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कृष्ण शुक्ला की झौली में कभी-कभार ही 500 के नोट आए हैं। 36 वर्ष का यह शख्स वाशी सब्जी मंडी में काम करता है। इसकी दिन भर की कमाई 300 रुपए है। नोटबंदी ने बैंकों के आगे भले ही लंबी कतारें कर दी हों, छोटे-मोटे उद्यमियों की आय को कम कर दिया हो, लेकिन कृष्ण शुक्ला जैसे गरीब लोगों के लिए यह मुश्किल भरा सबब नहीं है। क्योंकि ये लोग कभी इतना कमा ही नहीं पाते कि आने वाले वक्त में बचत हो, इंडियास्पेंड के विश्लेषण में यह बात सामने आई है।

सफेद धोती पहने और माथे पर चंदन लगाए चंदू कोकरे 60 भेड़ों के मालिक हैं। चंदू भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई से 30 किलोमीटर दूर रहते हैं। 500 रुपए और 1,000 रुपए के नोटों को अमान्य घोषित करने के संबंध में जब इंडियास्पेंड ने इनसे पूछा तो चंदू का कहना था कि इससे उसका कोई लेना देना नहीं है- “हमारे बिल 50-100 रुपए से ज्यादा नहीं होता है।”

9 नवंबर, 2016 को भारत सरकार ने 500 और 1,000 रुपए के नोट को अमान्य घोषित कर दिया था। इसके बाद देश भर में नोट को बदलने या बैंकों और एटीएम मशीन से पैसे निकालने के लिए लोगों की लंबी कतारे देखने मिली है। नोटबंदी के परिणामस्वरुप छोटे व्यवसायियों के अल्पकालिक आय में गिरावट हुई है। नोटबंदी का असर जानने के लिए इंडियास्पेंड के संवाददाताओं ने पुणे, अहमदनगर और पालघर जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों और मुंबई और नवी मुंबई में शहरी क्षेत्रों का दौरा किया। हमारे संवाददाता ने पाया कि गरीब मजदूरों, किसानों, छोटे व्यापारियों और कोकरे जैसे चरवाहों पर इस कदम का कोई खास असर नहीं हुआ है। क्योंकि या तो इनकी आय इतनी कम है कि वे बचत नहीं कर पाते या फिर वो जो एक दिन में कमाते हैं, उसी पर जीते हैं।

भारत में कम से कम 26.93 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। यहां गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 32 रुपए पर जीते हैं। हम आपको बता दें कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग इंडोनेशिया की आबादी के बराबर हैं। करीब 21.65 करोड़ गरीब लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2015 को विस्तार से बताया है। सकल राज्य घरेलू उत्पाद के अनुसार, भारत का सबसे समृद्ध और दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य महाराष्ट्र में 11.2 करोड़ लोगों में से 1.97 करोड़ लोग यानी कि 17.35 फीसदी लोग गरीब हैं।

इंडियास्पेंड से बात करते हुए कई किसान परिवार बताया कि सरकार के इस कदम का उन पर खास प्रभाव नहीं पड़ा है, क्योंकि वे जो उगाते हैं, वही खाते हैं। लेकिन शहरी क्षेत्रों में स्थिति ऐसी नहीं थी। इन इलाकों में लोगं की दिक्कतों के संबंध में मीडिया (इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाइम्स में विस्तार में जानकारी दी गई है।)

कृषि में कमी, मजदूरों की संख्या बढ़ी

इंट के बने अपने घर के दरवाजे पर खड़े 43 साल के नारायण देव रिनजद के चेहरे पर नोटबंदी से उपजी किसी समस्या की छाप नहीं दिखती। एक हद तक रिनजद को इससे कुछ लेना देना नहीं है। पालघर जिले के पंद्रे पडे गांव में मुर्गी पालते, चावल, दाल, मिर्च और खीरे की खेती करते रिनजद कहते हैं-“हम वही खाते हैं, जो उपजाते हैं।” गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले नारायण देव रिनजद की तरह बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिनपर नोटबंदी का कोई विपरित प्रभाव नहीं पड़ा है।

रिनजद बताते हैं कि उनका परिवार तेल, चीनी और मसाले बाजार से लाता है। बाजार 5 किलोमीटर दूर होने के कारण वे लोग 15 दिन से 1 महीने तक का सामान भंडार में रखते हैं। जब सरकार ने नोटबंदी की घोषणा की तो परिवार के पास 5,000 रुपए थे, जिसे उन्होंने बैंक में जमा करवा दिया और 2,000 रुपए निकाले। रिनजद कहते हैं कि फिलहाल उन्हें और पैसों के लिए बैंक में जाने की जरुरत नहीं है। क्योंकि न तो उन्हें किसी चीज की तत्काल जरूरत है और वे खेतों की बुआई में व्यस्त हैं, जिसे छोड़कर कहीं जाना घाटे का सौदा है। जब रिनजद अपने पैसे जमा कराने बैंक गए थे, तो उन्हें चार घंटे का वक्त लगा था।

रिजनद एक बहुत ही छोटे किसान की श्रेणी में आते हैं। लेकिन भारत में किसानों की संख्या कम हो रही है, जबकि कृषि मजदूरों की संख्या में वृद्धि हो रही है। किसानों की संख्या में 7 फीसदी तक गिरावट हुई है। वर्ष 2001 में किसानों की संख्या 12.76 करोड़ थी, जबकि वर्ष 2011 में यह संख्या गिरकर 11.86 करोड़ हुई है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने अगस्त 2014 में विस्तार से बताया है। वर्ष 2011 में कृषि मजदूरों की संख्या में 3.68 करोड़ या 34.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

