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प्रति व्यक्ति आय के मामले में उत्तराखंड छठवें स्थान पर है, लेकिन शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में राज्य का प्रदर्शन कई गरीब राज्यों से बद्तर है। आईएमआर के संबंध में राज्य 21वें स्थान पर है और इसे किसी राज्य के लिए अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती है। यह जानकारी 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' के विश्लेषण में सामने आई है। यहां हम आपको बता दें कि प्रति व्यक्ति आय के संबंध में उत्तराखंड़ तीसरे स्थान से फिसल पर छठवें स्थान तक जा पहुंचा है।

हालांकि मातृ मृत्यु आंकड़ों में सुधार हुआ है। बच्चेों के स्वास्थ्य संकेतक किसी भी राज्य की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के लिए एक प्रमुख कसौटी होतो हैं और यह उत्तराखंड की समृद्धि से कतई मेल नहीं खाते हैं।

  • पिछले दस सालों से वर्ष 2015-16 तक, राज्य का आईएमआर प्रति 1000 जीवित जन्मों पर 40 की मृत्यु पर स्थिर है। वर्ष 2005-06 में ये आंकड़े 42 थे, जो अरुणाचल प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे गरीब राज्यों से बद्तर है।

  • पांच से कम आयु के 100 बच्चों में पांचवा हिस्सा वेस्टेड यानी कद के अनुसार कम वजन वाले बच्चों का है । पिछले एक दशक में 20 फीसदी वेस्टेड बच्चों के अनुपात में सुधार नहीं हुआ है।

  • वर्ष 2012-13 में राजस्थान में 36 फीसदी और झारखंड में 28 फीसदी के आंकड़ों के मुकाबले उत्तराखंड में एक चौथाई नवजात शिशु कम वजन के हैं।

  • स्टंड ( उम्र के अनुसार कम कद ) और कम वजन के बच्चों के अनुपात में राष्ट्रीय औसत की तुलना में तेजी से गिरावट हुई है। राष्ट्रीय औसत वर्ष 2005-06 में 48 फीसदी से कम होकर 2013-14 में 39 फीसदी हुआ है। यानी एक दशक पहले, पांच वर्ष की कम आयु के 44 फीसदी स्टंड और 38 फीसदी कम वजन के बच्चों के संबंध में आंकड़े 2014-15 में 34 फीसदी एवं 27 फीसदी हुए हैं।

Infant Mortality Rate Across Uttarakhand

IMR per 1,000 live births. Click on districts for data.

आर्थिक प्रगति के लिए स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण कारक है। इसलिए चुनाव के मद्देनजर यह छह भागों वाली श्रृंखला का पांचवा लेख है। जिसमें हम उत्तर प्रदेश, मणिपुर, गोवा, पंजाब और उत्तराखंड में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति पर चर्चा करने के लिए नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों पर बात कर रहे हैं।

एक करोड़ की आबादी या दिल्ली की तुलना में आधी आबादी के साथ उत्तराखंड स्पष्ट रूप से पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए संघर्ष कर रहा है। यहां तक कि सरकार भी मानती है कि कई दूर-दराज के गांवों में डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा पेशेवरों की कमी है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की दूसरी कतार, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में आपात स्थिति को संभालने की स्थिति में 83 फीसदी आवश्यक विशेषज्ञों और 50 फीसदी नर्सिंग स्टाफ की कमी है। जिला स्तरीय घरेलू और सुविधा सर्वेक्षण (डीएलएचएस 4) से उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में, केवल 68 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) सातों दिन और 24 घंटे काम करती है।

कांगों जैसे देश के बराबर हरिद्वार में हो रही है बच्चों की मृत्यु

शहरों में, जहां स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आसान है, वहां भी समस्याएं दिखाई देती हैं।

वर्ष 2015-16 में हरिद्वार, जो मैदानी क्षेत्र पर है और अच्छी तरह से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है, का ग्रामीण आईएमआर 75 है। ये आंकड़े काफी हद तक 2015-16 में, भारत में एंपावर्ड एक्शन ग्रूप (इएजी) में उत्तर प्रदेश से दर्ज हुए भारत की सबसे बड़ी राज्यव्यापी 68 के आईएमआर के औसत से भी बद्तर है। इतना ही नहीं, ये आंकड़े कई गरीब अफ्रीकी देशों से बद्तर और कांगो के बराबर है।

वर्ष 2015-16 के अंत तक उत्तराखंड में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में करीब दो-तिहाई के साथ संस्थागत जन्म दोगुना हो कर 69 फीसदी हुआ है। लेकिन नवीनतम उपलब्ध आंकड़े, वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एएचएस) 2012-13 की रिपोर्ट से पता चलता है कि जिलों में निजी स्वास्थ्य देखभाल अलग है।निजी क्षेत्र की उपस्थिति में भी महत्वपूर्ण भिन्नता मौजूद है।

हरिद्वार ही केवल ऐसा जिला है, जहां निजी की तुलना में कम बच्चों का जन्म सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा केंद्रों में होता है। पहाड़ियों में निजी स्वास्थ्य दुर्लभ है, जहां आईएमआर दर उत्तराखंड भर में सबसे कम है।

न्यूनतम दर्ज की गई शिशु मृत्यु दर के साथ रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा के जिले पहाड़ी पर हैं, जहां सार्वजनिक हो या निजी, स्वास्थ्य सेवा की पहुंच मुश्किल है। लेकिन फिर भी इनका प्रदर्शन अधिक निजी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ वाले जिलों से बेहतर है।

