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केरल के पलक्कड़ जिले के अतापदी ब्लॉक में आदिवासियों का एक छोटा सा गांव। अतापदी पश्चिमी घाटों की दो श्रेणियां के बीच एक पहाड़ी घाटी में स्थित है। यह पूरा इलाका पिछले एक दशक से उच्च शिशु मृत्यु दर, गंभीर कुपोषण, समय से पहले जन्म और जन्म के समय कम वजन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।

मारुती और उसके पति वेल्लान्गीरी के दिल में अब भी अपने बच्चे को खोने का गम ताजा है। वर्ष 2014 में मारुती का बेटा केवल साढ़े चार घंटों के लिए जीवित रहा। मारुती दिहाड़ी मजदूरी का काम करती हैं। गर्भावस्था के तीसरे महीने में वह काफी कमजोर हो गई थी। पोषण की क्या बात करें, घर पर पर्याप्त भोजन तक नहीं था। पीने के लिए दूषित पानी और गांव में स्वच्छता जैसी कोई चीज नहीं थी।

यह कहानी किसी पिछड़े भारतीय राज्य की नहीं है, जो अक्सर देश के विकास चार्ट पर नीचे रहता है। मारुती केरल राज्य की निवासी है। केरल वह राज्य है, जहां मार्च 2017 में सबसे कम शिशु मृत्यु दर दर्ज किया गया है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 के अनुसार, केरल में एक वर्ष की आयु के भीतर प्रति 1,000 बच्चों पर 6 बच्चों की मृत्यु का आंकड़ा रहा है। यह आंकड़े अमरीका के बराबर है।

केरल में होने वाले शिशु मृत्यु के दुर्लभ मामलों में मारुती का बच्चा ही क्यों? मारुती का दुर्भाग्य यह है कि वह उत्तर केरल के पलक्कड़ जिले के आदिवासी ब्लॉक अतापदी में रहती है। अतापदी में शिशु मृत्यु दर 66 है। यह मृत्यु दर संघर्ष और अकाल-ग्रस्त दक्षिणी सूडान (66.7) के बराबर है। यह 40 के राष्ट्रीय औसत शिशु दर से काफी आगे है। अतापदी में मातृ मृत्यु दर 26 है, जो राज्य के औसत से कम है।

प्रगतिशील, समृद्धि और विकास सूचक के लिए जाने वाले एक राज्य में अतापदी एक पिछड़े हुए द्वीप के समान है। स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी कम करने के क्षेत्र में सुधार के परिणामस्वरूप केरल का मानव विकास सूचकांक 0.7 9 है, जो भारत में सबसे ज्यादा है। यहां महिला साक्षरता ग्राफ देश में सबसे ऊपर है। लगभग 91.98 फीसदी। साथ ही देश में उच्च जीवन प्रत्याशा भी है – पुरुषों के लिए 72 और महिलाओं के लिए 77.8 । यह एकमात्र ऐसा राज्य है ,जहां लिंग अनुपात महिलाओं के पक्ष में है। प्रत्येक 1,000 पुरुषों पर 1,084 महिलाएं।

हालांकि, अतापदी की पहुंच सार्वजनिक प्रणाली तक नहीं है, जो अप्रभावी राज्य हस्तक्षेप के कारण इन आंकड़ों को संभव बनाते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार केरल में आदिवासियों के जीवन परिस्थितियां छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड जैसे पिछड़े राज्यों के समान हैं।

भारत के आदिवासी क्षेत्रों में संसाधनों के अनियोजित वितरण का मतलब है कि पिछले 35 वर्षों में सरकार द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष सहयोग के रूप में 2.8 लाख करोड़ रुपए (42.6 बिलियन डॉलर) को खर्च नहीं किया गया, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2016 में एक जांच में पता चला था।

जीवन प्रत्याशा में केरल सबसे ऊपर, लेकिन आदिवासियों के लिए लंबी उम्र नहीं

वेल्लंगिरी का मानना है कि उसके बेटे की मौत का कारण बेहतर चिकित्सा सहायता का न मिल पाना है। वेल्लंगिरी कहते हैं, “हम कई मेडिकल जांच करने के लिए निजी अस्पताल गए और वहां हमें थ्रिसुर मेडिकल कॉलेज जाने के लिए कहा गया, क्योंकि मारुती बहुत कमजोर हो गई थीं। हमारे पास यात्रा के लिए पैसे नहीं थे और हम लोग वहां उपचार के लिए जाने की बजाय पलक्कड़ के सरकारी अस्पताल में गए। ”