2001-11 के बीच, किसानों की संख्या में कमी; गरीब मजदूर की संख्या में वृद्धि

Source: Census of India

खेतों और ग्रामीण निर्माण स्थलों पर दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने वालों का कहना है कि 500 रुपए और 1,000 रुपए के नोट बंद करने से उन पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। वे कहते हैं कि उनके पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि उन पर असर पड़े। लेकिन उन्होंने अपने मालिकों से तब तक पैसे नहीं लिए, जब कि उन्हें छुट्टे नोट या छोटे नोट नहीं दिए गए।

गरीबों के पास बैंक खाते होने के बावजूद उनका इस्तेमाल सीमित

36 वर्षीय कृष्ण शुक्ला सामान ढोने का काम करता है। इंडियास्पेंड से बात करते हुए शुक्ला बताता है कि उनकी दिन भर की कमाई 50 रुपए है, जो उसने वाशी के कृषि बाजार में कमाई है। शुक्ला कहता है, “500 रुपए का नोट हमें हमेशा देखने को कहां मिलता है।” शुक्ला बताते हैं कि अपनी रोजाना कमाई का 26 फीसदी वह खर्च कर देता है। अपने बचे हुए पैसे वह अपने एक दोस्त को देता है, जिसके पास बैंक खाता है। दोस्त उसके पैसे उसके गांव भेज देता है।

हालांकि, कई किसानों और मजदूरों ने खुद के पास बैंक खाते की बात कही है, लेकिन उनके खाते में या तो शून्य बैलेंस है या बहुत कम पैसे हैं। इसका मुख्य कारण उनकी कम आय है। उनकी एक दिन की आय उतनी ही है, जितने में उनकी एक दिन की जरुरत पूरी हो सके। वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, नवंबर 2016 तक प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खोले गए 25.51 करोड़ नए खातों में से 23 फीसदी खातों में बैलेंस शून्य था। इसके अलावा पैसे भेजने या उधार लेने के लिए वे अनौपचारिक परिवार सूत्रों या साहूकारों पर निर्भर हैं।

34 वर्ष की रानी देवी, कैंसर के इलाज के लिए दो महीने पहले मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल आई है। साथ में पति है जो बिहार में दिहाड़ी मजदूरी का काम करता है। मुंबई आने के बाद से उसके पति के पास कोई काम नहीं है। मुंबई में गुजारा करने के लिए परिवार प्रति दिन 200 रुपए खर्च करता है। 36 फीसदी की ब्याज दर के साथ गांव के साहूकार से 5,000 रुपए उधार लेकर ये लोग मुंबई आए हैं।

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34 वर्ष की रानी देवी, कैंसर के इलाज के लिए दो महीने पहले मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल आई हैं। इनके पास बैंक खाता है, लेकिन इतनी आय नहीं कि बचत कर खाते में डाल सकें।

देवी के लिए फिलहाल अस्पताल के बाहर का फुटपाथ ही रहने की जगह है। वह कहती है, “बैंक खाता है हमारे पास, लेकिन इतनी बचत ही नहीं होती कि खाते में जमा करा सकें।” उन्हें यह स्पष्ट नहीं था कि 500 और 1,000 रुपए के नोटों की बंदी से उनके परिवार पर प्रभाव पड़ा है या नहीं।

यहां कुछ दिहाड़ी मजदूरों को 100 रुपए या उससे कम के नोट में भुगतान किया गया है, लेकिन कई ऐसे भी है जिन्हें भुगतान नहीं मिला है। पालघर जिले में एक दिहाड़ी खेत मजदूर जितेन्द्र भुरकुड बताता है कि उसके मालिक के पास भुगतान के लिए 100 रुपए के नोट नहीं था, इसलिए वह पैसे लिए बिना ही काम कर रहा था। वह कहता है, “एक बार उनके पास छुट्टे पैसे हो जाएंगे तभी वह भुगतान करेंगे।”

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पिछले दो हफ्तों से जितेन्द्र बिना दिहाड़ी लिए ही काम कर रहा है। जितेंद्र कहता है कि उसके मालिक के पास 100 रुपए के नोट आने पर ही उसे पैसे मिल पाएंगे।

कई लोगों का कहना था कि उनके पास इतने पैसे ही नहीं है, जिससे उन पर इस कदम का असर पड़े। हालांकि छोटे नोटों की कमी के कारण उनके कारोबार पर जरुर प्रभाव पड़ा है। 41 वर्ष की रसिका लोहाले कहती हैं, “पैसे कम हैं तो प्रभाव भी कम है।” लोहाले एक छोटी दुकान चलाती हैं। वह कहती हैं कि पहले प्रतिदिन उनकी कमाई 500 से 600 रुपए होती थी। लेकिन अब 300 से 400 ही हो रही है। वह कहती हैं, “आजकल हम मांस नहीं खा रहे हैं, क्योंकि मांस खरीदने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं।”

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रसिका लोहाले एक छोटी सी दुकान चलाती है। छोटे नोटों की कमी के कारण उनके कारोबार में 50 फीसदी की गिरावट हुई है जिसके कारण उसके परिवार ने पिछले कुछ दिनों में मांस नहीं खाया है

(पाटिल, शाह और यदवार संवाददाता और विश्लेषक हैं। इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 25 नवम्बर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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