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मुंबई: पानी की कमी का सामना करने वाले देश में, स्वच्छता और प्रदूषण से जुड़ी चुनौतियों से लड़ने के लिए सेवानिवृत्ति, हर बैंकर ऐसा नहीं सोच सकते, लेकिन एचएसबीसी इंडिया की पूर्व देश प्रमुख, नैना किदवई ने ऐसा ही किया। देश के इतिहास में पहली बार एक विदेशी बैंक का नेतृत्व करने वाली नैना ने समाज को एक संदेश दिया है।

पिछले दस सालों से, 61 वर्षीय किदवई, पर्यावरण और जल मुद्दों से संबंधित परियोजनाओं में शरीक हैं और ग्रीन फाइनेंस पहल और कम कार्बन अर्थव्यवस्था के लिए उन्होंने पहल की है।

एचएसबीसी में रहते हुए, किदवई यूएनईपी (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) के सदस्य बनीं। वहां रहते हुए उन्हें यूएनईपी फिक्की इंडिया (इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया कॉमर्सरी काउंसिल) सलाहकार परिषद की स्थापना का अवसर मिला, जिसने 2016 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिससे पता चला कि एक टिकाऊ वित्त व्यवस्था पर भारत कैसे आगे बढ़ सकता है।

2013 में फिक्की के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने सस्टैनबिलिटी, ऊर्जा और जल परिषद की अध्यक्षता की। वहां उन्होंने वाटर मिशन शुरू किया, जो बेंचमार्किंग कंपनियों की जल दक्षता और कॉर्पोरेट जुड़ाव में सुधार करने और सर्वोत्तम काम को पुरस्कृत करने के लिए काम करता है। वह वर्तमान में विश्व आर्थिक मंच की ग्लोबल एजेंडा ‘काउंसिल ऑफ वाटर’ की उपाध्यक्ष हैं।

2015 में, किदवई ने इंडियन सैनटैशन कोअलिशन की स्थापना की। इसे शुरु करने के पीछे एक कहानी थी। उन्होंने बिहार में चार गैर सरकारी संगठनों के बारे में सुना था। वे एक जिले में एक तरह के काम कर रहे थे और प्रत्येक एक-दूसरे के बारे में अनजान थे। यह प्लेटफार्म कॉर्पोरेट, एनजीओ और अन्य हितधारकों को आपस में मिलने,अनुभव बांटने, दस्तावेज तैयार करने आदि की सुविधा देता है।

साफ-सफाई और पानी भारत में दो बड़े मुद्दे हैं। हालांकि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 1960 में $ 81.3 (1,705 रुपये) से 20 गुना बढ़कर 2016 में 1,709.4 रुपये (114,530 रुपये) हुआ है। लेकिन हर दिन 1,600 लोग अभी भी दस्त से मर जाते हैं। और 2030 तक, 40 फीसदी भारतीयों के पास पीने के लिए पर्याप्त पानी नहीं होगा, ऐसी आशंका है।

अब, '30 वुमन इन पावर: देयर वॉयस, देयर स्टोरिज' की लेखिका भारत की कुछ सबसे बड़ी समस्याओं पर ध्यान दे रही हैं। अपनी नवीनतम पुस्तक 'सर्वाइव ऑर सिंक: एक्शन एजेंडा फॉर सनिटेशन, वॉटर, प्रदूषण और ग्रीन फाइनेंस ' में किदवई ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक दशक से अधिक समय तक किए गए केस स्टडीज के आधार पर कुछ सुझाव तैयार किए हैं।

वह जिला प्रशासन और पंचायतों के लिए ग्रामीण स्वच्छता में नेतृत्व करने, अपशिष्ट प्रबंधन के मुद्दों को हल करने और सतत रोजगार पैदा करने और इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की स्थिति में सुधार के तरीके के रूप में उद्यमशीलता और हरित नौकरियों को समर्थन देने के लिए प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढांचे में निवेश में वृद्धि करने की वकालत करती हैं।

किदवई अपनी किताब में लिखती हैं, “हमने भारत की प्रगति और विकास पर खूब जश्न मनाया है, लेकिन यह हमारी हवा, पानी, जंगलों और वन्यजीवन को नष्ट करने की लागत पर नहीं हो सकती है।”