अतापदी पश्चिमी घाटों की दो श्रेणियों के बीच की घाटी में स्थित है। यहां कुल आबादी में से आदिवासियों की हिस्सेदारी 34 फीसदी है। अधिकांश भूमि क्षेत्र कृषि के लिए उपयोगी है। जंगल हरा भरा है और जल के स्त्रोत अच्छे हैं।

यह इलाका पिछले एक दशक से उच्च शिशु मृत्यु दर, गंभीर कुपोषण, समयपूर्व जन्म और जन्म के समय कम वजन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। घनी जनजातीय आबादी वाले सभी जिलों- वायनाड, इडुक्की और पलक्कड़ में विकास दर, राज्य के औसत से नीचे है।

हालांकि औसत मलयाली की जीवन प्रत्याशा वर्षों में वृद्धि हुई है । वर्ष 1970-75 में 62 साल था, वर्ष 2011 में 74.9 साल हुआ है। लेकिन एम्स के एक अध्ययन ने अतापदी में उल्टा दिखाया है- एक आदिवासी की औसत आयु 1975 में 70 साल से घटकर 2002 में 66 और 2010 में यह घटकर 59 हुआ है। देश में आदिवासी की औसत उम्र 64 साल है।

इकबाल समिति की रिपोर्ट ( वर्ष 2013) के अनुसार अतापदी में शिशु का वजन लगभग 600-800 ग्राम होता है। माताओं में स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिए आवश्यक पोषण और खून की कमी होती है। यहां पर अधिकांश बच्चों को इन्ट्रयूटरिन ग्रोथ रीटार्डेशन (आईयूजीआर) से पीड़ित पाया गया है और वर्ष 2012-13 में यहां 47 नवजात बच्चों की मृत्यु हो गई थी।

अतापदी का विकास सूचकांक

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Source: Census 2011, World Bank 2015, All India Institute of Medical Science, 2010

आदिवासी क्षेत्रों में शौचालय के साथ घरों की संख्या कम

जनजातीय मामलों के आंकड़ों (वर्ष 2013) के अनुसार केरल की 44.3 फीसदी जनजातीय आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। शौचालय के साथ घरों के लिए राज्य का औसत 95.4 फीसदी है, लेकिन इसके 49 फीसदी आदिवासी घरों में शौचालय नहीं हैं। इस संबंध में राष्ट्रीय औसत 60.4 फीसदी है। राज्य की आधी जनजातीय आबादी के पास पीने के साफ पानी नहीं है, जबकि इस संबंध में राज्य का औसत 33.5 फीसदी है।

यहां कम मृत्यु दर के साथ- साथ रोगग्रस्तता की उच्च दर भी मौजूद है । ग्रामीण केरल में बीमारियों की रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति की संख्या 255 (प्रति 1,000) और शहरी केरल में 240 (प्रति 1,000) है। वर्ष 2004 में की गई गणना के अनुसार इस मामले में भारतीय औसत ग्रामीण इलाकों के लिए 88 और शहरी इलाकों के लिए 99 था।

दिहाड़ी मजदूरी का काम करने वाले मणिकांत कहते हैं, "शौचालयों और स्वच्छ पेयजल जैसी सुविधाओं का अभाव हमारे लिए एक बड़ी चिंता है, क्योंकि इससे हमारे समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट हो रही है।"

विशेषज्ञों का कहना है कि अतापदी में स्वास्थ्य, पोषण और स्वच्छता के लिए राज्य की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है।

अतापडी में जनजातीय शिक्षा, विकास और अनुसंधान केंद्र ‘थम्बू’ के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद कहते है, “यहां आदिवासी महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी स्थिति बहुत खराब है। इस समस्याओं से निपटने के लिए राज्य सरकार एक प्रभावी तंत्र बनाने में विफल रही है। सरकारी योजनाओं का ईमानदारी से निष्पादन की जरूरत तो है ही, अतापदी के बच्चों के स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़े विभागों के संचालन की निरंतर जांच और समीक्षा भी होनी चाहिए।”

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अतापादी के एक आंगनवाड़ी केंद्र में भोजन करते बच्चे। इस ब्लॉक में प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 66 शिशु मृत्यु दर है। यह मृत्यु दर संघर्ष और अकाल-ग्रस्त दक्षिणी सूडान (66.7) के बराबर है।

