Indore Labourers_620

( इंदौर में खजराना स्क्वायर में काम के अवसर की तलाश में दिहाड़ी मजदूर। मध्यप्रदेश के 95 फीसदी से अधिक श्रमिक नोटबंदी और जीएसटी के कार्यान्वयन से पहले अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में थे। 2019 में, उन पर सबसे बुरा प्रभाव पड़ा है, क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी के निरंतर प्रभाव से उद्योग बंद हो रहे हैं और नौकरी का बाजार सिकुड़ गया है। )

इंदौर: भारत के सबसे स्वच्छ शहर, मध्य प्रदेश में सबसे बड़ा और राज्य की व्यावसायिक राजधानी में यह एक नियमित दिन था। मध्यम वर्ग के लोग काम पर जा रहे थे, वेतन भोगी कर्मचारियों की भीड़ थी और ज्यादातर लोग गंदे शर्ट और लुंगी या कुछ पैंट पहने हुए, खजराना स्क्वायर में इकट्ठे थे।

जो कोई भी उनके पास जाता, वे एक आम सवाल पूछते थे: "साहब, कुछ काम मिलेगा क्या?"

खजराना स्क्वायर इंदौर-महू राजमार्ग पर है, जहां हर घंटे कई सौ वाहनों की आवाजाही है। साथ ही कुछ छोटी दुकानें भी हैं, जो पान-गुटका बेचते हैं। प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से यह भारत का सातवां सबसे गरीब राज्य है। इस आलेख में वर्णित अधिकांश लोग मध्य प्रदेश की आधिकारिक शहरी गरीबी रेखा, यानी प्रति माह प्रति व्यक्ति 897 रुपये से अधिक कमाते हैं; जिसका मतलब है कि वे सब्सिडी या सामाजिक-सुरक्षा लाभों के लिए पात्र नहीं हैं।

खजराना स्क्वायर पर प्रत्येक दिन की शुरुआत समान होती है। स्टील लंच बॉक्स और सामान्य काम के औजार जैसे कि कुदाल ले कर लगभग 1,500 श्रमिक सुबह 6 बजे नौकरी हासिल करने का दैनिक संघर्ष शुरू करते हैं।

सुबह 9 बजे के आसपास, ठेकेदार श्रमिकों के पास ट्रक लेकर पहुंचते हैं और लगभग 300 दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों को उठाते हैं, जिन्हें सबसे कम कीमत के आधार पर चुना जाता है - कभी-कभी उनकी मजदूरी 150 से 200 रुपये भी होते हैं। ट्रक भाग्यशाली श्रमिकों को पड़ोस में निर्माण स्थलों पर ले जाते हैं महू से 20 किमी दूर और शाम को उन्हें वापस छोड़ देते हैं।

रोजमर्रा की नौकरी पाने वाले लोगों की संख्या का लगभग तीन से चार गुना पीछे रह जाता है, जिसमें पैसा कमाने की कोई संभावना नहीं होती।

उनकी यह दिनचर्या लगभग एक साल से चली आ रही है।

इंदौर नगर पालिका निगम द्वारा खजराना स्क्वायर पर बनाए गए ‘दिहाड़ी श्रमिक शेड’ में एकत्रित दिहाड़ी मजदूर।

शहर में, फर्नीचर निर्माता कंपनी एसपी एंटरप्राइजेज के मालिक संजय पटवर्धन एक नियोक्ता हैं। उन्होंने बताया कि नौकरी देना कठिन हो गया है। पटवर्धन अब "कुछ महीनों" के लिए आठ श्रमिकों को काम पर रखते हैं, जब उन्हें बड़े ऑर्डर मिलते हैं, जबकि 2014 में वे 50 श्रमिक रखते थे। 2016 में नोटबंदी के बाद, उन्होंने 42 कर्मचारियों को जाने दिया। वह एक साल के लिए एक श्रमिक को भुगतान करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, जैसा कि वह पहले करते थे और अब उन्होंने फर्नीचर निर्माण को रोक दिया है-अब वह फर्नीचर बाहर से मंगाते हैं।

