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अक्टूबर 2018 को एक स्थानीय समाचार चैनल द्वारा पोस्ट किए गए इस वीडियो में पुलिसकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों से घिरे कुछ लोग,जिसमें एक बुजुर्ग भी शामिल है, उठक-बैठक करते हुए दिखाई देते हैं। चैनल के अनुसार ये लोग मध्य बिहार के बेगूसराय जिले के हैं और उन्हें खुले में शौच करने के कारण दंडित किया गया है। वीडियो में यह भी दिखाया गया है कि वे शौचालय में केवल शौच करने की बात दोहरा रहे हैं। इस बात को दोहराते वक्त मुस्कुराने पर एक व्यक्ति को सरकारी अधिकारी द्वारा थप्पड़ मारते हुए भी देखा जा सकता है। पश्चिम महाराष्ट्र के पुणे के पास अहमदनगर जिले में एक महिला को दो महिलाओं द्वारा घसीटा जाता है। उनमें से एक ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की वर्दी पहना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि महिला खेतों में शौच के लिए गई थी। घटना का वीडियो अगस्त 2017 को एक स्थानीय स्टूडियो द्वारा सामने लाया गया है। महिलाएं उसे सड़क पर घसीटती हैं और उसे एक जीप में धकेल देती हैं, जहां कुछ पुरुष इंतजार करते हुए दिखाई देते हैं। महिला विरोध में चिल्लाती है और बाद में माफी मांगती है।

समाचार चैनल ईटीवी भारत द्वारा प्रकाशित इस वीडियो के अनुसार, दक्षिण-पूर्व उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में एक 12 वर्षीय लड़के की खुले में शौच करने के मामले में कथित तौर पर पिटाई के बाद मौत हो गई।

हरियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के ऐसे ही समाचार वीडियो मिले हैं, जिससे पता चलता है कि भारत को 2 अक्टूबर, 2019 तक, खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) बनाने के स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के लक्ष्य को हासिल करने के नाम पर खुले में शौच करने वाले लोगों को अपमानित, गिरफ्तार और यहां तक कि पिटाई भी की गई है। जनवरी 2017 की एक समाचार रिपोर्ट में मध्य प्रदेश में खुले में शौच के लिए मौत की धमकी देने वाले पोस्टर मिले हैं। रिसर्च एडवोकेसी ग्रुप रिसर्च इंस्टीट्यूट फ़ॉर कम्पैसिनेट इकोनॉमिक्स (आरआईसीई) के द्वारा सर्वेक्षण किए गए ग्रामीण मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश में 56 फीसदी लोगों ने कम एक तीन बलात सरकारी व्यवहार के बारे में पता होने की सूचना दी - खुले में शौच करने से रोकना, सरकारी लाभों को वापस लेने की धमकी और जुर्माने की धमकी - जो शौचालय बनाने में विफल होने या खुले में शौच करने की स्थिति में सरकारी कर्मचारियों या सामुदायिक सतर्कता समूहों के सदस्यों के द्वारा लागू किया जाता है।

4 जनवरी, 2019 को, आरआईसीई और थिंक टैंक अकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (एआई) ने इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों और पहले एआई अध्ययन के आधार पर एक वर्किंग पेपर प्रकाशित किया। इंडियास्पेंड ने 7 जनवरी, 2019 को वर्किंग पेपर के निष्कर्षों के आधार पर रिपोर्ट की, जिसमें साफ था कि चार राज्यों में 2018 में 44 फीसदी लोगों ने खुले में शौच किया, जबकि 2014 में यह आंकड़ा 70 फीसदी था।

हमने यह भी बताया था कि शौचालय का स्वामित्व करने वाले 23 फीसदी लोग खुले में शौच करते हैं ( 2014 के समान ) और इसका कारण ज्यादातर जातिगत दूरी का मामला और प्रदूषण के बारे में सामाजिक मान्यताएं हैं, जैसा कि पेपर में बताया गया है। शौचालय के ऐसे मालिक, जिनका खुले में शौच करना जारी हैं, उनमें अन्य समूहों की तुलना में, दलित परिवारों के साथ दोगुनी और आदिवासी घरों के साथ जोर-जबरदस्ती का सामना करने की तिगुनी आशंका थी। इसके अलावा, वर्किंग पेपर के अनुसार, शौचालय वाले 40 फीसदी भारतीय घरों में सरकार द्वारा अनुशंसित ट्वीन-पीट गड्ढे वाले शौचालयों की बजाय बड़े, एकल-गड्ढे वाले शौचालय पसंद किए गए थे। एकल गड्ढों में कीचड़ को मैन्युअल रूप से खाली या या महंगी सक्शन मशीनों के माध्यम से खाली किया जाता है। एसबीएम द्वारा बड़े जोर शोर से प्रचारित ट्विन-पिट डिज़ाइन, एक गड्ढे में मल कीचड़ के अपघटन की सुविधा देता है, जबकि दूसरे का उपयोग किया जारी रहता है, जो अधिक कुशलता के साथ खाली हो जाता है। छोटे सिंगल-पिट शौचालय, कई अन्य देशों में आउटहाउस में उपयोग किए जाते हैं, और ट्विन-पिट शौचालय बड़े, सिंगल-पिट शौचालय की तुलना में बनाने के लिए सस्ते होते हैं।

