Mumbai: Children paint on walls on World Environment Day in Mumbai on June 5, 2017. (Photo: IANS)

नई दिल्ली: भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को तीन गुना बचा सकता है, और हर साल दुनिया के लाखों लोगों का जीवन बचाने में मदद कर सकता है, यदि यह वैश्विक समुदाय की वैश्विक औसत तापमान सीमा को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने में मदद करने के लिए अपने जलवायु संबंधी कार्यों को बढ़ाता है। यह बात 5 दिसंबर, 2018 को जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अध्ययन में कही गई है। 2015 में पेरिस समझौते के तहत 2oC पर सहमत होने की तुलना में यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। हालांकि ऐसा करने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होगी, लेकिन एतिहासिक उत्सर्जक ( समृद्ध, औद्योगिक देश) पेरिस समझौते के तहत धन उपलब्ध कराने की अपनी प्रतिबद्धताओं पर सफल नहीं दिखे हैं। 4 दिसंबर, 2018 को भारत के वित्त मंत्रालय द्वारा जारी एक पेपर में कहा गया है, "मौजूदा वित्त वर्ष में क्लाइमिट फाइनैन्स का स्कोप, स्केल और गति न केवल अपर्याप्त है बल्कि इस पर उचित तरीके से चर्चा भी नहीं की जा रही है।"

भारत ने हमेशा विकासशील देशों की इस मांग की हिमायत की है कि लंबे समय से जलवायु परिवर्तन दोषियों को शमन और अनुकूलन के लिए भुगतान करना चाहिए। 2009 में, सीओपी 15 में, विकसित देशों ने 2020 तक हर साल $ 100 बिलियन (दिल्ली के जीडीपी के बराबर) देने की सहमति व्यक्त की, ताकि विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन को कम किया जा सके और इसके प्रभावों को अनुकूलित किया जा सके। 2015 के पेरिस समझौते के लिए 2025 से इस राशि की समीक्षा और स्केल करने के लिए समृद्ध देशों की आवश्यकता थी। अब, जैसा कि विश्व के नेताओं ने पेरिस समझौते को लागू करने के लिए "नियम पुस्तिका" ( जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों की निगरानी, ​​रिपोर्टिंग और सत्यापन के लिए प्रक्रियाओं, दिशानिर्देशों और संस्थागत तंत्र ) का अध्ययन किया है, जलवायु वित्तपोषण और वित्त लेखांकन चर्चा के सामने और केंद्र में होना चाहिए, जैसा कि पेपर में कहा गया है।

अपनी प्रतिबद्धता पर अच्छी तरह से खड़े नहीं विकसित देश

भारतीय वित्त मंत्रालय के पेपर के अनुसार, 2017 तक विकसित देशों ने अपने वित्तीय दायित्वों में से केवल 12 फीसदी ही पूरा किया है। इसमें विकसित देशों पर 2013-14 तक प्रति वर्ष $ 41 बिलियन (उत्तराखंड राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर) में अपने वित्तीय योगदान को बढ़ाने के लिए विकसित लेखांकन विधियों का उपयोग करने का आरोप लगाया है। पेपर के अनुसार, "2015 में भारत सरकार के एक डिस्कशन पेपर में बताया गया है कि अगर हम रियायती आधार पर वास्तविक क्लाइमिट फाइनैन्स के देश के वितरण को प्रतिबंधित करते हैं तो 2013-14 में [केवल] विश्वसनीय संख्या 2.2 बिलियन डॉलर है ।" शेष धन या तो अभी तक वितरित नहीं किया गया था, या वित्तीय सहायता के रूप में प्रदान नहीं किया गया था, बल्कि ऋण आदि के रूप में प्रदान किया गया था। गैर-लाभकारी संस्था, ‘एक्शन एड’ के साथ जलवायु परिवर्तन पर ग्लोबल प्रमुख, हरजीत सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया, "समृद्ध देश पूरी तरह से अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में असफल रहे हैं। उन्होंने कहा, "इससे भी खराब बात ये है कि, हमने वाणिज्यिक ऋण के रूप में इस प्रतिबद्धता को गुजरते हुए देखा है, जो विकासशील देशों के लिए अच्छा नहीं है।"वित्त मंत्रालय के पेपर में कहा गया है, " न्यू क्लाइमिट स्पिसिफिक असिस्टन्ससिर्फ 16-21 बिलियन डॉलर (2018 के लिए) हो सकती है। यदि विकास परियोजनाओं के लिए राशि जो केवल आंशिक रूप से जलवायु परिवर्तन को कवर करता है, उन्हें अधिक सटीक रूप से रिपोर्ट किया गया होता, तो पब्लिक क्लाइमिट फाइनैन्स का वार्षिक द्विपक्षीय प्रवाह, रिपोर्ट की गई राशि की तुलना में 10 बिलियन डॉलर और 15 बिलियन डॉलर के बीच कम हो सकता है। "