पटवर्धन बताते हैं “नोटबंदी और जीएसटी ने हमें तोड़ दिया है। अभी भी मुश्किले हैं, नकदी इतना नहीं है कि हम ऑपरेशन के ऐसे छोटे पैमानों को नजरअंदाज कर सकते हैं। सरकार ने जीएसटी को इतना जटिल बना दिया कि हम अभी भी इसे ठीक से समझ नहीं पाए हैं।"

जबकि नवंबर 2016 में, नरेंद्र मोदी-सरकार के नोटबंदी कार्यक्रम ( जिसने भारत की मुद्रा के 86 फीसदी को रातों-रात अमान्य कर दिया ) के बाद अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों और उद्योग मालिकों की परेशानी शुरू हो गई। जून 2017 में जीएसटी का कार्यान्वयन था जिसने छोटे और मध्यम स्तर के उद्योगों पर, विशेष रुप से अकुशल श्रम के प्राथमिक नियोक्ता पर अलग ढंग से प्रभाव डाला। चीनी आयात प्रभाव को और बदतर बना रहे हैं। दौर के पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में एक उद्योग संघ के अध्यक्ष और श्रम मंत्रालय द्वारा संचालित एक श्रमिक शिक्षा केंद्र के पूर्व अध्यक्ष, दौतम कोठारी ने कहा, "पहले हमारे पास त्योहारों के दौरान मौसमी रोजगार था, लेकिन अब हम अपने त्योहारों में जो कुछ भी उपयोग करते हैं वह चीन से आता है। स्थानीय लोग खिलौने, लैंप बनाकर रोजगार पाते थे, लेकिन अब अवसर उपलब्ध नहीं हैं।" आयात में 5 फीसदी वृद्धि और निर्यात में कमी की लागत ‘हजारों लोगों का रोजगार’ है।

अखिल भारतीय निर्माता संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, नौकरियों की संख्या में चार साल से 2018 तक एक-तिहाई की गिरावट आई है। सर्वेक्षण में जिसने 300,000 सदस्य इकाइयों में से 34,700 को चुना गया है। केवल 2018 में, 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं, ज्यादातर असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में, जैसा कि एक कंसल्टेंसी, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों से पता चलता है।यह 11-आलेखों की श्रृंखला का पहला भाग है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार पर नजर रखने के लिए, राष्ट्रीय स्तर पर श्रम केंद्रों से रिपोर्ट की गई है ( ऐसी जगह, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरी पाने के लिए इकट्ठा होते हैं।) अनौपचारिक क्षेत्र देश के निरक्षर, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों के बड़े पैमाने पर रोजगार देता है, भारत के 52.7 करोड़ कार्यबल में से 92 फीसदी को रोजगार देता है, जैसा कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्ययन से पता चलता है।

अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य प्रदान करेगी।

घटते रोजगार की लागत

45 साल के कैलाश सिसोदिया एक दिहाड़ी निर्माण मजदूर हैं, जिन्होंने पांचवी तक की पढ़ाई की है। उनकी लाल, चेक पगड़ी और चमकीली पीली टी-शर्ट, उनकी धंसी हुई आंखों और समय से पहले झुर्रीदार माथे के विपरीत दिखाई देती है।

मूल रूप से मध्य प्रदेश के चंबल क्षेत्र के भिंड के रहने वाले कैलाश नौकरी खोजने के लिए 10 साल पहले लगभग 600 किलोमीटर की यात्रा करके दक्षिण-पश्चिम से इंदौर चले आए थे।

वह अपनी पत्नी के साथ रहते है, जो एक कपड़े की दुकान पर क्लीनर है। उनका 22 वर्षीय एक बेटा दिहाड़ी मजदूर है, जो आठवीं कक्षा तक शिक्षित है।