किदवई ने मुंबई में अपनी पुस्तक के लिए विमोचन समारोह से पहले इंडियास्पेंड से बात की। प्रस्तुत है बातचीत के संपादित अंश:

अप्रैल 2017 में स्वच्छता स्थिति रिपोर्ट में कहा गया है कि घर पर शौचालय रखने वाले 22 फीसदी भारतीयों ने इसे ‘व्यक्तिगत वरीयता ’ के आधार पर उपयोग नहीं किया था। अपनी पुस्तक में, आप खुले शौचालय को समाप्त करने के अभियान में संगठनों और स्थानीय समुदाय के नेताओं की भागीदारी का सुझाव देती हैं। क्या आपको लगता है कि स्वास्थ्य संदेश की तुलना में यह अधिक प्रभावी होगा?

स्वास्थ्य संदेश एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन यह स्पष्ट है कि लोगों तक पहुंचने का यह एकमात्र तरीका नहीं है। मुझे हरियाणा के एक अधिकारी का उदाहरण देना अच्छा लगता है, जो अपने जिले को ओडीएफ (खुले शौचालय मुक्त) के रूप में घोषित करने के लिए बहुत मेहनत कर रही थी। लेकिन पिछले 10 गांव विभिन्न कारणों से बाहर थे। उसने एक सरल, लेकिन प्रभावी समाधान का इस्तेमाल किया। इन गैर-अनुपालन वाले गांवों के बुजुर्गों के साथ बैठक में, उन्होंने राज्य के लिंग अनुपात की समस्या (जो कुछ स्थानों पर 70-100 के रूप में कम है) के दृष्टिकोण के साथ इस विषय से संपर्क किया। उन्होंने पूछा, “ऐसे वक्त में जब लड़कियों की संख्या कम है,क्या आपको लगता है दुलहन, शौचालय वाले गांवों की बजाए आपके गांव आना पसंद करेंगी ? वे लोग जो ओडीएफ हैं और जहां जीवन उनके लिए बहुत अधिक आरामदायक है? '

इस सवाल ने लोगों की मानसिकता को बदल दिया।

आप निश्चित रूप से लोगों को स्वास्थ्य संदेश समझना चाहते हैं कि कैसे आदमी स्वस्थ रहे, बीमार न पड़े। कॉर्पोरेट स्वयंसेवी कार्यक्रम वास्तव में इस संदेश को फैलाने का एक प्रभावी तरीका रहा है।

हम में से कई, मेरे जैसे, मानते हैं कि हमें एक 'स्वच्छता आंदोलन' की आवश्यकता है। एक स्वच्छ क्रांति- और इसके लिए आपको बहुत सारे संसाधनों की आवश्यकता है। प्रशिक्षित सहायता सेवा का उपयोग करना आदि। उदाहरण के लिए, फैक्ट्री श्रमिक जो उपयुक्त रूप से सशक्त और स्थानीय गांवों में जाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, इस समुदायिक काम को बेहतर ढंग से कर सकते हैं।

हिंदुस्तान यूनिलीवर इस तरह का एक कार्यक्रम चला रहा है। कर्मचारी अक्सर सार्वजनिक सत्र आयोजित करते हैं और लोगों तक संदेश पहुंचाया जाता है।

भारत में, पांच और 17 वर्ष की उम्र के बच्चों के बीच मृत्यु का एक प्रमुख कारण डायरिया है। पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और झारखंड, में अभी भी शौचालयों के साथ घरों का स्तर निम्नतम है और 2005-06 और 2015-16 के बीच केवल 2 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। इन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार की राह में बड़ी बाधाएं क्या हैं?

