Source: Boomlive.in

स्वास्थ्य मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार चार में से तीन कंपनियां खाद्य उत्पादों में मिलावट के साथ साथ उत्पाद ब्रांड का गलत इस्तेमाल कर रही हैं। हाल ही ‘दो मिनट नूडल’ में मिलावट एवं सुरक्षा मानकों के अनुकूल न होने के कारण नेस्ले जैसी नामी कंपनी को खासा नुकसान भुगतना पड़ा है।

कनाडा, ब्रिटेन, हांगकांग, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड मेंदो मिनट मैगी नूडल्स सुरक्षितपाया गया है। लेकिन जब तक कानूनी कार्यवाही जारी है, यह एक विवाद का विषय बना रहेगा कि भारत जैसे देश में खाद्य सुरक्षा प्रक्रिया की परतें किस प्रकार खुलेंगी।

पिछले सात सालों में, 53,406 कंपनियों में से लगभग 25 फीसदी कंपनियों को खाद्य सुरक्षा मानकों को न मानने का दोषी ठहराया गया है। इन सात सालों में कम से कम 72,861 कंपनियों को ब्रांड का गलत इस्तेमाल एवं मिलावट करने का दोषी पाया गया है।

पिछले साल देश भर से कम से कम 72,200 खाद्य नमूने, जैसे कि दाल, घी, चीनी एकत्र किए गए थे। इनमें से 13,571 (लगभग 18 फीसदी) खाद्य उत्पाद मिलावटी एवं तय खाद्य सुरक्षा मानकों के नीचे पाए गए थे।

विशेषज्ञों की मानें तो मिलावट और ब्रांड का गलत इस्तेमाल जैसे जुर्म के लिए खास सजा तय नहीं है। और शायद यही कारण है कि पिछले पांच सालों में बाज़ार में मिलावटी खाद्य पदार्थों में वृद्धि देखी गई है। सरकार द्वरा किए गए खाद्य सुरक्षा परिक्षण मेंमिलावटी दरों में खासी वृद्धि दर्ज की गई है। साल 2008 में यह आकंड़े 8 फीसदी थे जबकि 2014 में 18 फीसदी दर्ज की गई है।

मिलावटी खाने से कैंसर, अनिद्रा और अन्य मस्तिष्क संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में बताया है कि भारत में खाद्य पदार्थों में मिलावट एक गंभीर चिंता का विषय है।

कौन करेगा संदिग्ध खाद्य का विशलेषण

अधिकारियों का मानना है कि खाद्य विश्लेषकों की कमी है इसलिए दोषियों को सजा कम मिल पाती है। पिछले साल राष्ट्रीय अखबार ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया ’ ने बताया था कि राजस्थान में खाद्य विश्लेषकों की कमी के कारण सात सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं को बंद कर दिया गया है।

इंडियास्पेंड से बातचीत के दौरान भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि “देश में केवल 200 खाद्य विश्लेषक हैं। इस स्थिति में अदालत में आरोप साबित करना बेहद मुश्किल हो जाता है।”

अधिकारी ने हमें बताया कि सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के मुताबिक देश के हर राज्य में मामलों के जल्द निपटारे के लिए अपील न्यायालय होना अनिवार्य किया गया है। लेकिन अब भी देश के कई राज्यों में अपील न्यायालयकी स्थापना नहीं की गई है जिसकी वजह से मामले पर फैसला आने में सालों लग जाते हैं।

हालांकि पिछले कुछ सालों में दोषसिद्धि दरों में कुछ सुधार देखने ज़रुर मिला है। साल 2008-09 में यह आकंड़े 16 फीसदी थे जबकि साल 2014-15 में यह 45 फीसदी दर्ज कि गए हैं। इन आकंड़ों में तेजी से वृद्धि होने का एक कारण, फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया ( एफएसएसएआई ) की स्थापना होना भी है। एफएसएसएआई की स्थापना अगस्त 2011 में की गई है।

खाद्य अपमिश्रण अधिनियम, 1954 , और कई नियमों के बदले खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू किया गया है। इसका कार्यान्वयन राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।

कड़ी सजा , नर्म प्रवर्तन

ब्रांड का गलत इस्तेमाल, खाद्य उत्पादों में मिलावट एवं बिक्री के लिए कानूनी रुप सेदंड के लिए छह महीने की जेल एवं 10 लाख रुपए जुर्माना तक तय है।

पिछले तीन सालों में जुर्माने के रुप में सरकार ने लगभग 17 करोड़ रुपए एकत्र किए हैं।

राज्य खाद्य सुरक्षा अधिकारी क्रम रहित खाद्य नमूने को चुनकर सरकारी प्रयोगशालाओं में परीक्षण के लिए भेजते हैं। इन प्रयोगशालाओं की देखरेख एफएसएसएआई द्वारा की जाती हैं।

पिछले तीन सालों के रिकॉर्ड पर एक नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि कुछ राज्यों, जैसे कि उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, को छोड़ कर किसी भी राज्य में असुरक्षित खाद्य मामले में अपराधियों को दोषी नहीं ठहराया गया है। इस मामले में बिहार, रजस्थान और हरियाणा का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है।

छत्तीसगढ़ , उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश उन राज्यों में से हैं जहां परिक्षण के लिए गए नमूनों में से हरेक तीसरा नमूना तय मानक सीमा से नीचे पाया है।

( पाटील ने नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार है । उन्होंने कहा कि इकोनोमिक टाइम्स, डीएनए और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम किया है। )


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