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय (एमडीजब्लूएस), जो एसबीएम की देखरेख करता है, ने 9 जनवरी को इंडियास्पेंड की रिपोर्ट का जवाब दिया और एक प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की, जिसमें कहा गया कि एसबीएम सकारात्मक व्यवहार परिवर्तन का समर्थन करता है और कार्यान्वयन में किसी भी तरह की जबरदस्ती की रिपोर्ट को गंभीरता से लेता है।

एमडीडब्लूएस ने यह भी कहा कि "(आरआईसीई और एआई) रिपोर्ट जबरदस्ती और सकारात्मक समुदाय कार्रवाई के बीच अंतर करने में विफल है, जैसे स्थानीय निगरानी समितियों (ग्रामीण सतर्कता समितियों में ग्रामीणों को शामिल किया गया है जो खुले में शौच की निगरानी करते हैं) या स्थानीय ग्राम पंचायत या सामुदायिक स्तर पर खुले में शौच करने पर प्रतिबंध लगाते हैं।"

इंडियास्पेंड ने आराईसीई में रिसर्च एंड सैनिटेशन के निदेशक निखिल श्रीवास्तव से बात की। श्रीवास्तव लिंडन बी जॉनसन स्कूल ऑफ पब्लिक अफेयर्स, टेक्सास विश्वविद्यालय के स्नातक छात्र हैं और पेपर के सह-लेखकों में से एक हैं। इंडियास्पेंड ने उनसे पूछा कि यदि आरआईसीई जोर-जबरदस्ती के बारे में एमडीडब्लूएस के दावों से सहमत है, तो भारतीय खुले में शौच करना जारी क्यों रखते हैं और अधिकांश भारतीय बड़े सिंगल पिट लैट्रिन को क्यों पसंद करते हैं। साक्षात्कार के कुछ अंश:

आरआईसीई और एआई के वर्किंग पेपर के सामने आने के बाद, कुछ लोगों ने पूछा कि 2014 के बाद, अभी भी खुले में जो शौच करते हैं, उनके बारे में बात करने की बजाय स्वच्छ भारत मिशन द्वारा खुले में शौच को कम करने में सुधार के बारे में बात क्यों नहीं की जाती है? आपका क्या कहना है?

हमारे अध्ययन से पता चलता है कि ग्रामीण उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में खुले में शौच में 26 फीसदी की कमी है, लेकिन इन राज्यों में 44 फीसदी ग्रामीण लोग खुले में शौच करते हैं। ये एक तथ्य है।

हम इस बात से भी चिंतित हैं कि एक क्षेत्र को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किए जाने के बाद क्या होता है। इसके अच्छे उदाहरण मध्य प्रदेश और राजस्थान हैं। (2 अक्टूबर, 2018 तक, 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने खुद को ओडीएफ घोषित किया था, इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट की, लेकिन एसबीएम के दावे और डेटा संदिग्ध थे।) इन राज्यों को ओडीएफ घोषित किया गया है, और अब उनके पास खुले में शौच से निपटने के लिए संसाधनों की कमी है, जहां यह अभी भी चल रहा है। इन 'ओडीएफ' क्षेत्रों में खुले में शौच जारी रखने की बात करके, हम चाहते हैं कि लोग समस्या पर ध्यान दें। जब तक हर कोई यह स्वीकार नहीं करता कि कार्य अधूरा है, हम आशा नहीं कर सकते कि सरकार ग्रामीण भारतीयों को शौचालय का उपयोग करने के लिए समझाना जारी रखेगी।

क्या आपको लगता है कि जातिगत दूरियां और छुआछूत जैसी सामाजिक मान्यताओं के बीच स्वच्छता लक्ष्यों को प्राप्त करने की चुनौतियां कम हुई हैं?