भारत बहुत बड़ा देश है और यहां राज्य स्तरीय जुड़ाव महत्वपूर्ण है। हमारे पास ओडीएफ राज्य हैं, लेकिन हमारे पास ऐसे राज्य भी हैं, जो स्वच्छता के मामले में कमजोर हैं। कारण यह हो सकता है कि राज्य प्रशासन ने जल्द ही इस पर काम करना शुरू नहीं किया है, या ठीक से काम शुरु नहीं हुआ। सस्टैनबल डेवलपमेंट गोल के मुताबिक ये राज्य सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। यदि भारत ओडीएफ होने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित 2019 लक्ष्य तक नहीं पहुंचता है, तो ऐसा इन राज्यों के कारण होगा। अन्य राज्य ट्रैक पर अच्छी तरह से हैं।

विशेष रूप से क्या करने की जरूरत है? अधिक संसाधन हो या अधिक ध्यान दिया जाए?

दोनों जरूरी हैं। पहले तो जरूरी यह है कि वास्तविक शौचालय का प्रावधान हो। आपको लोगों को वह विकल्प देना होगा। दूसरा व्यवहार परिवर्तन है। यूपी जैसे राज्य बहुत घने और बहुत गरीब हैं, इसलिए लोगों तक पहुंचने और उन्हें अपनी आदतों को बदलने (खुले में शौच की जगह शौचालय का उपयोग) की जरूरत है। और अंत में, इस मुद्दे के मूल में एक पूरी जाति व्यवस्था जुड़ी है।

टॉयलेट: एक प्रेम कथा, नाम की फिल्म में पंडित गांव में एक सम्मानित व्यक्ति है, जो मानता है कि घर में कहीं भी शौचालय रखना रखना एक अपवित्र काम है। उनके इस विश्वास को बदलने के लिए उसके बेटे और बहू द्वारा अनुभव किया गया संघर्ष एक प्रतिरोध को दर्शाता है जिसे हम भी अक्सर देखते हैं। ये बहुत गहरे मुद्दे हैं जिन्हें निपटने की आवश्यकता है, लेकिन यह आसान नहीं है।

हालांकि, यह एक धार्मिक मुद्दा कम है, जाति का मुद्दा अधिक है। हमने कुछ प्रगतिशील धार्मिक नेताओं को देखा है, जो परिवर्तन के लिए प्रभावी आवाज बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुंभ मेला (उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में संगम पर स्नाना का महान हिंदू परंपरा) में, पुजारी और धार्मिक नेताओं ने अपने दैनिक भोजन के दौरान शौचालय साफ करने वालों से साथ बैठने के लिए कहा। यह एक महत्वपूर्ण बात थी, जो दृष्टिकोण और व्यवहार को बदल सकता है। हमें इस तरह के बदलाव की सख्त जरूरत है।

खुले शौचालय को समाप्त करने के अपने लक्ष्य के लिए सिर्फ एक वर्ष के समय के साथ, स्वच्छ भारत मिशन ने मई 2018 तक, 83 फीसदी ग्रामीण स्वच्छता कवरेज हासिल किया है। आप कितने आश्वस्त हैं कि यह आबादी में स्वास्थ्य और स्वच्छता के स्तर में सुधार करेगा, और ओडीएफ स्थिति को देखने से परे और क्या करने की जरूरत है?

मुझे कोई संदेह नहीं है कि इससे मदद मिलेगी। भारत में दस्त के प्रसार के बारे में बात करते समय मैं हमेशा जंबो जेट के उदाहरण का उपयोग करती हूं। जब एक मलेशियाई एयरलाइंस जेट नीचे चला गया था और 200 लोगों की मौत हो गई, तो वह फ्रंट पेज खबर बनी। भारत में आठ जेट के बराबर हर दिन नीचे जाते हैं और निश्चित रूप से यहां यह खबर नहीं है।

यह साफ है कि दस्त खराब पानी और गंदगी के कारण होता है और ये दोनों आपस में जुड़े हैं। स्वच्छता अभियान से कम से कम जल निकायों को साफ रखने में मदद मिलेगी और इसके कारण व्यक्तियों के स्वास्थ्य में सुधार होगा। मुझे यकीन है कि इसके बाद हम दस्त से मौतों की संख्या में कमी देखेंगे।

याद रखें, दस्त भी स्टंटिंग की ओर ले जाता है। भारत में, 40 फीसदी बच्चे स्टंट हैं ( ये पुराने आंकड़े हो सकते हैं, मुझे विश्वास है कि नए आंकड़े बेहतर हो सकते हैं), और उनका पूर्ण शारीरिक विकास नहीं है। उनमें से 15 फीसदी में पूर्ण मस्तिष्क का विकास नहीं हो पाता है। दस्त और पानी से संबंधित बीमारियों को हल करने के लिए हमें स्वच्छता लाना है, जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत मौलिक चीज है।

लेकिन क्या अभियान को ओडीएफ की स्थिति से परे देखने की जरूरत नहीं है?

