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मथुरा: 2 अप्रैल 2018 को एससी / एसटी निवारण अत्याचार अधिनियम के कमजोर पड़ने के विरोध में प्रदर्शनकारियों ने मथुरा रेलवे स्टेशन पर रेल सेवाओं को बाधित किया।

मुम्बई: एक दशक से 2016 तक, दलितों के खिलाफ अपराध दर में 25 फीसदी की वृद्धि हुई है। नवीनतम उपलब्ध 2016 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण के मुताबिक, 2006 में प्रति 100,000 दलितों पर 16.3 का अपराध आंकड़ा था, जो 2016 में बढ़कर 20.3 हुआ है।

आदिवासियों या अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध की दर में कमी आई है। ये आंकड़े 2006 में प्रति 100,000 आदिवासियों पर 6.9 थे, जो 2016 में 6.3 हुए हैं।

हालांकि, दोनों हाशिए के समूहों के लिए पुलिस जांच और लंबित मामलों में क्रमश: 99 फीसदी और 55 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि न्यायालयों की लंबितता 50 फीसदी और 28 फीसदी बढ़ी है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध में सजा दर 2 प्रतिशत अंक और 7 प्रतिशत अंक गिरकर 2006 से 2016 में क्रमश: 26 फीसदी और 21 फीसदी हुआ है।

20 मार्च, 2018 को, सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए (अत्याचार निवारण अधिनियम-1989 के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अधिनियम के तहत दर्ज अपराधों के लिए पूर्व अनुमति के बिना नागरिक या सार्वजनिक कर्मचारी की कोई तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी। शिकायत के दोषपूर्ण होने पर इसने भी अग्रिम जमानत का प्रावधान भी शुरू किया है।

इसने पूरे देश में दलित और आदिवासी संगठनों को व्यापक विरोध के लिए उकसा और सोमवार, 2 अप्रैल, 2018 को विरोध में आयोजित भारत बंद राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, ओडिशा, पंजाब और मध्य प्रदेश में हिंसक हो गया । इसमें 11 लोगों की मृत्यु हुई है।

मंगलवार, 3 अप्रैल, 2018 को केंद्र की समीक्षा याचिका पर एक तत्काल सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और कहा कि हाशिए पर जो समुदाय हैं, उनके हितों को प्रभावित किए बिना यह केवल निर्दोष लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए है।

2011 की जनगणना के मुताबिक, दलित, या अनुसूचित जातियां भारत की आबादी का 16.6 फीसदी (201 मिलियन) बनाती हैं। 2001 में यह आंकड़े 16.2 फीसदी थे। देश की आबादी में 8.6 फीसदी (104 मिलियन) हिस्सेदारी आदिवासियों की है, एक दशक पहले के लिए आंकड़े 8.2 फीसदी था।

2006 से 2016 के बीच, दलितों और अनुसूचित जातियों के खिलाफ कम से कम 422,799 अपराध दर्ज किए गए हैं। अपराध में सबसे ज्यादा वृद्धि आठ राज्यों में दर्ज किए गए हैं। ये राज्य हैं गोवा, केरल, दिल्ली, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड और सिक्किम, जहां अपराध दर में 10 गुना वृद्धि हुई है। इस बीच, केरल, कर्नाटक और बिहार में अपराध दर में उच्चतम वृद्धि के साथ, 2006 से 2016 के बीच आदिवासियों के खिलाफ 81,322 अपराधों की सूचना मिली है।

राज्य के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अपराध की दर

Source: National Crime Records Bureau

दलितों, आदिवासियों के खिलाफ अपराधों में न्याय की गति धीमी

हालांकि, एक दशक के दौरान दलित और आदिवासियों के खिलाफ अपराध की रिपोर्ट में वृद्धि हुई है, लेकिन पुलिस और अदालतों द्वारा मामलों के निपटान की दर में कोई समान वृद्धि नहीं हुई है, जैसा कि हमने बताया है।

पुलिस जांच लंबित: अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध के मामलों में लंबित पुलिस जांच के मामले करीब दोगुने हुए हैं। करीब 99 फीसदी, वर्ष 2006 में 8,380 मामले थे, जो वर्ष 2016 में 16,654 मामले हुए। बिहार में 4,311 ऐसे मामले हैं, जिसका प्रदर्शन 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे बद्तर है।

अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अपराध में लंबित जांच के मामले में 55 फीसदी वृद्धि हुई है। यह आंकड़े 2006 में 1,679 थे, जो बढ़ कर 2016 के अंत में 2,602 हुए हैं। आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा लंबित (405) मामलों की सूचना मिली है।

झूठे मामले: दलितों के खिलाफ दर्ज ऐसे अपराधों की संख्या, जो पुलिस के पारंभिक जांच में गलत साबित हुए, उनकी संख्या समान ही रही है, ऐसे मामले 6,000 से कम रहे। भारत में कुल 5,347 मामले झूठे साबित हुए हैं और राजस्थान में अकेले लगभग आधे या 49 फीसदी झूठे मामले दर्ज किए गए (2,632 मामले)।

