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मुंबई: इन्सिया दरीवाला बाल यौन शोषण से संबंधित जब अपनी पहली लघु फिल्म 'द कैंडी मैन' बना रही थी, तो बीच में उन्होंने फैसला किया कि फिल्म का नायक कोई लड़की नहीं, लड़का होना चाहिए।

फिल्म निर्माता और सामाजिक कार्यकर्ता दरीवाला ने बातचीत के दौरान इंडियास्पेंड से कहा, "मेरी यात्रा हमेशा काम को लेकर रही है, जो समाज के मुद्दों को उजागर करती है, जिनके बारे में लोगों को पता नहीं रहता। उन मुद्दों में कोई बीमारी, कोई घटना या रिश्ते हो सकते हैं। "

बाल यौन शोषण एक ऐसा विषय है, जिस पर शायद ही कभी रूढ़िवादी भारतीय समाज के बीच चर्चा की जाती है, और लड़कों का यौन शोषण तो एक और निषिद्ध मुद्दा है।

महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2007 में 12,447 बच्चों पर किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक कम से कम 53 फीसदी बच्चों को यौन शोषण का एक या एक से अधिक रूपों का सामना करना पड़ा था। सर्वेक्षित 13 राज्यों में से नौ में, लड़कियों के मुकाबले लड़कों के बीच यौन शोषण का एक बड़ा प्रतिशत बताया गया था।

हालांकि, भारत में महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार ने दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा है। राष्ट्रीय स्तर पर काफी उथल-पुथल के बाद बाल बलात्कार के लिए कठोर दंड और मृत्युदंड की शुरुआत की गई है। हालांकि बलात्कार पीड़ित या अन्य रुप में यौन शोषण वाले लड़कों पर समान ध्यान नहीं दिया गया है।

दरीवाला ने भारत में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार जीता है और उन्हें 'द कैंडी मैन' के लिए न्यूयॉर्क शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल और बार्सिलोना अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए नामित किया गया। बाद में, उन्होंने मुंबई में स्थित एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) हैंड्स ऑफ होप फाउंडेशन शुरू किया, जो यौन हिंसा पर केंद्रित है, और साथ ही बलात्कार के मुद्दे पर 'द कॉक-टेल' एक दूसरी फिल्म भी बनाई।

दरीवाला सहियो की सह-संस्थापक भी हैं। सहियो एक ऐसा संगठन है, जो दाऊदी बोहरा और अन्य समुदायों में महिला जननांग काटने की प्रथा को समाप्त करने के लिए समाजिक लड़ाई लड़ रहा है।

उनकी हाल की फोटो सीरीज बाल यौन दुर्व्यवहार के पुरुष पीड़ितों पर आधारित है। वह चाहती हैं कि बाल यौन दुर्व्यवहार के पुरुष पीड़ितों के प्रति लोगों का नजरिया बदले।

दरीवाला कहती हैं, "यह परियोजना सरकारी स्तर पर बदलाव करने में महत्वपूर्ण रही है। हमें पुरुषों के बारे में बात करने की ज़रूरत है। हमने पहले कभी बाल यौन शोषण के बारे में एक आदमी को बात करते नहीं देखा है। "

दरीवाला ने भारत में पुरुष बाल यौन शोषण पर गहन अध्ययन करने के लिए महिलाओं और बाल विकास के केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी से अनुरोध करते हुए एक याचिका डाली थी। अप्रैल 2018 में, मेनका गांधी ने जवाब दिया और अब दरीवाला को अध्ययन का नेतृत्व करने के लिए कहा गया है।

ई-मेल के द्वारा साक्षात्कार में, दरीवाला ने बाल यौन शोषण के उन वर्जित मुद्दों बात की, जिसपर आम तौर पर हमारा पुरुष प्रधान समाज बात करते हुए बचता है।

उनसे बातचीत के कुछ अंश

सामाजिक मानदंड लड़कों को 'कठिन' और 'सामना करने में अधिक सक्षम' होने की उम्मीद करता है। आपने उन लड़कों के लिए #EndTheIsolation ऑनलाइन अभियान शुरु किया है, जिन्होंने यौन शोषण का अनुभव किया है। समाज को इस वास्तविकता का सामना करने और पुरुष पीड़ितों को कम करने के लिए बड़े पैमाने पर इससे क्या मदद मिलेगी?