इंडियन सैनटैशन कोअलिशन और सरकार के साथ, अब हम 'ओडीएफ प्लस' पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जिसमें हम उपाय पक्ष को भी देख रहे हैं। हमारा मिशन 'निर्माण, उपयोग, रखरखाव और इलाज' करना है, और इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्य पक्षों में अच्छी प्रगति दिखाई दे रही है।

ग्रामीण इलाकों में, हमारे पास शौचालयों के लिए ‘गोल्ड स्टैनडर्ड ट्विन-पिट सिस्टम’ है। ‘ट्विन पिट’ का मतलब है कि जब कोई गड्ढा भर जाता है, तो आप दूसरे का इस्तेमाल होता है। और पहला गड्ढा एक या दो साल में फिर से इस्तेमाल के लायक हो जाता है। इसके अपशिष्ट को उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, क्योंकि इसमें किसी तरह के उपचार की आवश्यकता नहीं होती है।

सेप्टिक प्रबंधन की वजह से शहरी क्षेत्रों की कहानी बहुत अलग है जहां सीवेज का शायद ही उपचार किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, दिल्ली में, केवल 50 फीसदी सीवेज उपचारित किया जाता है। इसका मतलब है कि 50 फीसदी मल और कीचड़ नालियों और जल निकायों में अपना रास्ता पाती है और यह बेहद खतरनाक है। हम उपचार समाधान के लिए पूरी तरह से पश्चिमी मॉडल पर निर्भर नहीं रह सकते हैं , जो बड़े सीवेज संयंत्रों पर केंद्रित हैं। यह स्पष्ट रूप से असफल रहा है। हम जनसंख्या वृद्धि में काफी तेजी देख रहे हैं और सीवेज संयंत्र के साथ तालमेल संभव नहीं। बड़े उपचार संयंत्रों को बनाने में भी 8-10 साल लगते हैं।

इंडोनेशिया, फिलीपींस और यहां तक ​​कि न्यूयॉर्क में लांग आईलैंड ने एक समाधान वाला रास्ता दिखाया है,जिसे भारत को पालन करना चाहिए।

लागत के 1/15 वें हिस्से और एक वर्ष की स्थापना अवधि के साथ आप छोटे, अधिक कुशल प्लांट स्थापित कर सकते हैं। वास्तव में, इन प्रणालियों को केवल 800 रुपये प्रति व्यक्ति (100,000 लोगों के शहर के लिए 8 करोड़ रुपये की लागत) के लिए लागू किया जा सकता है। यह एक बड़ा खर्च नहीं है । लेकिन हमारे पास ऐसे उद्यमियों और व्यवसायों की कमी है जो इन छोटे एफएसटीपी (फिकल कीचड़ उपचार संयंत्र) स्थापित करेंगे। इस तरह के मुद्दों पर आसपास के लोगों को प्रशिक्षण लेने की भी लेने की जरूरत है। हमें हजारों प्लांट की जरूरत है।

लगभग 96 फीसदी स्कूलों में शौचालय हैं, लेकिन 28 फीसदी निष्क्रिय हैं। हम रखरखाव और इससे जुड़े स्वच्छता के मुद्दों से कैसे निपट सकते हैं ,जो लोगों को इन सुविधाओं का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे?