भारत, एसबीएम लॉन्च होने से पहले भी, खुले में शौच में 1 फीसदी प्रति वर्ष की दर से कमी देख रहा था। अब, एसबीएम के तहत, दर प्रति वर्ष 6 फीसदी से थोड़ा अधिक है। कुछ लोग शौचालय का उपयोग करने की ओर बढ़े हैं, क्योंकि वे चाहते थे। कुछ अन्य लोग शौचालय की ओर इसलिए गए, क्योंकि वे इसके लिए मजबूर थे। हमारे डेटा से पता चलता है कि बड़े (एकल) पिट शौचालयों का उपयोग किए जाने की अधिक संभावना है, और छोटे गड्ढे (जुड़वां गड्ढे सहित) शौचालयों नजरअंदाज करना जारी है। ग्रामीण भारतीय अभी भी गड्ढों को खाली करने के बारे में चिंता करते हैं, जिसे वे मैनुअल स्कैवेंजिंग के साथ जोड़ते हैं, और इस तरह जुड़वां गड्ढों जैसे छोटे शौचालयों का उपयोग करने अनिच्छुक रहते हैं, हालांकि ये सस्ते हैं। लोग ऐसे बड़े गड्ढे चाहते हैं, जो पीढ़ियों तक खाली न हों। वे एक 10x10x10 फीट के गड्ढे (1,000 घन फीट की क्षमता) चाहते हैं।

ग्रामीण आख्यानों बनाम डब्ल्यूएचओ और भारत सरकार द्वारा अनुशंसित गड्ढों की आदर्श मात्रा, 2016

Source: RICE

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने वर्किंग पेपर के निष्कर्षों पर हमारी रिपोर्ट का जवाब देते हुए कहा कि शोधकर्ता जबरदस्ती और सकारात्मक सामुदायिक कार्रवाई के बीच अंतर करने में विफल रहे। इसलिए वे ऐसी गतिविधियों पर विचार नहीं करते हैं, जैसे हमने कई वीडियो में देखा है, जहां लोगों को खुले में शौच करने के लिए अपमानित, दंडित और पीटा जा रहा है?

इंटरनेट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध वीडियो हैं जो जबरदस्ती के कुछ सबसे खराब उदाहरणों को दिखाते हैं - सरकारी अधिकारियों द्वारा गरीब ग्रामीणों की पिटाई, एक महिला को सरकारी कर्मियों द्वारा खेतों से खींचकर ले जाना, इत्यादि। इसके अलावा, आए दिन ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह की जबरदस्ती के गतिविधियों को कवर करने वाली रिपोर्ट राष्ट्रीय चैनल पर आती है। स्थानीय मीडिया इन उदाहरणों को अधिक बार कवर करता है। धमकी देने वाले सरकारी भवनों की तस्वीरें भी आती हैं, जिसमें से यह संदेश रहता है कि शौचालय रहित घरों पर जुर्माना लगाया जाएगा और सरकारी लाभ से वंचित रखा जाएगा। ऐसा ही एक पोस्टर दैनिक भास्कर (एक राष्ट्रीय हिंदी समाचार पत्र) द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसमें कहा गया था: " शासन के आदेश अनुसार: (टॉयलेट ना बनाने पर) 500 रुपए का जुर्मना और राशन भी नहीं दिया जाएगा और सरकार की सुविधाओं से वंचित किया जाएगा।"

हमारे द्वारा सर्वेक्षण किए गए प्रत्येक चार घरों में से एक ने हमें बताया कि उन्होंने अपने गांव में राशन जैसे सरकारी लाभों को वापस लेने के लिए धमकी के बारे में सुना था। भारत में, लोगों को सरकार की ओर से भोजन जैसे लाभ भी मिलते हैं।

इस तरह के प्रतिबंधों और जबरदस्त गतिविधियों के साथ दो व्यापक समस्याएं हैं: एक है कि कई ग्रामीण परिवार सरकारी राशन और पेंशन पर निर्भर हैं, और इनको दूर करने का मतलब है कुछ परिवारों के लिए भुखमरी। दूसरी बात यह है कि इस तरह के प्रतिबंधों से गांवों में मौजूदा जाति पदानुक्रम मजबूत होता है। एक ब्लॉक स्तर के अधिकारी ने निगरानी समितियों के गठन की प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए, हमें बताया कि समिति सदस्यों में आमतौर पर सरपंच, विधायक, एक वार्ड सदस्य और अन्य सम्मानित लोग शामिल होते हैं, जिन्हें ग्रामीण डर से सुनते हैं, जैसे कि लंबरदार (शक्तिशाली ज़मींदार) । अधिकारी ने कहा कि इन लोगों से वे ग्रामीणों को समझाने में मदद मांगते हैं।

पहले एक शौचालय का निर्माण करें, फिर राशन और केरोसिन प्राप्त करें', उत्तर प्रदेश में एक सरकारी राशन की दुकान की दीवार पर चित्रित जिला प्रशासन की ओर से एक संदेश।

23 फीसदी लोग, जिनके पास एक शौचालय है, लेकिन खुले में शौच करना जारी रखते हैं, क्या आप जानते हैं कि उनमें से कितने लोगों को अपना शौचालय बनाना था और इनमें से कितने जुड़वां-गड्ढे थे? क्या वे शौच खुले में करना इसलिए जारी रखते हैं क्योंकि वे अपने जुड़वां गड्ढे वाले शौचालय से खुश नहीं हैं?

