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18 महीने की उर्मिला को पानी पिलाती उसकी मां पूना। उर्मिला गंभीर कुपोषण की शिकार है। कुपोषण के शिकार वे बच्चे होते हैं, जिनको पर्याप्त आहार या पोषण युक्त आहार नहीं मिल पाता है।

देश के अन्य राज्यों की तुलना में, बिहार में कुपोषित बच्चों की संख्या सबसे अधिक है। चौंकाने वाली बात यह है कि राज्य में 38 एनआरसी यानी पोषण पुनर्वास केंद्र हैं। एनआरसी को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की पहली प्रणाली कहते हैं। इसके बावजूद राज्य में पांच वर्ष से कम उम्र के 50 लाख कुपोषित बच्चे हैं, जिनमें केवल 0.3 फीसदी बच्चों का इलाज मुमकिन है। अगर इसे दूसरे ढंग से समझा जाए तो 340 कुपोषित बच्चों में से सिर्फ 1 का ही इलाज किया जा सकता है। स्थिति भयावह है और इससे देश के सबसे युवा आबादी वाले इस राज्य के आने वाले कल की तस्वीर और डरावनी हो सकती है।

हमारे द्वारा सूचना के अधिकार के तहत दायर की गई एक (आरटीआई) याचिका के बाद मिली जानकारी के अनुसार बिहार के हरेक जिले के लिए एक एनआरसी है। एक एनआरसी के दायरे में लगभग 100 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र आता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले भी बताया है। भारत के तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले राज्य बिहार में 20 वर्ष की औसत उम्र वाले देश के युवा लोगों की सबसे बड़ी तादात है।

बिहार में चल रहे प्रत्येक एनआरसी में बिस्तरों की संख्या 10 से लेकर 20 के बीच तक है । और ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक कुपोषित बच्चे को औसतन 20 दिनों के इलाज की जरूरत पड़ती है। अगर यह मान लिया जाए कि एक एक एनआरसी में 20 बिस्तर हैं और वहां पूरे साल सेवा की जाती है तो साफ है कि एक साल में एक एनआरसी 365 बच्चों का इलाज करता है। इसका मतलब हुआ कि बिहार के सभी जिलों के एनआरसी मिलकर 13,870 कुपोषित बच्चों यानी 0.3 फीसदी बच्चों का इलाज करते हैं।

कुपोषण के शिकार मुख्य रुप से वे बच्चे होते हैं, जिन्हें पर्याप्त आहार या पोषण युक्त आहार नहीं मिलता है। आमतौर पर कुपोषण इन में से एक या अधिक प्रकार के होते हैं: पहला है स्टंटिंग, यानी उम्र के हिसाब से लंबाई कम हो जाना। दूसरा है अंडरवेट यानी कम उम्र के हिसाब से कम वजन का होना और कुपोषण का तीसरा प्रकार है वेस्टिंग यानी उम्र के हिसाब से कम कद और कम वजन।

कुपोषण के शिकार 40 फीसदी बच्चों में मौत का खतरा

अगर आंकड़ों पर भरोसा करें तो वर्ष 2013-14 में बिहार के एनआरसी में करीब 8,539 बच्चों को भर्ती कराया गया। इसका अर्थ है कि क्षमता का केवल 66 फीसदी (13870) उपयोग किया गया था। 38 एनआरसी में से कम से कम 11 केंद्रों ने अपनी क्षमता का केवल 20 फीसदी ही उपयोग किया। जबकि चार एनआरसी केंद्रों ने अपनी क्षमता का 80 फीसदी से ज्यादा प्रदर्शन किया। इन हरेक केंद्रों में 300 से ज्यादा कुपोषित बच्चों का इलाज हुआ।

बिहार के एनआरसी में सालाना होने वाला बच्चों का इलाज

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Source: Response to RTI requests

बिहार में कुपोषण की समस्या का एक और पहलू है। एक बार इलाज के बाद फिर से बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। यह एक चिंता का विषय है। 30 से 40 फीसदी परिवारों में बच्चे के इलाज के एक महीने के भीतर ही फिर से उनके कुपोषित होने की रिपोर्ट दर्ज की गई है। आरटीआई के तहत मिले आंकड़ों से पता चलता है कि 41 फीसदी से अधिक परिवार आठ सप्ताह तक लगातार चलने वाले पोषण कार्यक्रम के लिए एनआरसी से नहीं जुड़े।

एक अनुमान के मुताबिक बिहार में 100,000 से ज्यादा गंभीर रूप से ुपोषित बच्चे हैं, जिनका विकास दर सबसे कम है और परिणाम स्वरुप इन बच्चों में मौत पर मौत का खतरा भी सबसे ज्यादा है। इन कुपोषित बच्चों में 0.5 फीसदी यानी 500 से अधिक बच्चों को एनआरसी पर इलाज का मौका नहीं मिल सकता है। यहां 200 बच्चों का ही पूरी तरह से इलाज हो पाता है।

बच्चों पर किए गए रैपिड सर्वे और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार, झारखंड और मध्य प्रदेश के साथ-साथ बिहार में भारत के कुपोषित बच्चों का अनुपात सबसे ज्यादा है।

2015 में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक, एक से पांच वर्ष की आयु के बीच कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में भारत, एशिया में तीसरे और दुनिया भर में 24वें स्थान पर है।

बिहार के कुपोषित बच्चों के इलाज का एक संभव समाधान यह हो सकता है कि 20-बिस्तर वाले विशेष एनआरसी को हटा दिया जाए। इसके स्थान पर हर ब्लॉक (10-15 पंचायतों का एक समूह) में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) में कुपोषित बच्चों के इलाज की सुविधा शुरू कर दी जाए। यानी एनआरसी की जिम्मेदारी पीएचसी को ले लेनी चाहिए। क्योंकि आम जनता को एनआरसी के बारे में बहुत नहीं पता और यदि उन्हें जानकारी है भी तो केंद्र काफी दूर स्थित हैं।

अन्य विकल्प भी हैं। वैश्विक स्तर पर काम करने वाला गैर सरकारी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने बिहार में गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए समुदाय प्रबंधन की व्यवस्था की है और कारगर है।

आंगनवाड़ी केंद्रों में विशेष शिविरों केन्द्रों की स्थापना और घर-घर जाकर कुपोषित बच्चों की विशेष देखभाल को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकार का स्नेहा शिविर कार्यक्रम भी इस दिशा में उठाया गया सही कदम हो सकता है। लेकिन इस कार्यक्रम का शुरू किया जाना अभी बाकी है।

कुपोषण के दोबारा होने जैसी स्थिति पर सूचित करने के लिए हेल्पलाइन नंबर भी कारगर हो सकते हैं और समस्या पर रोक लग सकती है।

हालांकि, बिहार में एनआरसी की संख्या में वृद्धि करने के लिए बिहार सरकार ने केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा था। केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है, लेकिन इस दिशा में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है।

बिहार की तरह कई गरीब राज्यों में सरकार को उम्मीद है कि 2018 तक कुपोषित बच्चों का अनुपात 30 फीसदी से नीचे आ जाएगी। लेकिन इसके लिए जिस तरह की इच्छाशक्ति, संगठन और साधन की जरूरत है, उसका सख्त आभाव दिखता है।

(शशांक श्रीकांत बिहार स्थित सामाजिक संगठन सेवासेतु के सदस्य हैं। ओझा सेवासेतु के अध्यक्ष हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 28 अगस्त 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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