सरकार की तरफ से शौचालयों का निर्माण करने पर से जोर देने से और ओडीएफ स्थिति प्राप्त करने वाले गांवों के महत्व को रेखांकित करने से वास्तव में रखरखाव और स्वच्छता के मुद्दे में मदद कर रहा है।

यदि आप शौचालयों का उपयोग नहीं कर रहे हैं तो आप ओडीएफ नहीं होने जा रहे हैं, इसलिए आपके लिए शौचालयों का उपयोग और उसकी हालत को ठीक रखने की आवश्यकता है। जब आप शौचालयों का उपयोग शुरू करते हैं, तो वास्तव में रखरखाव में सुधार होता है।

लेकिन यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां ध्यान देने की आवश्यकता है। शहरी भारत में, अच्छी तरह से बनाए गए शौचालयों की बहुत बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि सामुदायिक शौचालयों के लिए मॉडल हमेशा काम नहीं कर रहे हैं, जैसा उन्हें करना चाहिए।

धारावी की झोपड़ियों में अच्छी तरह से काम कर रहे मॉडल के कुछ अच्छे उदाहरण हैं। यहां, एक गैर सरकारी संगठन, नगर निगम और अन्य समूहों के साथ मिलकर सेवा के लिए समुदायों को व्यवस्थित करने में मदद करता था। उन्होंने 'माहिला समिति' (महिलाओं के समूह) बनाए जो इसका प्रबंधन करती हैं। शौचालय के साथ इस्तेमाल पर बहुत कम शुल्क से भुगतान का मॉडल जुड़ा है। लेकिन आय वास्तव में महिलाओं की मदद कर रही है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि चूंकि यहां लोग सेवा के लिए भुगतान कर रहे हैं, इसलिए वे यह चाहेंगे कि प्रबंधन शौचालय को साफ रखे।

2018 और 2030 के बीच भारत की शहरी आबादी 30 फीसदी बढ़ जाएगी, जो 460 से 600 मिलियन तक बढ़ सकती है। जैसा कि आप कहती हैं। पहले से ही 6 में से 1 भारतीय शहरी झोपड़ियों में रहता है। ग्रामीण वातावरण के लिए स्वच्छता चुनौतियां शहरों से कैसे भिन्न होता है? उच्च जनसंख्या घनत्व का सामना करते हुए आप कहां से शुरु करती हैं।?

इन जगहों को बदलने के लिए नगर पालिका को सक्रिय रूप से काम करना है। अगर वे खुद से शौचालयों का निर्माण नहीं करेंगे, तो उन्हें उद्यमियों को इन सुविधाओं को प्रदान करने और चलाने की अनुमति देनी होगी।

विभिन्न मॉडल आगे आ रहे हैं। घाटकोपर में यूनिलीवर की एक दिलचस्प परियोजना है। यहां एक शौचालय बैंक है, जिसमें कपड़े धोने और स्नान करने की सुविधा है, इसलिए कपड़े धोने और स्नान से जो पानी बहता है और शौचालयों में जाता है। हमें इस तरह की योजनाओं की अधिक आवश्यकता है, जहां वे अंततः आत्मनिर्भर बन जाते हैं। सुविधा का उपयोग करने के बदले शुल्क से आया पैसा, इसे अपने आप चलाने में सक्षम बनाता है।

शहरी क्षेत्रों में भी, इन मिनी एफएसटीपी द्वारा पुरानी शैली के सीवर प्रणालियों के पूरक की आवश्यकता है। चूंकि बड़े उपचार संयंत्रों को आने में 10 साल लगेंगे, इसलिए हमें इन छोटो को भी लागू करने की अनुमति देनी होगी।

इस समय आमतौर पर क्या होता है कि आवासीय इलाकों में घर सेप्टिक टैंक बनाते हैं, क्योंकि उनके पास कोई सीवर कनेक्शन नहीं है। इन टैंकों को थोड़ो वक्त के बाद साफ करने की जरूरत होती है, इसलिए सीवेज टैंकर ऑपरेटर, जिन्हें हम हनीसकर कहते हैं, टैंक से मल निकालते हैं। एक आदर्श मॉडल में, उन्हें इसे उपचार के लिए एक संयंत्र में ले जाना चाहिए। उपचार वाले मल वास्तव में खनिजों के रूप में बहुत समृद्ध होते हैं और उर्वरक के रूप में उनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इनके अपशिष्ट जल का भी इस्तेमाल होता है, जैसे बागवानी के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस तरह के मॉडल की हमें आवश्यकता है।

भारत में बढ़ते पानी की कमी पर आपका अध्याय आंकड़ों का एक बहुत ही भयावह पक्ष खोलता है । 40 फीसदी भारतीयों के पास 2030 तक पानी पीने के लिए पानी नहीं रहेगा और संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि भारत की जल आपूर्ति का 70 फीसदी वर्तमान में दूषित है। आप पानी में सुधार के लिए एक समाधान के रूप में बाजार और उपचारित पानी के यथार्थवादी मूल्य की स्थापना का सुझाव देती हैं। क्या आप हमें यह बता सकती हैं कि यह कैसे काम करेगा?

