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दो सरकारें दम-खम के साथ सत्ता में वापस आई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जहां असम में इतिहास रचा है वहीं केरल में हर चुनाव में सरकार को विपक्ष लाने की परंपरा को जारी रखते हुए वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) शासन में वापस आई है। विधानसभा चुनाव के परिणाम बताते हैं कि अगले पांच वर्षों तक असम में भाजपा और केरल में एलडीएफ का शासन होगा।

1. असम में भाजपा के पक्ष में तीन कारक

चुनाव के घोषित परिणाम, भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह की रणनीति का प्रतिज्ञान है और बिहार और दिल्ली में मिली शिक्सत के बाद राज्य विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी का पुनरुद्धार है।

राज्य के कुल 126 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने अपने सहयोगी दल असम गण परिषद (अगप) के साथ 60 एवं 14 सीटों पर जीत हासिल की है।

गौर हो कि 15 वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के खाते में केवल 26 सीटें आई हैं एवं 52 सीटे खोई हैं (78 में से)। इसके लिए कुछ ये कारण हो सकते हैं:

सरकार विरोध की लहर: लगातार तीन बार सत्ता में रहे तरुण गोगोई की कांग्रेस सरकार की लहर समाप्त हो गई है। कुछ मुख्यमंत्री का कार्यकाल तीन बार से भी अधिक रहा है, पश्चिम बंगाल के ज्योति बसु और सिक्किम के पवन चामलिंग ऐसे ही मुख्यमंत्रियों में से हैं। असम चुनाव में 84.7 फीसदी का उच्च चुनाव हुआ है जो कि राज्य में परिवर्तन चाहने का एक संकेत है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले भी बताया है।

चुनाव पूर्व गठबंधनों से हुआ फायदा: अगप और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीओपीएफ) के साथ गठबंधन होने से भाजपा को काफी सहायता मिली है। कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के स्वतंत्र रुप से चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोट विभाजित हुए हैं और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में काम करता प्रतीत होता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अपनी शक्तियों और कमजोरी के विश्लेषण के बाद, अभियान रणनीतियों के सावधानीपूर्वक डिजाइन से ऊपरी असम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा मजबूत चुनाव प्रचार करना भाजपा के लिए सहायक रहा है।

घुसपैठ और भ्रष्टाचार मतदाताओं के लिए बना मुद्दा: भाजपा हिंदू मतदाताओं के बीच “अवैध बंग्लादेशी” मुद्दे को भुनाने में काफी हद तक सफल रही है। इसके अलावा,कांग्रेस पार्टी के हार के लिए ज़िम्मेदार पार्टी के भीतर की राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोप हो सकते हैं। असम में भाजपा की जीत होना विकास और बदलाव के लिए इच्छा होने का संकेत है।

2. पश्चिम बंगाल में फिर दिखा ममता का दम, कांग्रेस के साथ गठबंधन से वाम को नुकसान

पिछले 40 वर्षों में, पिश्चिम बंगाल में सत्ताधारी सरकार केवल दो बार ही, 1977 एंव 2011, सत्ता से हटी है।

1977 में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को बेदखल करते हुए अगले 34 वर्षों तक शासन किया।

2011 के चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पार्टी ने अपनी मजबूत स्थिति बनाई, लड़े गए सीटों में से (226 में से 184) 81.4 फीसदी जीत हासिल की और 50 फीसदी का कंटेस्टेड वोट प्रतिशत हासिल किया था।

2011 के विधानसभा चुनावों में अपनी सफलता को देखते हुए 2014 में टीएमसी ने अकेले लोकसभा चुनाव लड़ा जहां 39 फीसदी वोट प्रतिशत के साथ लड़े गए सीटों पर 80.9 फीसदी जीत हासिल की।

तृणमूल कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 2011 के मुकाबले 2014 में गिरावट हुई है, यह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता का परिणाम हो सकता है।

2016 के विधानसभा चुनाव के परिणाम से स्पष्ट है कि हाल ही में हुई कोई भी घटना का - स्टिंग ऑपरेशन या वित्तीय घोटाला या कोलकाता में फ्लाईओवर का गिरना – प्रभाव तृणमूल कांग्रेस पर नहीं पड़ा है।

यह इस बात का प्रमाण है कि पश्चिम बंगाल के मतदाता अपने नेताओं को गलतियां करने की अनुमति देते हैं।

स्ट्राइक दर, तृणमूल कांग्रेस

Source: Election Commission of India and authors' calculationsStrike rate is the ratio of seats won to seats contested.