पेपर में कहा गया है कि यूएनएफसीसीसी दिशा निर्देश जलवायु वित्त लेखा में बहुत कम छूट देते हैं। एक्शन एड के सिंह ने सहमति व्यक्त की: " इंटरनेशन क्लाइमिट फाइनैन्स के तहत प्राप्त कुल राशि को आंकना असंभव है ... विभिन्न देश और एजेंसियां अपनी धारणाओं के साथ बहुत जटिल हैं। कुछ जलवायु परियोजनाओं के रूप में विकास और इनफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की भी गिनती करते हैं। "

इसलिए, भारत जैसे विकासशील देशों का कहना है कि केटोवाइस में बातचीत की जा रही नियम पुस्तिका को लेखांकन प्रक्रियाओं को स्पष्ट करना होगा।

हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका ( जो पहले ही पेरिस समझौते से बाहर हो चुका है ) यूरोपीय संघ और अन्य विकसित देश क्लाइमिट फाइनैन्स रिपोर्टिंग के मुद्दे से बच रहा है, जैसा कि समाचार पत्र बिजनेस स्टैंडर्ड ने 6 दिसंबर, 2018 की रिपोर्ट में बताया था।

विकसित देशों का कहना है कि वे ऐसी तारीख निर्धारित नहीं करेंगे जहां से वे अपने वित्तीय योगदान पर अग्रिम जानकारी प्रदान करना शुरू कर देंगे। उन्होंने एक ऐसी तारीख निर्धारित करने से भी इंकार कर दिया है, जिसके द्वारा वे प्रदान किए गए वित्त की समीक्षा करेंगे ताकि ये देखा जा सके कि वे पर्याप्त थे या नहीं, और उन्होंने किसी भी प्रस्ताव को भी रोक दिया है जिसके लिए उनके वित्तीय सहायता के आकलन की आवश्यकता होगी। वित्त मंत्रालय के पेपर के मुताबिक, विडंबना यह है कि, पूर्ण रूप से प्रदान किया गया वार्षिक $ 100 बिलियन का समर्थन भी पर्याप्त नहीं होगा। यह कहता है कि, "100 बिलियन डॉलर का यह लक्ष्य विकासशील देशों के लिए निर्धारित वास्तविक आवश्यकताओं के विपरीत कम है।" आगे यह भी कहा गया है कि यहां तक ​​कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु निकाय को प्रस्तुत अपनी जलवायु कार्य योजनाओं में उल्लिखित विकासशील देशों की सभी आवश्यकताओं में मामूली रुप से जोड़ने से भी लगभग 4.4 ट्रिलियन डॉलर आता है, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5 फीसदी था। सिंह कहते हैं, "वास्तविक कार्रवाई के लिए वास्तविक पैसे के बिना, लक्ष्य हासिल करना असंभव होगा।