बाल पुरुष यौन दुर्व्यवहार से लड़ने में सबसे बड़ी समस्या पितृसत्तात्मक समाज है, जिस समाज में हम रहते हैं। यह विडंबना है कि पितृसत्ता पुरुषों को भी प्रभावित करती है। लड़कों को बहुत कम उम्र में संरक्षक बनने के लिए तैयार किया जाता है। फिर एक संरक्षक कमजोर या अतिसंवेदनशील कैसे हो सकता है? उसके साथ बलात्कार कैसे किया जा सकता है? इस इनकार के बीच समाज को रहना पसंद है।

जिस दिन हम इस धारणा को छोड़ देंगे, हमें बालपुरुष यौन दुर्व्यवहार से लड़ने में मदद मिलनी शुरू हो जाएगी। हालांकि इससे समाज में मौजूद पुरुषों की माचो छवि को नुकसान पहुंचेगा।

अफसोस की बात है कि समाज में एक लड़के को बच्चे के रूप में कमजोर रूप से देखा नहीं जा सकता। पीढ़ियों से गहरा पितृसत्तात्मक बीज, एक बहुत बड़ा कारण है कि पुरुषों को केवल संरक्षक के रूप में भूमिका में देखा जा सकता है, कभी पीड़ित के रुप में नहीं। वे चोट पहुंचा सकते हैं, लेकिन कभी चोट नहीं खा सकते।

ये वे धारणाएं हैं, जो माता-पिता को अपने लड़के के साथ हुए किसी तरह के शोषण पर भरोसा करने से रोकते हैं। यहां तक ​​कि अगर शिकायत दूर तक जाती है तो अधिकारियों को यह मानने में काफी वक्त लग जाता है कि एक लड़का भी बलात्कार, छेड़छाड़, दुर्व्यवहार कर शिकार हो सकता है?

लड़के क्यों? यहां तक ​​कि लड़कियों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। हालांकि यहां एक अंतर है। एक लड़की के साथ हुए यौन दुर्व्यवहार को लेकर नाराजगी झलकती है और इसे गंभीर अपराध के रूप में देखा जाता है, लेकिन अधिकांश पुरुषों के साथ हुए यौन दुर्व्यवहार को बीते हुए दिनों की महज एक याद के रूप में देखा जाता है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि समाज के नजरिये ने यौन दुर्व्यवहार को लड़का / लड़की का मुद्दा बना दिया है, जबकि वास्तव में यह बच्चों का मुद्दा है। इस पूर्वाग्रह से मुक्त होना होगा।

एक बार जब बिना किसी पूर्वाग्रह समस्या को आप देखते हैं तो हम सहानुभूति और करुणा के साथ वास्तविकता तक पहुंच सकते हैं।

उम्मीद है कि, हम शुरुआत में बाल यौन दुर्व्यवहार को खत्म करने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास कर सकेंगे और फिर न्याय के लिए लंबा इंतजार नहीं होगा।

आपकी याचिका के परिणामस्वरूप, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने आपको भारत में पुरुष बाल यौन शोषण पर गहन अध्ययन करने के लिए कहा, जो एक गैर सरकारी संगठन, ‘जस्टिस एंड केयर’ द्वारा समर्थित है। यह बाल यौन शोषण पर हुए अंतिम अध्ययन के 10 साल बाद आया है। क्या आपको लगता है कि अंतिम अध्ययन के बाद से चीजें लगातार सुधार रही हैं? क्या आपको लगता है कि इन अपराधों के मीडिया कवरेज के बाद इन मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है?