अनुसूचित जनजाति के खिलाफ दर्ज अपराध और गलत साबित होने के मामले 27 फीसदी की गिरावट आई है। यह आंकड़े 2006 में 1257 मामलों से गिरकर 2016 में 912 हुए हैं।

अदालत में चलने वाला मुकदमा: अदालतों में, एक दशक के दौरन, दलितों के खिलाफ अपराध के लंबित मुकदमे में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह आंकड़े एक दशकसे 2016 तक 85,264 से बढ़कर 129, 831 हुए हैं।

अकेले 2016 में, अत्याचार अधिनियम की रोकथाम के तहत कम से कम 40,801 नए अपराध दर्ज किए गए थे। 15,000 से कम मामलों में उस वर्ष जांच पूरा हुआ। अदालतों में, संपन्न परीक्षणों की संख्या में 28 फीसदी की गिरावट हुई है। यह आंकड़े 2006 में 20,495 से 2016 में 14,615 हुए हैं। ऐसे 33,455 लंबित मामलों के साथ उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन बद्तर रहा है।

आदिवासियों के लिए, 2006 के बाद से एक साल में पूरा होने वाली जांच के मामले करीब आधे हुए हैं । 200 में 2,895 से 2016 में 4,317 ,जबकि लंबित परीक्षण के मामलों में 28 फीसदी की वृद्धि हुई है। 4,839 लंबित मुकदमे के साथ मध्यप्रदेश का रिकॉर्ड सबसे बद्तर रहा है।

पुलिस जांच के लंबित मामले, अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ अपराध के लिए अदालत के मुकदमे, 2006-2016

Source: National Crime Records Bureau

Note: 2014 and 2015 data for pending trial not available.

सजा दर एक दशक में 30 फीसदी से कम बनी हुई है

अदालत में निपटाए जाने वाले अपराधों में करीब एक-चौथाई दलितों के खिलाफ अपराधों में सजा का नेतृत्व करते हैं। 2016 तक, यह सजा दर ( एक साल में मुकदमा पूरा करने वाले मामलों की संख्या के आधार पर एक वर्ष में सजा की संख्या को विभाजित करके गणना की गई ) 26 फीसदी पर है, जो एक दशक पहले (28 फीसदी) दर से 2 प्रतिशत कम है।

2016 में, मुकदमा पूरा करने वाले 74 फीसदी मामलों में अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है, जो 2006 की तुलना में फिर से अधिक है जब बरी होने के आंकड़े 72 फीसदी थे।

2016 तक, मध्य प्रदेश (43.4), गोवा (43.2), और राजस्थान (42) ने दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा अपराध दर दर्ज किए गए है। उनकी सजा दर 31 फीसदी, 8 फीसदी और 45 फीसदी थी।

सिक्किम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, ओडीसा, गुजरात, तेलंगाना, गोवा, तमिलनाडु और केरल में सजा दर विशेष रूप से कम है, 10 फीसदी से कम। एक दशक के दौरान दिल्ली में उच्चतम वृद्धि (67 फीसदी) की सूचना मिली है।

2016 में, 21 फीसदी पर आदिवासियों के खिलाफ अपराध के मामलों में सजा दर और भी बद्तर है जो शेष 79 फीसदी निर्दोष के साथ जो 2006 ( 28 फीसदी ) से 7 फीसदी प्रतिशत अंक की गिरावट दिखाता है।

केरल में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ उच्चतम अपराध दर (37.5) दर्ज की गई है। इसके बाद अंडमान निकोबार द्वीप समूह (21) और आंध्र प्रदेश (15.4) का स्थान रहा है। यहां सजा दर 8.2 फीसदी, 0 फीसदी और 1.1 फीसदी थी।

2016 में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और छह राज्यों ( गुजरात, कर्नाटक, त्रिपुरा, उत्तरांचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और दिल्ली ) द्वारा 'शून्य' अभिरक्षा दर की सूचना मिली थी।

मुंबई में स्थित एक एनजीओ ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म’ द्वारा नागरिक समाज संगठनों और संसदीय समितियों की रिपोर्ट की 2017 के इस अध्ययन से पता चलता है कि शिकायत का देरी से दर्ज होना, स्पॉट जांच में देरी, पीड़ितों की सुरक्षा की कमी और अत्याचार अधिनियम की रोकथाम के संबंधित अनुभागों के तहत अपराधों को दर्ज करने की अनिच्छा- ये कम सजा दर के मुख्य कारण हैं।

अनुसूचित जाति, जनजाति के खिलाफ अपराध की सजा दर, 2006-2016

Source: National Crime Records Bureau

(एंजेल मोहन के डेटा इनपुट के साथ।सलदानहा सहायक संपादक है और मल्लापुर विश्लेषक हैं। दोनों इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 4 अप्रैल, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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