नागपुर की तरह कुछ नगर पालिकाएं हैं, जहां यह काम कर रही है। वहां, बिजली इकाई अपशिष्ट जल उत्पन्न होने के बगल में स्थित हैं। उपचारित किया गया पानी सीधे बिजली संयंत्र में जाता है।

कुछ लोगों को इस बारे में पता नहीं है, लेकिन बिजली संयंत्रों को वास्तव में पानी की बहुत जरूरत होती है। पानी की कमी की वजह से गर्मी में 30 फीसदी बिजली संयंत्र बंद हो जाते हैं। इसलिए यह अपशिष्ट जल का अच्छा उपयोग है और यह अधिक व्यापक होना चाहिए।

अक्सर, अपशिष्ट जल जो खेतों में उपयोग किया जा सकता है, समुद्र में डंप किया जाता है। केवल इसलिए कि उपयोग आस-पास नहीं हैं, और समुद्र में चला गया। इसलिए हमें ऐसी चीजों की योजना बनाने की ज़रूरत है, जहां इस अपशिष्ट जल के मूल्य को हम समझें। यह उपयोगी है।

एक आदर्श परिदृश्य में, यदि मैं वह व्यक्ति हूं जिसने फिकल कीचड़ और उत्पन्न अपशिष्ट जल का उपचार किया है, तो मुझे सटीक रूप से प्रोत्साहन राशि मिलनी चाहिए, क्योंकि उस पानी का उपयोग किसी के लाभ के लिए किया जाएगा और इससे मुझे अपनी लागत को कवर करने में मदद हगी। हमें इस प्रकार की अर्थव्यवस्था बनाने की जरूरत है, जिससे श्रृंखला से जुड़े सभी लोगों का आर्थिक हित सुरक्षित रहे।

‘ग्रीन फाइनेंस’ पर आपने अपने चेप्टर में, बैंकिंग कोड की वकालत की है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रदूषण पैदा करने वाले इकाइयों की जगह पैसे का हरियाली में निवेश हो। लेकिन भारत के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2030 तक अनुमानित $ 2.5 ट्रिलियन की आवश्यकता के साथ, हम इस क्षेत्र में फंड आवंटित करने के लिए वित्तीय संस्थानों को कैसे प्रोत्साहित कर पाएंगे?

वित्त पोषण केवल उन परियोजनाओं के लिए है, जो वित्त पोषित हैं। हम बैंकों को उन परियोजनाओं को उधार देने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकते हैं जो असफल होने जा रहे हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वहां हरियाली है।

हमें उन मॉडलों को देखना चाहिए, जो जोखिम रहित हैं। अक्सर सबसे बड़ा जोखिम सरकार और नगर पालिकाओं में नजर आता है, क्योंकि वे नियमों को बदलते हैं। कोई कंपनी कुछ वादे के आधार पर अपना व्यावसायिक मॉडल बनाती है और वे अनुबंधित वादे होते हैं। उन संविदात्मक कीमतों को बाद में नहीं बदला जाना चाहिए, क्योंकि इससे बहुत नुकसान होता है। इसका कारण यह है कि परियोजना करने वाला अगला समूह या तो इस जोखिम के कीमतों को अपने मॉडल में पेश करेगा या परियोजना बिल्कुल पूरी नहीं होगी। दोनों तरीकों से, हम नागरिकों के रूप में पीड़ित हैं। या तो प्लांट आएगा नहीं,या आएगा तो इन जोखिमों की उच्च कीमत पर आएगा।