‘क्लिनिकल, ऐन्थ्रपमेट्रिक एंड बायोकेमिकल सर्वे-2014’ के अनुसार, पांच वर्ष की आयु वर्ग में 52 फीसदी स्टंड बच्चों के साथ हरिद्वार का उच्च आईएमआर है,जबकि पिथौरागढ़ के 23 आईएमआर के साथ वहां पांच वर्ष की उम्र के स्टंड बच्चों का अनुपात 22 फीसदी है।

हरिद्वार में बच्चों के प्रसव के लिए निजी स्वास्थ्य सेवा को वरियता

समृद्ध राज्य उत्तराखंड में बाल स्वास्थ्य सुधार की गति धीमी

हरिद्वार एक अपवाद हो सकता है, लेकिनउत्तराखंड में, बच्चों के कुपोषण में धीमी गति से सुधार हुआ है, जैसा कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के दो सर्वेक्षण संकेत देते हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, पांच वर्ष आयु वर्ग के एक-तिहाई बच्चे स्टंड हैं। अगर इसकी तुलना करें तो असम में 36 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 38 फीसदी बच्चे स्टंड हैं।

गरीब राज्यों की तुलना में उत्तराखंड के जिलों में व्यापक रुप से असमानता है। ‘क्लिनिकल, ऐन्थ्रपमेट्रिक एंड बायोकेमिकल सर्वे-2014’ अनुसार, इस संबंध में हरिद्वार के आंकड़े 52 फीसदी और पिथौरागढ़ के आंकड़े 22 फीसदी हैं, जहां केवल 4 फीसदी बच्चों का जन्म सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्र पर हुआ है।

यहां एक-चौथाई नवजात बच्चे कम वजन के होते हैं। इससे साफ जाहिर है कि महिलाओं के बीच लंबे समय से कुपोषण की स्थिति है। हम बता दें कि यहां 18 से 59 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं का बीएमआई 18.5 से कम मापा गया है। साफ है कि उत्तराखंड की मांओं और बच्चों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली से पर्याप्त चिकित्सा सुविधा प्राप्त नहीं हो रहा है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली विफल , शिशु लिंग अनुपात में गिरावट

इस राज्य में 10 में से केवल 1 गर्भवती महिला को प्रसव पूर्व देखभाल प्राप्त होता है। एनएफएचएस-4 के आंकड़ों के अनुसार किसी भी गर्भवती महिला को प्रसव पूर्व कम से कम चार बार देखभाल निरीक्षण, कम से कम एक टिटनेस टॉक्सिड (टीटी) इंजेक्शन, 100 दिनों के लिए आयरन- -फोलिक एसिड की गोलियां या सिरप मिलना चाहिए। हर 10 बच्चे (12-23 महीने) में से छह बच्चों को पूरी तरह से प्रतिरक्षित किया गया है, लेकिन यह अनुपात 2015-16 से स्थिर बनी हुई है।

उच्च शिशु मृत्यु दर और कुपोषण की धीमी गति के अलावा राज्य में घटता लिंग अनुपात भी समस्या है।

वर्ष 2015-16 में, ग्रामीण उत्तराखंड में जन्म के लिंग अनुपात में सुधार हुआ है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में इस अनुपात में गिरावट हुई है। वर्ष 2015-16 में, राज्य में शहरी (817) और ग्रामीण (924) के बीच व्यापक असमानता के साथ, जन्म के समय प्रति 1,000 पुरुष पर 888 महिलाओं का औसत है।

Sex Ratio (At Birth) Across Uttarakhand

Females per 1,000 males. Click on districts for data.

हालांकि, उत्तराखंड में कानूनी उम्र होने पर ही विवाह के मामले में सुधार पाया गया है। एनएफएचएस-4 के आंकड़ों के अनुसार, 20 से 24 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं में सही उम्र से पहले विवाह होने वाली महिलाओं का अनुपात 2015-16 में 23 फीसदी से गिरकर 14 फीसदी हुआ है।

भारत में कम आयु में विवाह से कम उम्र में मां बनने की समस्या आम है। यह खराब मातृ स्वास्थय और खराब बाल स्वास्थ्य का एक प्रमुख कारण है। इस संबंध में उत्तराखंड में सुधार देखा गया है। वर्ष 2005 से 2015 के बीच, सर्वेक्षण के समय 15 से 19 वर्ष आयु की गर्भवती महिला या मां बन चुकी महिलाओं की संख्या आधी हुई है। इसका मतलब हुआ कि यदि महिलाओं की शादी कम उम्र में भी हो रही तो भी मां वे 19 वर्ष की आयु के बाद ही बन रही हैं।

अच्छी स्वास्थ्य सेवा से आएगा अंतर?

बेहतर स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और समुचित खर्च के साथ, उत्तराखंड शिशु और बच्चों में होने वाली मौतों को कम कर सकता है। हम बता दें कि उत्तराखंड में बच्चों के संस्थागत प्रसव में सुधार हुआ है।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के वर्ष 2015 की रिपोर्ट में स्वास्थ्य सेवा के लिए और अधिक आधुनिक बुनियादी ढांचे और अधिक रक्त बैंकों की सिफारिश की गई है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य अपर्याप्तता से उत्तराखंड में होने वाले प्रति प्रसव पर औसत 2,399 जेब व्यय का बोझ पड़ा है।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवा के लिए अधिक राशि आवंटित करने की जरूरत है। अब तक इस राज्य को मिले विशेष श्रेणी के दर्जे से केंद्री की ओर से अधिक वित्तीय सहायता मिलती रही है। लेकिन केंद्र सरकार और-राज्य सरकार की ओर से वित्त सहयोग बदलने से राज्य में नए ढंग से कम खर्च में प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने की जरूरत है।

(रुद्र 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' में एसोसिएट फेलो हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 08 फरवरी 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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