नहीं, मुझे नहीं लगता कि चीजें बेहतर हुई हैं। 2007 के बाद से महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बलात्कार और यौन हमले की घटनाएं निश्चित रूप से बढ़ी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, पिछले छह वर्षों से देश में नाबालिगों के साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। 2007 में 5,045 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2012 में आंकड़े 8,541 तक पहुंच गए थे।

मीडिया ने इन घटनाओं को उजागर करने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके बाद से ही इस मुद्दे पर अधिक ध्यान दिया गया। मिसाल के तौर पर, अगर ‘मिरर नाउ’ का ‘लाइव कवरेज’ और ‘मेरे अभियान’ को लेकर अन्य समाचार पत्र / मीडिया चैनलों की दिलचस्पी नहीं होती बालपुरुष यौन दुर्व्यवहारके मुद्दे पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता। मैं वास्तव में महिलाओं और बच्चों पर यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई का समर्थन करने के लिए मीडिया की आभारी हूं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ 39 अपराधों की सूचना दी गई थी, जो 2007 में 21 थीं। आपने कहा है कि पुरुष बच्चों के साथ अप्रत्याशित दुर्व्यवहार वयस्क पुरुषों में हिंसा और यौन अपराधों को जन्म देने का एक कारण हो सकता है। क्या आप इसके बारे में हमें विस्तार से बता सकते हैं?

मैं सामाजिक विज्ञान का कोई विशेषज्ञ नहीं हूं और न ही मैं एक टिप्पणी देने के लिए अधिकृत कोई मनोवैज्ञानिक हूं। हालांकि, मेरे पास उन लड़कों के बीच काम करने का अनुभव है, जिन्होंने इस तरह के दुर्व्यवहार को झेला है। पहली मुलाकात में उन्होंने ऐसे दुर्व्यवहार पर जिस ढंग से गुस्सा प्रदर्शित किया था, उससे लगा था कि उनके साथ सचमुच कुछ वैसा हुआ है।

इस पर विस्तार से जानने के लिए मैंने यौन उत्पीड़न वाले 160 पुरुष उत्तरदाताओं के साथ एक ऑनलाइन संपर्क अभियान चलाया और उनसे कुछ सवाल पूछे। 160 में से 7 फीसदी में बदले की भावना थी और वे अब भी गुस्से में थे।

इस प्रकार का एक और बड़ा अध्ययन मैं ‘जस्टिस एंड केयर’ के साथ मिलकर करने वाली हूं। अध्ययन के बाद प्रासंगिक विशेषज्ञों द्वारा डेटा का विश्लेषण किया जाएगा तो फिर इस मुद्दे पर कुछ नए तथ्य मिलेंगे।

हाल ही में बलात्कार के दोषी लोगों के लिए कठोर दंड शामिल करने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में संशोधन किया गया था और इसमें बाल बलात्कार के लिए मृत्युदंड की सिफारिश भी शामिल थी। इन संशोधनों पर आपके विचार क्या हैं?

मैं व्यक्तिगत रूप से उस मामले के लिए बाल बलात्कार या किसी भी बलात्कारी के लिए मृत्युदंड के पक्ष में नहीं हूं। मौत की सजा से अपराधी मरेंगे, अपराध नहीं। इसके अलावा, सरकार से ऐसी प्रतिक्रिया वास्तव में बलात्कार पीड़ितों के लिए हानिकारक हैं। अपराधी अब पीछे कोई सबूत नहीं छोड़ना चाहते हैं। हम अब पीड़ितों की हत्याओं में वृद्धि देख सकते हैं।

वे बलात्कार क्यों करते हैं, इस मूल बिंदु तक पहुंचना जरूरी है। कौन सी मानसिकता उन्हें बलात्कार तक ले जाती है। यदि हम नाबालिगों और महिलाओं पर हुए बलात्कार के मामले को एक अध्ययन के रूप में देख सकें, तो मुझे लगता है कि हमें आज अपने समाज में इस भयानक समस्या से निपटने के रास्ते मिल सकते हैं।