गरीबी ने सिसोदिया को अपने बेटे को कॉलेज की शिक्षा और नौ-से-पांच की नौकरी देने का सपना को समाप्त कर दिया। हर दिन, रविवार और छुट्टियों सहित, सिसोदिया अपने घर से खजराना स्कवायर तक 15 किमी की यात्रा करते हैं। नोटबंदी से पहले, सिसोदिया प्रतिदिन 350 रुपये से 400 रुपये तक कमाते थे। सिसोदिया कहते हैं, “अगर हमें काम मिल जाता है, तो भी ठेकेदार समय पर हमारी मजदूरी का भुगतान नहीं कर पाते हैं”। कभी-कभी हफ्तों उन्हें काम नहीं मिलता है। वह आगे कहते हैं, " पहले, हमारे पास काम चुनने की स्वतंत्रता थी [उन्होंने ज्यादातर निर्माण स्थलों पर काम किया], लेकिन अब तो हमें कुछ भी करना मंजूर है, नालों की सफाई से लेकर क्रशिंग स्टोन तक। हम कुछ भी स्वीकार करते हैं, जो हमारे रास्ते में आता है। ”

नोटबंदी से पहले, 45 साल के कैलाश सिसोदिया ने 12,000 रुपये महीने में 25 दिन काम किया था। अब, वह 14 दिन काम करते हैं और उसकी पत्नी और बेटे को भी क्षतिपूर्ति के लिए काम करना पड़ता है। लेकिन उनका परिवार उतना ही कमाता है, जितना वो पहले अकेले कमाते थे।

इंदौर के सात औद्योगिक क्षेत्रों में 12,727 पंजीकृत औद्योगिक इकाइयां हैं, जिनमें कृषि-आधारित, वस्त्र, फर्नीचर, रबर, धातु और स्नैक्स कारखाने शामिल हैं, जैसा कि नवीनतम डेटा उपलब्ध, केंद्र सरकार द्वारा तैयार जिले के 2016-17 के औद्योगिक प्रोफाइल से पता चलता है।

खजराना स्क्वायर की तरह, 19.8 लाख लोगों के शहर, इंदौर के आसपास अनौपचारिक श्रम के लिए 20 जमघट केंद्र हैं। प्रत्येक श्रम हब सुबह 6 बजे तक 700 श्रमिकों की भीड़ को देखता है। अधिकांश लोग एक ही तरह मलीन कपड़े पहने होते हैं और घर का बना हुआ खाना साथ लाते हैं। एक स्थानीय संस्था, दीन बंधु समाज सहयोग से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता आनंद लखन ने कहा, “ इन केंद्रों पर आने वाले लोगों की संख्या में ‘तीव्र वृद्धि’ हुई है। उनमें से ज्यादातर ने हाल ही में अपनी आजीविका खो दी है या आय में तेज गिरावट का अनुभव किया है।" नोटबंदी से पहले, सिसोदिया ने हर महीने लगभग 25 दिन काम किया। अब, वे भाग्यशाली हैं कि उन्हें 14 दिन काम मिल जाता है। सिसोदिया के परिवार में, उनकी पत्नी और बेटा प्रत्येक महीने लगभग 3,000 रुपये कमाते हैं। एक साथ, पूरे परिवार की हर महीने लगभग 12,000 रुपये की कमाई होती है, जो राशि उतनी ही है, जितनी सिसोदिया नोटबंदी से पहले कमाते थे।

40 वर्षीय रमेश कुमार की कहानी भी ऐसी ही है।

रमेश कुमार पहले एक सुरक्षा गार्ड के रूप में प्रति माह 5,000 रुपये कमाते थे। बच्चों का स्कूल शुरू होने के बाद उन्होंने दिहाड़ी मजदूरी करना चुना, जिससे वे ज्यादा पैसे कमा सकें। 2012 में, जब उन्होंने खजराना स्क्वायर में काम की तलाश शुरू की, तो उन्होंने पहले महीने 7,000 रुपये कमाए, जो बाद में 12,000 रुपये तक पहुंचा था।