गठबंधन जो विफल रहे: जो वर्षों से एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रहे थे वे सहयोगी बन गए, वाम एवं कांग्रेस के अपने वैचारिक मतभेद को अलग रखते हुए अपना गठबंधन बनाया, हालांकि केरल में वे एक-दूसरे के खिलाफ ही लड़ रहे थे।

यह गठबंधन चकित करने वाला लग सकता है, लेकिन यह पिछले चुनाव से वोट हिस्सेदारी गणित के आधार पर किया गया था: पश्चिम बंगाल में उनकी संयुक्त वोट हिस्सेदारी 35 फीसदी थी जबकि तृणमूल कांग्रेस के 39 फीसदी रही है।

इस चुनाव में कांग्रेस एवं वाम मतदाताओं के समेकन या "2014 के बदले हुए मतदाताओं "(जो तृणमूल कांग्रेस से भाजपा की ओर गए हैं) को नहीं देखा गया है। वाम -कांग्रेस गठबंधन को 294 सीटों में से 71 सीटें मिली हैं।

भाजपा ने खोया मौका: पश्चिम बंगाल में पार्टी का कंटेस्टेड वोट-शेयर 17 फीसदी था जबकि 2011 में यही वोट-शेयर 4 फीसदी देखा गया था। वोट शेयर में इस उछाल के लिए मोदी लहर को ज़िम्मेदार माना गया था।

भाजपा तृणमूल कांग्रेस से मतदाताओं को अपनी तरफ ला सकती थी – जैसा 2014 में किया था - लेकिन एक स्पष्ट रणनीति नहीं होने और पार्टी के लिए कोई स्थानीय चेहरा नहीं होने के कारण एक मौका गवां दिया है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन

Source: Election Commission of India

3. तमिलनाडु में जयललिता का प्रभुत्व जारी लेकिन लोकप्रियता में गिरावट

जे जयललिता की ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझकम (एआईएडीएमके) की जीत उनके प्रभुत्व का संकेत है। जयललिता के नेतृत्व में एआईएडीएमके अब तक चार बार चुनाव जीत चुकी है: 1991, 2001, 2011 और 2016।

हालांकि, एआईएडीएमके गठबंधन और डीएमके के नृतत्व में उपविजेता रही गठबंध के बीच की खाई बंद हो रही है: 1991 में वे 218 सीटों का अंतर था ; 2016 में अब दोनों के बीच 37 सीटों का अंतर रह गया है, और यह लोकप्रिय भावना में गिरावट का संकेत है।

डीएमके एवं एआईएडीएमके के बीच जीत का अंतर

Source: Election Commission of India

दो पार्टियों का शासन जारी: तमिलनाडु में पहली बार छह-तरफा मुकाबला था। दो बड़ी पार्टियों – डीएमके एवं एआईएडीएमके – के अलावा विजयकांत के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा (देशीया मुरपोक्कु द्रविड़ कलगम (डीएमडीके), तमिल मनीला कांग्रेस और जनता के कल्याण मोर्चा (पीडब्लूएफ) सहित, भाजपा और उसके छोटे सहयोगी दल, और अंत में पट्टाली मक्कल काची (पीएमके), भी थे जिन्होंने सभी 234 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ा है। उनका हुए नुकसान इस बात की पुष्टि करते हैं कि तमिलनाडु में दो पार्टियों का दबदबा है।

4. केरल में सत्ताधारी सरकार को बाहर निकालने का इतिहार जारी

राज्य विधानसभा चुनाव में 140 विधायकों के भाग्य का फैसला करने के लिए (वहां 1,203 उम्मीदवार थे) करीब 20 मिलियन मतदाताओं ने (2 करोड़) वोट डाला है।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा ने स्पष्ट बहुमत के साथ कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) को पराजित किया है। लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) ने कुल 140 में से 91 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि यूडीएफ को 48 सीटों पर कामयाबी मिली है। 2011 में यूडीएफ को 72 सीटें मिली थी।

भाजपा ने 51 सीटों पर चुनाव लड़ा है और नेमम निर्वाचन क्षेत्र में ओ.राजगोपाल की जीत के साथ अपनी पहली बार सीट पर जीत दर्ज कराई है।

केरल में फिर एलडीएफ

Source: Election Commission of India

हर चुनाव में सरकार को विपक्ष लाने की परंपरा जारी: केरल के मतदाताओं का हर चुनाव में सरकार (एलडीएफ और यूडीएफ गठबंधन) को विपक्ष में लाने की परंपरा इस चुनाव में भी जारी रही है। 1980 के बाद से, कोई भी गठबंधन लगातार दो बार शासन कायम करने में सफल नहीं हो पाई है।

वोट - विभाजन जारी है: द्विध्रुवी प्रतिवाद हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच वोट विभाजित करता है। प्रत्येक धर्म में सामुदायिक नेताओं पर वोटिंग पैटर्न पर काफी प्रभाव है।

इस चुनाव में यूडीएफ की सहयोगी, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल), का मुस्लिम मतदाताओ पर काफी प्रभाव रहा है जिससे यूडीएफ गठबंधन को वोट जुटाने में मदद मिली हो सकती है लेकिन पार्टी को 24 सीटों पर लड़े चुनाव में से केवल 18 सीटों पर जीत हासिल हुई है।

मजबूत निर्दलीयों के साथ गठजोड़ से एलडीएफ को मदद मिली है।

(कुमार और भंडारी आईडीएफसी संस्थान, मुंबई में वरिष्ठ विश्लेषक और एसोसिएट हैं। अतिरिक्त सहायता ऋषभ देवनानी द्वारा की गई है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 19 मई 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित की गई है।

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