वित्तीय प्रणाली क्रेडिट एन्हांसमेंट टूल और उपकरणों के साथ भी काम कर सकती है, जिसे बीमा कवर कर सकता है। यह आसान नहीं है, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है।

हमें पूंजी बाजार की भागीदारी की भी आवश्यकता है, जो नगर पालिकाओं को बॉन्ड लाने के लिए प्रोत्साहित करे। जब ऐसा होता है, तो आप इन बॉन्ड (यानी व्यक्तियों और घरेलू / विदेशी धन) के लिए आवेदन करने वाले लोगों से बने निहित ब्याज का एक विशाल निकाय बनाते हैं। ये लोग हमेशा मांग करेंगे कि बॉन्ड की शर्तों को पूरा किया जाए, भले ही सरकार चीजों को खत्म करने की कोशिश करे। यह तब कुछ हद तक आसान है, जब कोई ऐसा बैंक हो, जो सारा धन उधार दे रहा हो और पूरी तरह से बैंकिंग प्रणाली पर निर्भर हो।

10 साल की कानूनी लड़ाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि बृहन्मुंबई नगर निगम को स्वच्छता भूमिकाओं में काम कर रहे 2,700 ठेकेदारों को स्थायी नौकरियां देनी होंगी, जिससे उन्हें वेतन सहित कर्मचारी को मिलने वाले सभी लाभ मिल सके। लेकिन क्या आपको लगता है कि कचरे के साथ काम करने के सामाजिक कलंक को कम करने से इस क्षेत्र में अधिक निजी उद्यम को प्रोत्साहित किया जाएगा?

पूर्ण रूप से। यह एक कलंक का मुद्दा है और यह जाति का भी मुद्दा बन गया है। हमें इसे पूरी तरह से छुटकारा पाना है। उदाहरण के लिए हमें सरकार में कर्मचारियों पर केंद्रित नहीं होना चाहिए,

उद्यमिता को प्रोत्साहित करना चाहिए। मैं युगांडा में कंपाला का उदाहरण देना चाहती हूं, जहां निजी तौर पर अपशिष्ट संग्रह की अपनी प्रणाली तैयार कर 10 करोड़पति बने थे। वे झोपड़ियों से शौचालय के नीचे स्थित छोटे ड्रम में जमा की गई कचरा इकट्ठा करते हैं और मामूली शुल्क लेकर आसपास के क्षेत्रों में उर्वरक के रूप में उनके इस्तेमाल को प्रोत्साहित करते हैं।

हमें इस तरह के उद्यम को विस्तार देने की जरूरत है, जहां

मूल्य श्रृंखला के अंत में पैसा बनाया जा सकता है।

श्रम बल में केवल 27 फीसदी भारतीय महिलाएं हैं। ब्रिक्स राष्ट्रों में सबसे कम। देश हाल ही में विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लिंग अंतर रैंकिंग में 21 स्थान नीचे फिसल गया है। आप इस बात पर ध्यान केंद्रित करके पुस्तक को समाप्त करती हैं कि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से कैसे स्थायी पहलों के लिए अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है।

स्वच्छता और स्वच्छता चक्र में महिलाओं की भूमिका से हम सब परिचित हैं।

किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए वे महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे इसे समझती हैं और पूरे परिवार के लिए परिवर्तन चला सकती हैं। लेकिन शिक्षा, सशक्तिकरण और उनके अधिकारों को लेकर अधिक सजगता की जरूरत है, जिससे वे नेतृत्व कर सकें।

उदाहरण के लिए स्वच्छता परियोजनाओं को आमतौर पर स्व-सहायता समूहों, जिनमें 7-10 महिलाएं होती हैं, को दिया जाता है। महिलाएं एक दूसरे के लिए गारंटर के रूप में कार्य करती हैं-क्योंकि उनके पास बेहतर धन-वापसी का अनुभव भी होता है। इसलिए चक्र के हर बिंदु में, महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। और निश्चित रूप से अब महिलाओं के पास पंचायत नेताओं के रूप में परिवर्तन कर दिखाने का एक बड़ा अवसर है।

(संघेरा, किंग्स कॉलेज लंदन से स्नातक हैं और इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं।)

यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 6 जून, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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