ दीपक खेडेक। साहिल मुंबई में शिवड़ी में बारदेवी नगर स्कूल में 8वीं कक्षा में पढ़ता है। साहित को कान से सुनाई देने में परेशानी है।

इसी स्कूल में नौ वर्षीय अंकिता इंगले भी पढ़ती है। अंकिता के पैर ठीक से काम नहीं करते हैं। वह खेल के अलावा सभी गतिविधियों में भाग लेती है। पढ़ाई में काफी अच्छी है। अंकिता के परिवार में पांच सदस्य हैं । वह शिवड़ी में एक झुग्गी बस्ती में रहती है। अंकिता का घर पहली मंजिल पर है। उसके कमरे का आकार 10 X 10 फुट का है, जहां तक एक संकीर्ण लोहे की सीढ़ी के द्वारा पहुंचा जा सकता है। इस पर चढ़ना अंकिता ने खुद सीखा है। हालांकि एसएसए बच्चों को स्कूल में लाने के लिए नाममात्र परिवहन भत्ता का भुगतान करती है, लेकिन अंकिता के माता-पिता हर दिन उसे स्कूल में ले जाते हैं और वापस ले जाते हैं।

जब इंडियास्पेंड ने उससे मुलाकात की तो अंकिता ने हमें एक कविता पढ़ कर सुनाई और बताया कि यह कविता उसने खुद लिखी है। पेशे से एक पुताई ठेकेदार अंकिता के पिता एपेसा इंगले कहते हैं, “"मैं हमेशा चाहता था कि वह मराठी में सरकारी स्कूल में पढ़ाई करे। बिना किसी परेशानी के उसे यहां दाखिला मिल गया।” अंकिता के पिता का सपना है कि वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी बने।

मुंबई में एसएसए की सफलता के बावजूद, सरकारी स्कूलों में विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की संख्या कक्षा 4 के बाद नीचे आ जाती है। फिर भी, निजी और अनाधिकृत विद्यालयों में उनकी संख्या कक्षा 4 के बाद बढ़ जाती है।

एसएसए के समावेशी शिक्षा के लिए जिला समन्वयक किरण बेलेज कहती हैं, “कई निजी और बिना सहायता प्राप्त विद्यालय विशेष जरूरतों वाले बच्चों को कम उम्र में दाखिला नहीं देते हैं, लेकिन जब बच्चा पहले से ही स्कूल जाना शुरू कर देता है तो बच्चों के लिए दाखिला मिलना आसान हो जाता है। इसके अलावा, मुंबई में बाहर से आने वाले माता-पिता शहर में रहकर कुछ वर्षों के बाद आर्थिक रूप से बेहतर हो जाते हैं और बाद में निजी स्कूल में पढ़ाना वहन कर सकते हैं। ”

अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि निजी और सहायता प्राप्त विद्यालय विशेष जरूरत वाले बच्चों के साथ अतिरिक्त प्रयास करने के प्रति उदासीन रहते हैं। वे नामांकन करने में इसलिए हिचकते रहे हैं कि उन्हें डर है कि इससे उनके स्कूल का समग्र शैक्षणिक प्रदर्शन नीचे आ जाएगा। भदन कहते हैं, “निजी स्कूलों में हमेशा उनसे शैडो शिक्षक की तरह काम करने की उम्मीद की जाती है। ”

संसाधन की कमी

सामान्य शिक्षकों की तुलना में विशेष शिक्षकों के पास ज्यादा काम रहता है। भदन और दो अन्य विशेष शिक्षकों परेल तालुका (प्रशासनिक प्रभाग) के सभी 118 स्कूलों का ख्याल रखते हैं। भदन के सहयोगी विशेष शिक्षक वैशाली हैक कहती हैं, “हम तीन से छह महीने के अंतराल के बाद कुछ स्कूलों का दौरा कर पाते हैं।”

कभी-कभी एसएसए की पहुंच से बाहर के कारण भी परिणाम को हताशा में बदल देते हैं। इंडियास्पेंड से मिलने के तीन सप्ताह बाद, जावेद और उसके परिवार को ठाणे जिले के कल्याण इलाके में 38 किलोमीटर उत्तर में मुम्बरा जाना पड़ा, क्योंकि शिवड़ी में उनकी झोपड़ी ध्वस्त कर दी गई थी। जावेद अब स्कूल नहीं जाता। जावेद की मां सैमसुनसा शेख कहती हैं "मैं जावेद को ट्रेन से शिवड़ी ले कर नहीं जा सकती हूं और मुझे नहीं पता है कि यहां के विद्यालय जावेद को दाखिला मिलेगा या नहीं।"

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अपने माता-पिता के साथ नए घर में बैठा जावेद। जावेद के परिवार को ठाणे जिले से 38 किमी उत्तर मुम्बरा जाना पड़ा, क्योंकि शिवड़ी में उनकी झोपड़ी हटा दी गई थी। जावेद अब स्कूल नहीं जाता।

भदन कहते हैं कि परिवारों का प्रवास एक सामान्य समस्या है, क्योंकि झुग्गियों को अक्सर ऊंची इमारतों के लिए ध्वस्त कर दिया जाता है और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों को दूर जाना पड़ता है। भदव कहते हैं कि उनका उद्देश्य जावेद को दसवीं कक्षा पास कराना है और फिर उसके लिए एक छोटी सी दुकान खोल कर उसे आत्मनिर्भर बनाने का है।

जावेद के परिवार के मुम्बरा चले जाने के डेढ़ महीने बाद इंडियास्पेंड ने उसके घर का दौरा किया और जानने की कोशिश की कि उसे स्कूल में दाखिला मिला है या नहीं। जावेद के पिता ने कहा कि उन्होंने एक निजी स्कूल से संपर्क किया था, लेकिन शिक्षक ने जावेद को नियमित स्कूल में नामांकन देने से मना कर दिया।

ठाणे के दो नगरपालिका स्कूलों ने मुंबई विद्यालयों से एक अलग तस्वीर प्रदर्शित की है। एक स्कूल में बहुत सारे बच्चे थे, लेकिन शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं थी। मुम्बरा में स्कूल नंबर 123 में मुख्य अध्यापिका शोभना चोघे ने कहा, “हमारे दो शिक्षकों को अन्य स्कूलों में स्थानांतरित कर दिया गया, वहां चार कक्षाओं के लिए केवल दो शिक्षक हैं। यदि विशेष जरूरत वाले बच्चे यहां आते हैं, तो उनके लिए यह कठिन होगा। ”

स्कूल नंबर 78 की हेड मिनिस्ट्रेस मनाली पाटिल कहती है, “उसे एक विशेष स्कूल में जाना चाहिए, हमारे बच्चे अराजक ढंग से खेलते हैं और उसे भी चोट पहुंचा सकते हैं। ”

यह भारत में विकलांग व्यक्तियों की स्थिति पर तीन आलेखों की श्रृंखला का दूसरा लेख है।

पहला लेख आप यहां पढ़ सकते हैं।

(यादवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 06 अप्रैल 17 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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