कुमार ने कहा, "नोटबंदी के बाद समस्याएं शुरू हुईं।" इंदौर में ठेकेदारों ने कहा कि उनके पास नकदी की कमी है और बाद में भुगतान का आश्वासन दिया था। वह बताते हैं कि अब वे कहते हैं कि बाजार में मंदी है और उनके पास देने के लिए काम नहीं है।

कुमार ने एक साल में नियमित नौकरी नहीं की है और उनकी मासिक आय 3,000 रुपये से 4,000 रुपये के बीच है। पिछले तीन महीनों से, वह अपने बच्चों की स्कूल फीस का भुगतान करने में असमर्थ हैं, जो कक्षा IV और VI में पढ़ते हैं।

आर्थिक सीढ़ी पर सबकी एक ही कहानी

निर्माण उद्योग के एक श्रमिक ठेकेदार, 43 वर्षीय अरुण इंगले ने कहा कि नोटबंदी के बाद उनका कारोबार ध्वस्त हो गया है, जिसकी पुष्टि अन्य ठेकेदारों ने भी की।

इंगले, जो अब 350 रुपये 400 की तुलना में प्रति दिन 200 रुपये मजदूरों का भुगतान करते हैं, कहते हैं, बिल्डर्स केवल आधा वास्तविक मजदूरी का भुगतान करने को तैयार हैं, जिससे श्रमिकों को ढूंढना मुश्किल हो जाता है।

एक लंबा, दुबला आदमी, सफेद कुर्ता और पैंट में एक स्थानीय राजनेता की तरह कपड़े पहने, चेहरे पर दुख का भाव लिए और नाम इंगले । वह कहते हैं, "मेरे आधे ग्राहकों ने अपनी परियोजनाओं को रोक दिया है। मजदूर मुझे काम मांगते हैं, लेकिन मेरे पास उनके लिए कोई जवाब नहीं है। बाजार में इतनी प्रतिस्पर्धी है कि अगर मैं सस्ते दाम पर काम करने से मना करता हूं, तो बिल्डर अन्य ठेकेदारों को काम पर रखते हैं जो सस्ते श्रम प्रदान कर सकते हैं। ”

इसके अलावा, मजदूर नकद में मजदूरी मांगते हैं। देश के इस हिस्से के एटीएम में अक्सर नकदी नहीं होती है। कुछ ठेकेदार अब कम पैसे मांगने वाले श्रमिकों की तलाश में, भारत के कृषि संकट से घिरे कई गांवों में जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि कम पैसे में ही श्रमिक मिल जाएंगे।

नोटबंदी और जीएसटी के प्रभाव ( इसके लिए आलोचना की गई, अक्सर अराजक कार्यान्वयन ) का उल्लेख कारखाने के मालिकों द्वारा किया जाता है कि वे क्यों कम मजदूरी का भुगतान करते हैं और कम नौकरियां देते हैं।

पीतमपुरा उद्योग संघ के अध्यक्ष, कोठारी कहते हैं, “लघु उद्योग सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।”

कोठारी ने कहा, "इंदौर के छोटे पैमाने के कारखानS, जो रेडीमेड वस्त्र, नमकीन, अचार, पापड़, इमारतों और अन्य में इस्तेमाल की जाने वाली लोहे की ग्रिल का उत्पादन करते हैं, उनका लगभग 20 फीसदी, काम ठहर गया है। छोटे उद्योग के मालिक अभी भी जीएसटी से भ्रमित हैं। छोटे व्यवसाय नकद लेनदेन पर चलते थे और नोटबंदी के बाद वे कभी भी पटरी पर नहीं आ पाए। इन उद्योगों के लिए काम करने वाले हजारों लोगों ने अपनी नौकरी खो दी है। ”