मैं व्यक्तिगत रूप से बलात्कारियों की मानसिकता का अध्ययन करना चाहती हूं और उम्मीद करती हूं कि सरकार मुझे उन तक पहुंचने की अनुमति देगी।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2016 में बलात्कार के मामलों में 94 फीसदी मामले में पीड़ितों के हमलावर जानकार थे। वे या तो परिवार के सदस्य थे. मित्र या केअरटेकर थे। ऐसे में पीड़ितों की मदद कैसे कर सकते हैं हम, क्योंकि यहां यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती है कि उसके साथ जो कुछ हुआ, उसकी रिपोर्ट करे वह।

सबसे पहले, यह समझना महत्वपूर्ण है कि 'हम' कौन हैं? हम, आप या 1.5 बिलियन लोग। हमारे समाज को एक नए बदलाव की जरूरत है

हां, यह सच है कि बाल यौन शोषण का अधिकांश मामला में विश्वास के घेरे के भीतर होता है। जब परिवारों के भीतर दुर्व्यवहार होता है, तो पीड़ित पर अक्सर भरोसा नहीं किया जाता है, उपहास किया जाता है, और यहां तक ​​कि पीड़ितों पर ही आरोप भी लगाया जाता है। ऐसे में कोई पीड़ित बच्चा कैसे अपनी बात कहने आगे आएगा।

आज, हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि कौटुम्बिक व्यभिचार बहुत फैल रहा है। कई बार अपराधी पिता, चाचा, भाई या चचेरा भाई हो सकता है। इसके बाद बच्चे को या तो दुर्व्यवहार को छिपाने के लिए कहा जाता है, या अगर यह रिपोर्ट हो जाती है तो परिवार समर्थन वापस ले लेता है।

अभी सबसे बड़ी चुनौती एक सही सामाजिक संरचना को बनाने की है। लेकिन हमें अभी लंबा सफर तय करना है।

घरों की सामाजिक-आर्थिक संरचना, जहां अधिकांश रोटी कमाने वाला पुरुष है, अक्षम पुलिस और बाल यौन दुर्व्यवहार के बाद चिकित्सा सुविधाओं में उचित प्रशिक्षित कर्मियों की कमी, जीवित पीड़ित तक आवश्यक हस्तक्षेप में देरी जैसे मुद्दे हैं, जिसे हल करने की जरूरत है।

आप और आपके पति दोनों ने बाल दुर्व्यवहार के साथ अपने अनुभवों के बारे में सार्वजनिक रूप से बात की है, और यह कि आपके साथ जो हुआ,उसे हाल ही में आप स्वीकार कर पाए हैं। इन अनुभवों के दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्या हैं?

मैं दुनिया की बात नहीं कर सकती, लेकिन जहां से मैं जुड़ी हूं, वहां की बात कर सकती हूं। केवल 10 साल पहले ही मैंने वास्तव में अपने जीवन में पुन: पीड़ित होने का एक पैटर्न देखना शुरू कर दिया था। ऐसा अक्सर यौन दुर्व्यवहार के बचे हुए लोगों में होता है। आप वही सटीक परिदृश्यों को फिर से तैयार करते हैं जो आपको दर्द देते हैं क्योंकि आप अपेन अंदर कहीं गहराई से विश्वास नहीं करते हैं कि आप खुश होने के लायक हैं।

दुर्व्यवहार से शर्म और अपराध जुड़ा है, जो अपराधियों की ओर नहीं जाता, उसे पीड़ितों के साथ जोड़ दिया जाता है। मुझे लगता है कि मेरे दुर्व्यवहार के बाद बाहर निकल आने का एक बड़ा कारण यह था कि मैं खुद और दुनिया को बता दूं कि यह कभी मेरी गलती नहीं थी।

मेरा अभियान 'एंड द आईसोलेशन' भी अपराध और शर्म से बाहर निकलने के लिए बचे लोगों को प्रोत्साहित करने के बारे में है

आप एनजीओ सहियो भी चलाती हैं, जो विशेष रूप से दाऊदी बोहरा समुदाय के बीच महिला जननांग काटने (एफजीसी) की प्रथा को रोकने के लिए काम करती है। समुदाय की प्रथाओं को बदलने की कोशिश करते समय क्या चुनौतियां आईं और आप कैसे यह प्रभावी ढंग से बता पाती हैं कि यह काम बाल शोषण का ही एक रूप है?