एक और महिला वल्ली में खून की कमी तो थी ही साथ ही वह कुपोषण की शिकार भी थी। वल्ली ने बच्चे को जन्म दिया। बच्चे का वजन बहुत कम था। इस कारण वह ज्यादा देर जीवित नहीं रह पाया। वल्ली ने बताया कि उसे विटामिन और आयरन की गोलियां लेने के लिए कहा गया था, क्योंकि वह गर्भावस्था के लिए पूरी तरह तंदुरुस्त नहीं थीं।

आंगनवाडी से प्राप्त गर्भावस्था किट और राज्य की अनुपम कुडूमश्री परियोजना के तहत केवल दूध और एक दिन में एक समय का भोजन सुनिश्चित किया गया था।

थम्बू द्वारा प्रकाशित एक मासिक पत्रिका गोथ्रभूमि ने बताया, “2012-13 में आदिवासी ब्लॉक में 51 बच्चे की मृत्यु हुई। यूनिसेफ की रिपोर्ट (2012-13) के अनुसार, अतापदी में विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए 12.55 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं लेकिन वास्तविकता में केवल 35 लाख रुपए खर्च किए गए हैं। ”

क्यों इतना पीछे रह गया अतापदी?

आदिवासी प्रमुखों के मुताबिक, अतापदी की परेशानी अपेक्षाकृत नई है। जनजातीय प्रमुख पलानीयप्पन कहते हैं, “पहले हमें शिशु मृत्यु और कम प्रतिरक्षा के मुद्दों की समस्या नहीं थी। यह सब हमारे भोजन की आदतों और सेवन के पैटर्न में बदलाव की वजह से हो रहा है।

हम पहले अपना भोजन खुद उपजाते या पैदा करते थे। जैसे बाजरा और मक्का खेत से आते थे। मांस पशुओं से।वन और प्राकृतिक संसाधनों में क्षय से हमलोगों की जिंदगी लगातार कठिन होती जा रही है। ”

पलानीयप्पन का मानना है कि रोजगार सृजन और खाद्य उपलब्धता में सुधार के लिए आवंटित राशि और योजनाओं पर अधिक तेजी से ध्यान देने की जरूरत है।

मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के साथ 2010 से मजदूरी करने वाली सेल्वी कहती है, “हमारे लिए पर्याप्त रोजगार नहीं है और हमारे पास कोई संसाधन या परिसंपत्ति नहीं है। हम पंचायत द्वारा उपलब्ध रोजगार पर आश्रित हैं, इसके बिना ओरु ( छोटा गांव) में किसी भी परिवार के लिए रहना मुश्किल है। ”

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हम पंचायत द्वारा उपलब्ध रोजगार पर आश्रित हैं, इसके बिना ओरु ( छोटा गांव) में किसी भी परिवार के लिए रहना मुश्किल है।

ब्लॉक पंचायत रिपोर्ट के मुताबिक, अतापदी में मनरेगा के तहत प्रतिदिन महिलाओं के प्रतिशत में वृद्धि देखी है। महिलाओं की संख्या 2006-07 के 61 फीसदी से बढ़ कर 2014-15 में 84 फीसदी हुई है। लेकिन महिलाओं का कहना है कि वे इस रोजगार पर लंबी अवधि पर निर्भर नहीं रह सकती हैं।अतापदी में आंगनवाड़ी में पढ़ाने वाले लक्ष्मी कहती हैं, “आईसीडीएस (एकीकृत बाल विकास सेवाएं), पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) और समुदाय रसोई जैसे कार्यक्रमों से कुपोषण से लड़ने का लक्ष्य अस्थायी समाधान ही हो सकता है। हमारी खेती और खपत आधुनिक व्यवस्था के अनुकूल न होने की वजह से हम लोग असमर्थ हैं। हमें पीडीएस से राशन लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कभी-कभी हमें राशन की दुकानों से मिलने वाला चावल पसंद नहीं आता है। ”

सामाजिक वैज्ञानिक और तुलजापुर में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस के प्रोफेसर एम कन्नमैन का मानना है कि कल्याणकारी पहल के लिए योजना और निष्पादन में स्थानीय भागीदारी की आवश्यकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘डेवलप्मेंट ऑफ ट्राइबल इकॉनमी’ में लिखा है, “आदिवासी समुदायों अपनी स्थिति के बारे में बेहतर ज्ञान रखते हैं। योजनाओं को उनके अपने सिस्टम के माध्यम से उनके हितों की रक्षा के लिए बनाया जाना चाहिए। जनजातीय समुदाय के हितों की रक्षा के लिए नीति में सकारात्मक हस्तक्षेप की जरूरत है। ”

(श्रीदेवी मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से ‘डेवलप्मेंट स्टडीज’ में पीएचडी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 15 अप्रैल 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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