वास्तव में कितने लोगों ने नौकरियां खोई हैं, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि मध्य प्रदेश के अनौपचारिक क्षेत्र में नौकरी के नुकसान को ट्रैक करने के लिए कोई आधिकारिक डेटा नहीं हैं।

रोजगार में हुए नुकसान पर नजर रखने में कठिनाइयां

बेरोजगारों को उनके अधिकारों और अवसरों से अवगत कराने वाली संस्था, ‘बेरोजगार सेना’ के संस्थापक अक्षय हुनका कहते हैं, “बेरोजगारी के बारे में कोई सरकारी आंकड़े नहीं हैं। हम रोजगार रजिस्ट्री से डेटा देखकर स्थिति की कल्पना कर सकते हैं। हुनका ने कहा कि यह आंकड़ा चार साल से 2018 तक दोगुना हुआ है।” मध्य प्रदेश सरकार के पास पंजीकृत शिक्षित, बेरोजगार युवाओं की संख्या 2016-17 से 2019 तक 1.7 गुना बढ़कर 11.2 लाख से 30.4 लाख हो गई है। हुनका ने तर्क दिया कि ‘वास्तविक बेरोजगारी संख्या’ आधिकारिक आंकड़ों से अधिक है। 2015 में टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो’ के आंकड़ों कहते हैं कि 2015 में बेरोजगारी के कारण 579 लोगों ने आत्महत्या की। 2006 में यह आंकड़ा केवल 24 था।हालांकि, पूर्ववर्ती नोटबंदी डेटा कम बेरोजगारी प्रतिबिंबित नहीं करता है।

प्रत्येक 1,000 ग्रामीण मध्यप्रदेश परिवारों में से 24 ( शहरी क्षेत्रों में 39 ) में एक नियोजित सदस्य नहीं था, जैसा कि 2013-14 श्रम और रोजगार मंत्रालय की रिपोर्ट से पता चलता है। रिपोर्ट का 2015-16 संस्करण ग्रामीण परिवारों के लिए 58 से दोगुना से अधिक होने का आंकड़ा दिखाता है; और शहरी परिवारों के लिए, 26% से 49 तक बढ़ गया। 1999-2000 और 2009-2010 के बीच, मध्य प्रदेश में अनौपचारिक श्रमिकों के हिस्से के रूप में कार्यबल का अनुपात बमुश्किल 94.36 फीसदी से बदलकर 94.93 फीसदी हुआ है, जो बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के बाद चौथा सबसे ज्यादा है।

डेटा अस्पष्ट हो सकता है, लेकिन इस बात पर थोड़ा विवाद है कि एक बदलती अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए, यहां तक ​​कि नोटबंदी और जीएसटी के व्यवधानों के बिना भी राज्य के कार्यबल में कौशल की कमी है।

अकुशल श्रमिक नई अर्थव्यवस्था के लिए तैयार नहीं

निर्माण, खाद्य प्रसंस्करण, फार्मा, ऑटो कंपोनेंट, प्लास्टिक और कागज उत्पाद, और कपड़ा इंदौर में उद्योग प्रदान करने वाली प्राथमिक नौकरी है, जो मध्य प्रदेश में अनौपचारिक नौकरियों के 12.9 फीसदी के लिए जिम्मेदार है, जैसा कि राष्ट्रीय कौशल विकास निगम द्वारा राज्य सरकार के लिए आयोजित एक जनवरी 2013 के कौशल-अंतराल के अध्ययन से पता चलता है। औद्योगिक क्षेत्र में उपलब्ध नौकरियों के बावजूद, मध्य प्रदेश के कार्यबल के पास आवश्यक कौशल नहीं थे, रिपोर्ट में संकेत दिया गया है, यह दर्शाता है कि सरकार द्वारा वित्त पोषित प्रशिक्षण योजनाएं 2012-17 के बीच कुल वृद्धिशील जनशक्ति के अनुमान का केवल 34 फीसदी पूरा कर सकती हैं, "बशर्ते सभी प्रशिक्षण आजीविका ट्रेडों की तुलना में औद्योगिक जनशक्ति की जरूरत को पूरा करने पर केंद्रित है"।