देखिए, भारत में एफजीसी से निपटने का मुद्दा काफी मुश्किल वाला है क्योंकि इसकी नींव धर्म में गहराई से है। धर्म के नाम पर किए गए काम को रोकने में कई बाधाएं आती हैं, क्योंकि आप पुरानी मान्यताओं पर सवाल उठा रहे हैं, जिनपर किसी ने कभी सवाल करने की हिम्मत नहीं की है।

एफजीसी को खत्म करने के लिए ‘सहियो’ का दृष्टिकोण इस अर्थ में काफी अनोखा है कि हम समुदाय से अलग नहीं जाते हैं, लेकिन बच्चों पर एफजीसी के असर पर चर्चा करने के लिए शिक्षा और सहभागिता का उपयोग करते हैं।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कटौती करने के लिए किस विधि को नियोजित किया गया है, मुझे दृढ़ता से लगता है कि यह अभ्यास बाल शोषण का एक और रूप है। इसलिए कोई भी परंपरा चाहे वह धार्मिक या किसी और तरह की, यदि वह किसी निर्दोष बच्चे पर शारीरिक या मानसिक आघात का कारण बनता है, तो निश्चित रूप से समाप्त किया जाना चाहिए।

हालांकि, हमारी सबसे बड़ी चुनौती, आज तक महिलाओं से आई है जो इस परंपरा को जारी रखना चाहती हैं। मेरी राय में यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। तर्क यह है कि जो लोग खतना (मादा जननांग काटने) का विरोध करते हैं ,वे वास्तव में धर्म का विरोध कर रहे हैं, हालांकि यह बिल्कुल भी सच नहीं है।

पिछले पांच सालों से, हमने लगातार धार्मिक नेता से जुड़ने की कोशिश की है ताकि वह लोगों के साथ संवाद कर सके और उन्हें इस अभ्यास को समाप्त करने के लिए हमारे कारणो को समझा सकें। हमने उन लोगों को भी आमंत्रित किया है, जो हमारे विरोध में हैं। मिलना और संवाद इसलिए जरूरी है कि हम एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझ सकें।

आज, ‘सहियो’ का विरोध करने के लिए मंच बने हैं। मेरे सहयोगी और मैं निरंतर साइबर हमलों और ट्रोलिंग का शिकार रहे हैं। हमारे परिवारों पर और व्यक्तिगत मुझपर सवाल उठाए जाते हैं। मैं जो कुछ भी कर रही हूं, उसको रोकने के लिए लोग सक्रिय हैं। मैंने कई छिपे हुए खतरों का भी अनुभव किया है।

आखिरी रमजान, मुझे अपने रिश्तेदारों से मिलने से मना किया गया था, क्योंकि मुझे पीटे जाने का डर था। शुक्र है, मैं आसानी से परेशान नहीं होती है। मुझे वास्तव में कई बार इन मनोरंजक परिस्थितियों में बहुत मजा आता है।

सच को किसी रक्षा की जरूरत नहीं है और फिर भी इस अभ्यास की रक्षा के लिए कुछ लोगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। क्यूं? अगर एफजीसी सचमुच कुछ ऐसा है, जो अल्लाह चाहते हैं, तो क्या लड़कियां बिना अंग के पैदा नहीं होती?

(संगहेरा, लंदन के किंग्स कॉलेज से स्नातक हैं और इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं।)

यह साक्षात्कार 27 मई, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है

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