Raqib Mukhtar_620

अनंतबग जिले के बिजीबेरा में ‘जियाबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ इनक्लूसिव एजुकेशन ’ में प्रथम श्रेणी के छात्र रकीब मुख्तार। आंकड़ों से पता चलता है कि, पिछले तीन वर्षों की तुलना में कश्मीर घाटी में 2015-17 के दौरान प्रमाणित दिव्यांग लोगों की संख्या में 74 फीसदी की वृद्धि देखी गई है।

श्रीनगर: तीन सालों से 2017 तक, जब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की गठबंधन सरकार जम्मू-कश्मीर में सत्ता में थी, कश्मीर घाटी के 10 जिलों में 31,085 लोगों को दिव्यांग के रूप में प्रमाणित किया गया । ये आंकड़े पिछले तीन वर्षों में 17,898 लोगों की संख्या से 74 फीसदी ज्यादा हैं, जैसा कि सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी से पता चला है।

विशेष रुप से भीड़ नियंत्रण के लिए गोली-बंदूक के उपयोग की तरफ इशारा करते हुए कार्यकर्ताओं ने बताया कि घाटी में बढ़ती अशांति ने इस वृद्धि में भूमिका निभाई है।

कश्मीर में दिव्यांग व्यक्ति, 2010-2017

जम्मू-कश्मीर एकमात्र राज्य है, जहां 2016 के उस कानून को लागू करना बाकी है, जो 21 दिव्यांगताओं को मान्यता देता है ( पहले सात था ) और इससे संकेत मिलता है कि वास्तविक संख्या अधिक भी हो सकती है।

कार्यकर्ताओं ने कहा कि राज्य में बुनियादी ढांचा अक्षम है, अनुकूल नहीं है, खासकर सार्वजनिक कार्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों की व्यवस्था।

छह साल से 2017 तक, कुपवाड़ा जिले में सबसे अधिक दिव्यांग लोगों की संख्या दर्ज(10,825) हुई, इसके बाद अनंतनाग में 8,638, बारामुल्ला में 7,274 और पुलवामा में 5,461।

जिला अनुसार कश्मीर में दिव्यांग व्यक्ति, 2010-2017

वर्ष 2011 में, राज्य की दिव्यांग आबादी 361,153 थी। इसमें 56.7 फीसदी पुरुष थे और 43.2 फीसदी महिलाएं थीं। यह संख्या, 2001 में 302,670 से 19.3 फीसदी ऊपर हुआ है, जैसा कि 2011 के जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है। आंकड़ों से पता चलता है कि, सुनने में दिव्यांगता सबसे ज्यादा है, लगभग 21 फीसदी।

संघर्ष ने दिव्यांग आबादी में की है वृद्धि

‘जर्नल ऑफ बिजनेस मैनेजमेंट एंड सोशल साइंसेज रिसर्च’ (जेबीएम और एसएसआर) में प्रकाशित एक नवंबर 2015 के अध्ययन के अनुसार, 2014 तक, 100,000 से अधिक दिव्यांगताएं संघर्ष के कारण थीं। श्रीनगर स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज के अनुसार, 2016 के बाद, गोली-बंदूक के उपयोग नेदिव्यांगों की संख्या में वृद्धि की है।

2016 से, छर्रों से प्रभावित होने के बाद 1,253 लोगों की 1,314 आंखें खराब हुईं, और उनके ठीक होने की संभावना बहुत कम है, जैसा कि एक दैनिक अखबार, ‘ग्रेटर कश्मीर’ ने 8 अप्रैल, 2018 की रिपोर्ट में बताया है। न देख पाने वाली दिव्यांग लोगों की संख्या 68.9 फीसदी थी, जबकि देश में न देख पाने वाले अक्षम लोगों की संख्या 44.5 फीसदी है, जैसा कि ऊपर उद्धृत जेबीएम और एसएसआर अध्ययन से पता चलता है।

अलगाववादी नेता मिरवाइज उमर फारूक ने इंडियास्पेंड को बताया, "सरकार के पास इन पीड़ितों की मदद करने के लिए कोई नीति नहीं है।" वह कहते हैं, "सरकार को उनकी मदद करनी चाहिए, लेकिन सरकार उनके पुनर्वास के लिए कुछ नहीं कर पा रही है।"

14 जून, 2018 को जारी किए गए कश्मीर पर पहली संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार रिपोर्ट के अनुसार, "आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2016 और मार्च 2017 के बीच शॉटगन छर्रों द्वारा 17 लोगों की मौत हो गई थी, और 2016 और मार्च 2017 के बीच धातु छर्रों द्वारा 6,221 लोग घायल हो गए थे।"

इस रिपोर्ट की केंद्र ने आलोचना की है। इक्स्टर्नल अफेर्ज़ मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा है कि असत्यापित जानकारी का एक चुनिंदा संकलन है।

लंबित अधिनियम

21 वर्ष पुराने नि:शक्त व्यक्ति अधिकार अधिनियम 1995 को बदलते हुए दिसंबर 2016 में, संसद ने, नि:शक्त व्यक्ति अधिकार विधेयक 2016, पारित किया है। नए कानून ने मान्यता प्राप्त दिव्यांगों की संख्या सात से 21 तक बढ़ा दी, भेदभाव के लिए दंड का सुझाव दिया, और दिव्यांग लोगों के लिए आरक्षण ( शिक्षा और सरकारी नौकरियों ) 3 फीसदी से बढ़ाकर 4 फीसदी कर दिया है।

तब से अट्ठारह महीनों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी, अभी तक इसे जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत, संसद में केवल जम्मू-कश्मीर के रक्षा, बाहरी मामलों और संचार संबंधी मामलों पर कानून बनाने की शक्ति है। इसलिए, राज्य में असेंबली द्वारा पारित बिलों के लिए राज्य विधानसभा में एक कानून पारित किया जाना है।

