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वर्तमान में, भारत के ज़िला अदालतों में 20 मिलियन (2 करोड़) से अधिक मामलें लंबित हैं; दो तिहाई आपराधिक मामले हैं और 10 में एक मामले पिछले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं। यह डाटा, राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (एनजेडीजी1) के आंकड़ों पर किए गए हमारे विश्लेषण में सामने आए हैं। अन्य तथ्य जो सामने आए हैं:

* भारत में हरेक 73,000 लोगों पर एक न्यायाधीश है, यह आंकड़े अमरिका की तुलना में सात गुना बद्तर है।

* औसतन, प्रत्येक न्यायधीश पर 1,350 मामलों लंबित हैं, जो प्रति माह 43 मामलों को निपटाते हैं।

* ज़िला अदालतों पर जिस दर पर मामले सुलझाए जा रहे हैं, सिविल मामले कभी निपटाए नहीं जा सकेंगे, और आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए कम से कम 30 वर्षों का समय लगेगा।

यह एक उभरता संकट है और समस्या की जड़ को समझना ही इसके समाधान के लिए महत्वपूर्ण है।

दिल्ली में जनसंख्या और जजों का अनुपात भारत में सबसे बुरा है, अन्य छोटे राज्य, राष्ट्रीय औसत की तुलना में दोगुना बेहतर है।

दिल्ली में जनसंख्या-जज अनुपात सबसे बद्तर है। हालांकि, राष्ट्रीय औसत प्रति 73,000 लोगों पर एक जज का अनुपात है लेकिन 500,000 लोगों पर एक जज होने के साथ, दिल्ली की स्थिति सबसे बुरी है। दूसरी तरफ, अन्य छोटे राज्य और केंद्रीय शासित प्रदेश जैसे कि चंडीगढ़, गोवा, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, सिक्किम, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में, राष्ट्रीय औसत की तुलना में प्रति व्यक्ति जजों की संख्या कम से कम दोगुनी है।

राज्य अनुसार प्रति जज जनसंख्या

राज्य अनुसार प्रति जज लंबित मामले

एक नज़र डालते हैं कि प्रत्येक राज्यों में जजों पर कितने मामलों का बोझ है। उम्मीद के अनुसार, छोटे राज्यों में जहां प्रति जज जनसंख्या अनुपात बेहतर है, वह राज्य बेहतर प्रदर्शन करते हैं और बड़े राज्य का प्रदर्शन बुरा है।

उत्तर प्रदेश में, प्रत्येक जज पर लंबित मामलों का बोझ सबसे अधिक है। आंकड़ों के अनुसार, प्रति जज पर 2,500 मामले लंबित हैं। यह राष्ट्रीय औसत के प्रति जज पर 1,350 मामले के आंकड़ों से दोगुना है।

प्रति न्यायाधीश 71 और 118 लंबित मामले के साथ सिक्किम और मिजोरम सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं।

कम जजों की संख्या और अधिक बोझ के साथ वाले राज्य में ज़्यादातर मामले एक दशक से लंबित हैं

क्या न्यायाधीशों पर बोझ न्यायिक विलंब का कारण हैं?

हमें मिश्रित परिणाम देखने मिले हैं। छोटे राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेश जैसे कि हरियाणा, सिक्किम, चंडीगढ़, पंजाब, मिजोरम और हिमाचल प्रदेश में 10 वर्षों से लंबित मामलों की संख्या 1 फीसदी से कम है। सबसे खराब अनुपात वाले राज्यों में, गुजरात का नाम सबसे पहले है। गुजरात में 4 में से 1 मामला 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित है। जजों पर मामले का बोझ और प्रति जज जनसंख्या के बीच संबंध है। उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल, जहां जजों पर मामलों का बोझ अधिक है और प्रति न्यायाधीश जनसंख्या उच्च है, वहां भी 10 से अधिक वर्षों से लंबित मामलों का अनुपात उच्च है।

10 वर्षों से अधिक समय से लंबित मामले (%)

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महाराष्ट्र में हर माह 100,000 मामले लंबित; उत्तर प्रदेश प्रति माह 44,500 मामले निपटाता है

अब एक नज़र डालते हैं, दर पर, जिस पर राज्य हर महीने मामलों को निपटाने में सक्षम हैं। यह निपटाए गए मामलों में से हर महीने दायर होने वाले मामलों का घटाव है।

एक सकारात्मक संख्या, प्रति माह दायर होने वाली मामलों की संख्या की तुलना में अधिक मामले निपटाने का

संकेत देती है। यह लंबित मामले का अंतिम मंजूरी के रुप में परिणाम होगा। नकारात्मक संख्या का मतलब है कि राज्य में प्रत्येक महीने लंबित मामलों में इज़ाफा हो रहा है।

महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की स्थिति चरम पर है। महाराष्ट्र प्रत्येक माह में 100,000 से अधिक मामले संचित बनाता है जबकि उत्तर प्रदेश प्रति माह 44,500 लंबित मामले निपटाता है। कर्नाटक, प्रति माह करीब 34,000 लंबित मामलों का निपटारा करता है।

उत्तर प्रदेश, जहां प्रति जज 2,513 लंबित मामले हैं और 631,290 लंबित मामले दस वर्षों से अधिक समय से चले आ रहे हैं, 44,571 मामले प्रति माह निपटाए जा रहे हैं जो कि राष्ट्रीय औसत की तुलना में पांच गुना अधिक तेज़ हैं। गुजरात और बिहार, जहां 10 से अधिक वर्षों से चल रहे लंबित मामलों का उच्च अनुपात है, वहां प्रति माह लंबित मामलों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है।