बड़े एकल पिट लैटर वाले लोगों की तुलना में ट्विन-पिट लैट्रिन वाले लोग खुले में शौच करने की अधिक संभावना रखते हैं, जो सामान्य रूप से यांत्रिक रूप से खाली होते हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि एक जुड़वां गड्ढे वाला शौचालय एक साल या उससे कम समय में भर जाएगा, और मल को विघटित होने के बाद भी इसे मैन्युअल रूप से खाली करने की संभावना से घृणा होती है। मुझे याद है कि मप्र में एक महिला से बात हुई थी। वह एक टेलीविजन विज्ञापन के बारे में बात कर रही थी,जिसमें फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार कहते हैं कि मल कीचड़ बेटा खाद (उर्वरक) बन जाता है। उसने मेरी ओर देखा और कहा, "उन्हें करना है तो करने दो, हमसे नहीं होगा।"

दलितों (अनुसूचित जातियों) , विशेष रूप से वाल्मीकियों (एक दलित समुदाय, जिनमें मैनुअल रूप से मैला ढोने वालों की संख्या ज्यादा है और जो लैट्रीन के गड्ढों को खाली करते हैं) का जिस प्रकार की सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, वह अमानवीय है। "हुक्का-पानी बंद होगा" एक वाक्यांश है, जिसे हमने बार-बार सुना है। इसका मतलब है कि खुद गड्ढों को खाली करने पर समान अस्थिरता और सामाजिक नतीजों का सामना करना होगा।...तो लोग उस समय को कम आंकते हैं, जिसमें जुड़वां गड्ढे वाले शौचालय को भरने में समय लगेगा? एआई के अपने अध्ययन से पता चला है कि 61 फीसदी लोग अपने शौचालय के गड्ढों को भरने में लगने वाले समय को कम आंकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 50 घन फीट के गड्ढे को भरने के लिए पांच सदस्यों के एक परिवार को लगभग पांच साल लगेंगे। सरकार एसबीएम के तहत जुड़वां गड्ढे वाले शौचालयों को आगे बढ़ा रही है, जिसकी क्षमता अधिक है, लेकिन लोग वास्तव में चाहते हैं वहां एक बड़ा गड्ढा हो।

जब हम गड्ढों के बारे में बात कर रहे हैं, तो हमें दो अलग-अलग लोगों के बारे में बात करनी होगी - वे लोग जो बड़े, महंगे गड्ढों का निर्माण कर सकते हैं और जो नहीं कर सकते। पूर्व में महंगे गड्ढे बन रहे हैं। ट्विन-पिट्स का निर्माण केवल एसबीएम के तहत किया जा रहा है, जहां लोग शौचालय का निर्माण नहीं कर सकते हैं, और इसे बनाने के लिए दबाव का सामना करना पड़ा है।

सरकार हर किसी के लिए 10x10x10 फीट के गड्ढे नहीं बना सकती या सभी के लिए 7x4x6 फीट के गड्ढे भी नहीं बन सकते। लेकिन दुनिया में हर जगह, जिसमें बांग्लादेश और पश्चिम के देश भी शामिल हैं, वहां ‘आउट-हाउस’ की अवधारणा है, जो लगभग 50 क्यूबिक फीट के एकल गड्ढों के साथ सस्ता शौचालय हैं। सरकार ने इस तरह के सस्ते शौचालयों को बढ़ावा नहीं दिया है। हमने लोगों को सस्ते शौचालयों के लाभों को समझने का अवसर देने में चूक की है।

याद रखें कि एमडीडब्लूएस सचिव ने कब लेट्रिन गड्ढों को खाली किया? वे उस तरह के कार्य हैं जो होने चाहिए। मुझे उम्मीद है कि एक दिन प्रधान मंत्री एक शौचालय के गड्ढे को खाली करके एक उदाहरण स्थापित करेंगे, और यह दिखाएंगे कि ऐसा करने में कोई शर्म नहीं है। हर कोई इसे कर सकता है और करना चाहिए।

( यदवार प्रमुख संवादाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )

यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 13 जनवरी, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुई है।

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