विकलांगों के अधिकारों की वकालत करने वाले एक कार्यकर्ता जावेद अहमद ताक कहते हैं, " ऐसा पहली बार हमारे साथ नहीं हो रहा है। जब दिव्यांगता अधिनियम को पहली बार 1995 में पारित किया गया था, इसे 1998 में कश्मीर में लागू किया गया था, यानी तीन वर्षों का अंतर, इस लंबे समय में हजारों नौकरियां, शिक्षा तक पहुंच और अन्य सुविधाएं मिल सकती थीं।"

बीजेपी-पीडीपी गठबंधन के 19 जून, 2018 को अलग होने से पहले पीडीपी के युवा अध्यक्ष, वाहिद पैरा ने इंडियास्पेंड को बताया था, "अधिनियम अभी तक पारित नहीं हुआ है और यह प्रक्रिया में है और यह जल्द ही किया जाएगा। दिव्यांगता जम्मू-कश्मीर के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। यह एक मानवीय मुद्दा है। हमने सामाजिक कल्याण विभाग के तहत पहली बार अक्षम लोगों के लिए एक अलग विभाग स्थापित किया है।"

अब गवर्नर के शासन के तहत राज्य है, ताक कहते हैं कि वह आशावादी हैं, "इस कानून को लागू करने की संभावना अब बेहतर है, क्योंकि हम पहले से ही गवर्नर एन एन वोहरा के साथ बैठकें कर चुके हैं। वह इस मुद्दे के बारे में संवेदनशील हैं और हमें आशा है कि वह जल्द ही एक अध्यादेश पारित करेंगे।"

राज्य का बुनियादी ढांचा अक्षम,अनुकूल नहीं

परवेज बताते हैं, “राज्य के ज्यादातर सार्वजनिक कार्यालयों तक अक्षम लोगों की पहुंच योग्य नहीं हैं, क्योंकि उनके पास रैंप नहीं हैं।जब एक दिव्यांग व्यक्ति अपने घर से बाहर निकलता है, तो उन्हें हर स्तर पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है।” ताक कहते हैं, “फुटपाथ दिव्यांग-अनुकूल नहीं हैं।”

भारत के अन्नामलाई विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग द्वारा किए गए शोध के मुताबिक, राज्य में केवल 15 दिव्यांगता देखभाल संस्थान हैं और प्रत्येक में 40 लोगों की क्षमता है। राज्य की कमजोर जनसंख्या का केवल 0.05 फीसदी तक शिक्षा की पहुंच है, जबकि अन्य शिक्षा जैसे बुनियादी आवश्यकताओं की सीमा से बाहर हैं।

Students at Zaiba Aapa_620

अनंतनाग में बिजीबेरा के‘जियाबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ इनक्लूसिव एजुकेशन’ के छात्र। स्कूल अक्षम अधिकार कार्यकर्ता, जाविद अहमद ताक द्वारा चलाया जाता है। घाटी के अधिकांश स्कूल दिव्यांग-अनुकूल नहीं हैं, व्हीलचेयर के लिए कोई रैंप नहीं है, और दिव्यांग छात्रों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित कोई विशेष शिक्षक नहीं हैं।

कम दृष्टि या अंधेपन वाले बच्चों को ब्रेल में पढ़ाया जाना आवश्यक है, लेकिन अधिकांश स्कूलों में ऐसी सुविधाएं नहीं हैं। ताक यह भी कहते हैं कि स्कूलों में शौचालय अक्षम-अनुकूल नहीं हैं।

कश्मीर के केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया अध्ययन के प्रोफेसर नुकरजु बेंडुकुर्ति, जिन्होंने पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया था, कहते हैं, "जहां तक ​​शिक्षा का सवाल है, मैंने यहां बहुत अंतर देखा है। शारीरिक रूप से दिव्यांग लोगों के लिए रैंप के मामले में सभी शैक्षणिक संस्थानों में पहुंच की कमी है, और पुस्तकालय उन लोगों के लिए उपलब्ध नहीं हैं जो दृष्टिहीन हैं।"

जम्मू-कश्मीर दिव्यांग एसोसिएशन के अध्यक्ष अब्दुल रशीद भट्ट कहते हैं, “घाटी के अधिकांश स्कूलों में दिव्यांग लोगों को सिखाने के लिए प्रशिक्षित विशेष शिक्षक नहीं हैं। यह शिक्षक और छात्र के बीच संचार को प्रभावित करता है, जो अक्सर ड्रॉपआउट की ओर जाता है।"

अनंतनाग जिले के बिजीबेरा में एक सरकारी स्कूल से एक ड्रॉपआउट छात्र मलिक फरज़ाना शोटक बताते हैं, "हमारे स्कूल में ब्रेल का उपयोग करने के लिए सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं है, शौचालय दिव्यांग-अनुकूल नहीं हैं। अगर कोई अक्षम थे, तो वे शिक्षक थे, जो मुझे सिखाने में सक्षम नहीं थे।"

भट्ट कहते हैं, "सरकार ऐसे लोगों (ड्रॉपआउट्स) की पहचान जरूर कर रही है, लेकिन वे इससे आगे जा कर कुछ नहीं करते। इन अक्षम लोगों की जरूरतों को पहचाने की जरूरत है। अगर किसी को व्हीलचेयर की आवश्यकता होती है, तो वे इसे उपलब्ध कराने में असफल रहते हैं और अगर वे उपलब्ध कराते हैं, तो व्हीलचेयर घटिया होते हैं।"

(वासिफ श्रीनगर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 3 जुलाई, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।

__________________________________________________________________

"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.com एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना अनुदान दें :