फ़रवरी 2016 में संचित लंबित मामले

क्यों कुछ राज्य लंबित मामलों को निपटाने में कभी सक्षम नहीं हो सकते (वर्तमान निपटान दरों पर)

राज्य जहां लंबित मामलों में लगातार इज़ाफा हो रहा है, वह वर्तमान निपटान दर पर, लंबित मामलों को निपाने में कभी सक्षम नहीं हो सकते हैं। दस राज्य जहां तेज़ी से लंबित मामलों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है वह हैं – गुजरात, बिहार, दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र, हिमाचल, चंडीगढ़, मेघालय, सिक्किम और ओडिसा।

लंबित मामलों को निपटाने वाले राज्यों में कर्नाटका के दक्षिण राज्य, केरल, आंध्रप्रदेश, तेलंगना और तमिलनाडु का प्रदर्शन सबसे बेहतर है। यह राज्य सारे लंबित मामले छह वर्षों में निपटा सकते हैं। उत्तर प्रदेश, जहां प्रति जज पर सबसे उच्च लंबित मामलों की संख्या है, वह भी अपने उच्च निपटान दर के कारण सारे लंबित मामले दस वर्षों में निपटा सकता है।

लंबित मामलों को निपटाने में लगने वाला समय

प्रत्येक सिविल मामले पर दो आपराधिक मामले

एनजेडीजी हमें प्रत्येक राज्य में लंबित आपराधिक एवं सिविल मामलों की जानकारी देता है। यह हमें दर जिस पर सिविल मामलों के सापेक्ष में आपराधिक मामले निपटाए जाते हैं उसे समझने में सहायता करता है।

राष्ट्रीय औसत प्रत्येक लंबित सिविल मामले पर दो आपराधिक मामले हैं। बिहार, उत्तराखंड और झारखंड में सिविल मामलों पर लंबित आपराधिक मामले पांच गुना अधिक हैं। दूसरी तरफ, तमिलनाडु, आंध्रप्रेदश, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब में सबसे कम अनुपात है।

सिविल मामलों पर लंबित आपराधिक मामलों का अनुपात

ज़िला न्यायालयों का राष्ट्रीय विश्लेषण: बेहतर आर बद्तर राज्य

उपर दिए गए टेबल में हमारे विश्लेषण का विवरण दिखाया गया है। हरा और लाल स्कोर, पहले के चार्ट के विश्लेषण से लिया गया है।

    • शून्य हरे और चार लाल के साथ दिल्ली और ओडिसा की रेटिंग सबसे बुरी है। बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पश्चिम – बंगाल, बुरे रेटिंग वाले अन्य राज्य हैं। इनमें से पश्चिन बंगाल और उत्तर प्रदेश, आने वाले वर्षों में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं क्योंकि यह अपने लंबित मामले तेज़ी से निपटा रहे हैं।

    • हिमाचल प्रदेश और सिक्किम (तीन हरे और लाल)का स्कोर सबसे अधिक है। इन राज्यों के जिला न्यायिक प्रणाली का अध्ययन करने की आवश्यकता है और सर्वोत्तम प्रथाओं के अन्य राज्यों में दोहराया जा सकता है। हालांकि, हर माह लंबित मामलों में इजाफा हो रहा है।

    • हम उन राज्यों की भविष्यवाणी कर सकते हैं जहां जल्द ही संकट हो सकते हैं। उद्हारण के लिए, राज्य जैसे कि दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, गोवा और महाराष्ट्र, जहां हर माह लंबित मामलों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है, जल्द ही प्रति जज लंबित मामलों एंव दस वर्षों से अधिक समय से लंबित मामलों के मापदंडों पर लाल होगा।

    • सकारात्मक पक्ष पर, कर्नाटक और केरल जैसे राज्य, जो प्रति माह लंबित मामलों का निपटारा कर रहे हैं, में जल्द ही प्रति जज लंबित मामलों की संख्या कम हो जाएगी।

यह सर्वविदित है कि भारत की न्यायिक बुनियादी ढांचे पंगु हैं। यह विश्लेषण हमें समस्या की जड़ समझने में मदद करता है। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि कहां न्यायिक बुनियादी ढांचे पर निवेश करने की आवश्यकता है, कहां जजों के रिक्त पदों को भरने की ज़रुरत है, और सबूत देता है कि किन सुधारों की आवश्यकता है।

(माथुर, आईआईटी-बी के पूर्व छात्र एवं इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस से एमबीए हैं। माथुर, विजन इंडिया फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं। विजन इंडिया फाउंडेशन नीति अनुसंधान, प्रशिक्षण और सार्वजनिक नीति पर केंद्रित है। बोलिया आईआईटी-बी है पूर्व छात्र और आईआईटी दिल्ली में एक एसोसिएट प्रोफेसर। बोलिया का अनुसंधान आंकड़े-संचालित शासन पर केंद्रित है।)

[1] NJDG के पास अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और नगालैंड के राज्यों के लिए डेटा नहीं है, इसलिए उन्हें विश्लेषण से बाहर छोड़ दिया गया है । NJDG चंडीगढ़ को एक राज्य के रुप में देखता है। NJDG से डेटा फरवरी 18 2016 को लिया गया था और उन्ही पर आधारित प्रवृतियों का विश्लेषण किया गया है। चूंकि NJDG ऐतिहासिक डेटा प्रदान नहीं करता है , दी गई तारीख पर एकत्र आंकड़ों तक ही विश्लेषण सिमित है। जनसंख्या के आँकड़े 2011 की जनगणना से लिया गया है और जैसा कि 2011 में तेलंगना राज्य अस्तित्व में नहीं था, इसलिए तेलंगना के लिए प्रति जज जनसंख्या के लिए विश्लेषण नहीं किया गया है।

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 05 अप्रैल 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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