चीजें कहां खड़ी हैं: वार्मिंग, भारत के लक्ष्य, और पूर्व में वृद्धि

पूर्व औद्योगिक काल (1800 से पहले) से धरती 1oC तक गर्म हुई है, और गर्मी में किसी भी अन्य तरह की वृद्धि से गंभीर प्रभाव होने की आशंका है- 70-90 फीसदी मूंगा चट्टानों की समाप्ति, गर्म दिनों की अधिक संख्या, महासागर के स्तर और तापमान में वृद्धि, गंभीर सूखे की आवृत्ति में वृद्धि, अधिक जंगली आग और चक्रवात तक का सामना करना पड़ सकता है। 1.5oC लक्ष्य को पूरा करने के लिए, दुनिया को 2030 तक अपने कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना होगा (2010 के स्तर के सापेक्ष)। लेकिन संयुक्त 58 फीसदी उत्सर्जन के साथ चार सबसे बड़े प्रदूषक ( चीन (27 फीसदी), संयुक्त राज्य (15 फीसदी), यूरोपीय संघ (10 फीसदी) और भारत (7 फीसदी) ) 2017 में 2.7 फीसदी की अनुमानित वृद्धि के साथ 2018 में कार्बन उत्सर्जन का रिकॉर्ड उच्च हो सकता है। भारत में अनुमान के मुताबिक 2018 में 6.3 फीसदी उत्सर्जन वृद्धि है, जो 2017 में 2 फीसदी से अधिक, चार प्रतिशत अंक ज्यादा है। पिछले 16 वर्षों से 2016 तक, भारत में कार्बनडाइऑक्साईड उत्सर्जन 6 फीसदी सालाना बढ़ा है, जो चीन के 3.2 फीसदी और दुनिया के औसत 1.3 फीसदी की तुलना में ज्यादा है। भारत अब अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका द्वारा संयुक्त रुप से किए जाने वाले उत्सर्जन की तुलना में ज्यादा कार्बनडाइऑक्साईड उत्सर्जित करता है, जैसा कि इकोनोमिस्ट अखबार ने 6 दिसंबर, 2018 के अंक में बताया है। इसके साथ ही, 2017 में, भारत में 2,726 मौतें थीं, जो मौसम से संबंधित घटनाओं से सीधे संबंधित थीं जैसे कि गर्म लहरें, तूफान, बाढ़ और सूखा। 4 दिसंबर, 2018 को जारी वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक 2019 के मुताबिक भारत को 13.8 बिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ है। भारत को सूची में 14 वां सबसे कमजोर राष्ट्र का स्थान मिला है, सूचि में प्वेर्टो रिको टॉप पर है, जिसे 2017 में तूफान मारिया ने तबाह कर दिया था। सूचकांक से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई भारत जैसे विकासशील देशों के लिए आर्थिक लाभ जोड़ती है ( भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का $ 8.4 ट्रिलियन डॉलर, लगभग तीन गुना बचा सकता है, अगर यह 2oC की बजाय वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5oC लक्ष्य तक सीमित करने के लिए कार्यवाही करता है। भारत ने पेरिस समझौते के तहत,गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से स्थापित बिजली की क्षमता का 40 फीसदी हासिल करने और अन्य कार्यों के साथ 2030 तक 33-35 फीसदी (2005 के स्तर से) तक जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता को कम करने का वादा किया था। आईईईएफए ने कहा कि इन दोनों लक्ष्यों को लगभग प्राप्त किया गया है।

भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों के प्रति महत्वपूर्ण प्रगति की है, इस हद तक कि यहां समय से एक दशक पहले लक्ष्य को पूरा करने की उम्मीद है।

देश के तीन प्रमुख जलवायु लक्ष्यों में से दो ( नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ती हिस्सेदारी और इसके सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता में कमी ) 2030 की समय सीमा से 10 साल पहले पहुंच जाएगा, जैसा कि 3 दिसंबर, 2018 को जारी यूएस स्थित थिंक टैंक, इन्स्टिटूट फॉर एनर्जी इकोनोमिक्स एंड फाइनेंनशियल एनालेसिस (आईईईएफए) द्वारा किए गए अनुमान से पता चलता है।

तीसरा बड़ा लक्ष्य - अतिरिक्त वनों और पेड़ों को लगाकर अतिरिक्त 2.5-3 बिलियन टन कार्बन सिंक (जलाशयों जो कार्बन डाइऑक्साइड जमा करते हैं और स्टोर करते हैं) बनाना अब भी दूर है।

पिछले दो वर्षों से 2017 तक, भारत के वन क्षेत्र में 1 फीसदी की वृद्धि हुई है। और यहां तक ​​कि यह आंकड़ा अतिरंजित है और इसमें गिरावट वाले वन और वृक्षारोपण शामिल हैं, FactChecker ने 4 जुलाई, 2018 की रिपोर्ट में बताया है। अभी तक प्राप्त न हो पाए इस लक्ष्य पर भारत को दोगुना काम करना चाहिए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं हो सकता है। एक स्वतंत्र वैज्ञानिक समूह, क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने कहा है कि भारत का मौजूदा लक्ष्य पर्याप्त महत्वाकांक्षी नहीं हैं, और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5oC तक सीमित करने के अनुकूल नहीं हैं।

( त्रिपाठी प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 8 दिसंबर, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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