रिपोर्ट में कहा गया है, “केवल कम संख्या में मशीनों को संचालित करने के लिए कुशल श्रमशक्ति की मांग के साथ मुख्य रूप से उद्योगों में स्वचालन और मशीनीकरण के उच्च स्तर के कारण बड़े पैमाने पर उद्योगों की कम रोजगार के अवसर पैदा करने की प्रवृत्ति है।” लोहे के ग्रिल बनाने वाले विशाल फैब्रिकेशन के मालिक, अनिल जोशी, ने बताया कि कैसे काम पर रखने के लिए श्रमिकों को दिया गया प्रशिक्षण स्पष्ट नहीं था। जोशी ने कहा, "मैंने आईटीआई (औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों) से ताजे प्रशिक्षित छात्रों को भर्ती किया था, जब मुझे स्टाफ की कमी का सामना करना पड़ा।" "उनमें से अधिकांश को पता नहीं था कि वेल्डिंग मशीन कैसे संचालित की जाती है।"

एशियन डेवलपमेंट बैंक द्वारा तैयार 2016 मध्य प्रदेश कौशल विकास परियोजना रिपोर्ट कहती है कि, "चूंकि 15-34 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या 2026 तक बढ़कर 3.04 करोड़ हो जाने की उम्मीद है (2011 से 21 फीसदी की वृद्धि), मध्य प्रदेश को कौशल प्रशिक्षण देने और कार्यबल में नए प्रवेशकों को रोजगार देने की क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है।"

हालांकि आईटीआई हर साल 147,545 श्रमिकों को प्रशिक्षित कर सकता है, लेकिन खराब बुनियादी ढांचे और कुशल प्रशिक्षकों की कमी के कारण इस क्षमता का केवल 30 फीसदी उपयोग किया जाता है, "जो उचित प्रशिक्षण बुनियादी ढांचा प्रदान कर सकते हैं और नौकरी के लिए तैयार, उद्योग-संबंधित कौशल प्रदान कर सकते हैं"।

यहां तक ​​कि अगर वे क्षमता के अनुसार काम करते हैं, तो ये कौशल कार्यक्रम बड़े पैमाने पर अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिए काम नहीं करते हैं।

खनन श्रमिकों के साथ काम करने वाली संस्था, ‘पत्थर खदान श्रमिक संघ’ चलाने वाले यूसुफ बेग ने यह समझाया कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए नए कौशल सीखना कितना कठिन है।

बेग ने कहा, "ये मजदूर कमाने-खाने वाले लोग हैं और नई चीजें सीखने में समय नहीं लगा सकते।" “वे कई वर्षों से वही काम कर रहे हैं और अपनी आजीविका कमा रहे हैं। हमें उन्हें एक ही समय में रोजगार और कौशल देने के लिए नए तरीकों पर विचार करने की आवश्यकता है, अन्यथा यह संभव नहीं है। ”

एक प्रिंटिंग और पैकेजिंग यूनिट ‘अथर्व पैकेजिंग’ के मालिक स्वदेश शर्मा ने कहा, “फैक्टरियों को हर समय कुशल श्रम की आवश्यकता होती है, लेकिन कुशल श्रमिक उपलब्ध नहीं हैं। “दूसरी तरफ, इतने सारे लोग बेरोजगार हैं। हमें दोनों के बीच की खाई को भरना होगा।”

(मिश्रा भोपाल के एक स्वतंत्र लेखक हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो अखिल भारतीय स्तर पर पत्रकारों का एक नेटवर्क है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 4 मार्च, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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