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मध्यप्रदेश में एक बच्चे की ऊपरी बांह को मापता एक स्वास्थ्य कर्मचारी। बांह की मोटाई पोषण संबंधी स्थिति का सूचक है। एक नए अध्ययन के मुताबिक सुविधाहीन समुदाय की पृष्ठभूमि, अशिक्षित पिता और शौचालय तक पहुंच की कमी के कारण बच्चों के कुपोषित होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

शहरी भारत में अगर की कम वजन वाला बच्चा है तो उसके किसी अनुसूचित जाति या जनजाति जैसे वंचित समुदायों से संबंधित होने की अधिक संभावना है । ऐसे बच्चों के पिता के अशिक्षित होने की संभावना भी है। यह भी हो सकता है कि वह अन्य बच्चों की तुलना में बिना शौचालय वाले घर में रहता हो। यह सब एक नए अध्ययन में सामने आया है।

26 सितंबर, 2017 को ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन’ (एनआईएन) द्वारा जारी किए गए अध्ययन में पाया गया कि:

  • अनुसूचित जाति / जनजाति के पांच साल से कम उम्र के 32-33 फीसदी लड़के कम वजन के थे । सामान्य आबादी के लिए यह आंकड़े 21 फीसदी थे।
  • अशिक्षित पिता के साथ पांच वर्ष से कम उम्र के 36 फीसदी लड़के कम वजन वाले थे, जबकि कॉलेज-शिक्षित पिता के साथ बच्चों के लिए आंकड़े 16 फीसदी थे।
  • शौचालय तक पहुंच के बिना 50.2 फीसदी लड़के और 44.6 फीसदी लड़कियां स्टंड थे। जबकि शौचालयों तक पहुंच वाले लड़के और लड़कियों के लिए यह आंकड़े 26 फीसदी और 24 फीसदी थे।

भारत में 50 फीसदी बचपन में होने वाली मौत का कारण कुपोषण है। कम उम्र में कुपोषण का दीर्घकालिक परिणाम हो सकता है, जो व्यक्ति के संज्ञानात्मक, सामाजिक और भावनात्मक विकास को प्रभावित कर सकता है। इस बारे मे इंडियास्पेंड ने जुलाई 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

एक वैश्विक अध्ययन, एंड ऑफ चाइल्डहुड रिपोर्ट 2017 कहती है कि, “स्टंड बच्चे, जिनका कद उम्र के अनुसार सामान्य से काफी कम है, वे जीवन भर शिक्षा और काम में कम अवसर पाते हैं। उनकी बीमारी और रोग के शिकार होने की अधिक संभावनाएं होती हैं और उसकी जान भी जा सकती है। ” भारत में 10 में केवल एक बच्चे को पर्याप्त पोषण मिलता है। इस संबंध में हमने पहले भी विस्तार से बताया है।

एनआईएन की रिपोर्ट, भारत में शहरी जनसंख्या के आहार और पोषण संबंधी स्थिति और शहरी पुरुषों और महिलाओं में मोटापे की उच्चता, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हाइपरलिपिडाइमिया" का प्रचलन 2015-16 के दौरान राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) द्वारा किए गए शहरी पोषण सर्वेक्षण पर आधारित है।

सर्वेक्षण में 16 राज्यों और 20 शहरों में 1,000 से अधिक वार्डों के 52,577 घरों से 172,000 प्रश्नों को शामिल किया गया था।

क्यों पिछड़े समुदाय कुपोषित हैं?

अगस्त 2015 के अध्ययन के अनुसार, सामाजिक बहिष्कार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं और कार्यक्रमों तक पहुंचने से रोकता है और इससे उनकी स्वास्थ्य और पोषण संबंधी स्थिति बिगड़ती है।

जाति अनुसार शहरों में पांच वर्ष से कम उम्र के लड़कों और लड़कियों के बीच पोषण

Source: National Institute of Nutrition

एनआईएन के अध्ययन में पता चला है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों में जो अनुसूचित जातियों (दलितों) से संबंधित हैं, वे सबसे ज्यादा कुपोषित हैं। लड़कों में, 32.6 फीसदी दलित लड़के कम वजन वाले हैं, जबकि अनुसूचित जनजाति के 32.4 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं।

इसी प्रकार की प्रवृति लड़कियों के बीच भी देखी जा सकती है। दलित घरों में से 31.7 फीसदी लड़कियां कम वजन वाली हैं और इस संबंध में दूसरे पिछड़े वर्गों से 25.8 फीसदी लड़कियां कम वजन की हैं।

अनुसूचित जाति लड़कों (39.4 फीसदी) और लड़कियों (33.4 फीसदी) में स्टंटिंग भी ज्यादा तीव्र है। अनुसूचित जाति के परिवारों के बच्चों में वेस्टिंग या तीव्र कम वजन आम है। 18 फीसदी पीड़ित लड़के और लड़कियां इस पृष्ठभूमि से आते हैं।

पिता की साक्षरता एक महत्वपूर्ण कारक

यह स्थापित किया गया है कि साक्षर माता-पिता अपने बच्चों के पोषण संबंधी स्थिति में बड़ा अंतर कर सकते हैं। इस संबंध में लड़कों पर एक पिता की शिक्षा विशेष रूप से प्रभावित करती है, जैसा कि 2011 की ‘मेडिकल जर्नल ऑफ द आर्म्ड फोर्सेस’ द्वारा प्रकाशित जुलाई की एक अध्ययन कहती है।

पिता की शैक्षिक स्थिति के अनुसार शहरों में पांच वर्ष के बच्चों के लड़कों और लड़कियों के बीच पोषण

Source: National Institute of NutritionNote: Data not available for girls with a college-educated father.

आंकड़ों में पैतृक साक्षरता और बच्चों के पोषण संबंधी स्थिति के बीच सकारात्मक संबंध दिखता है। 35.8 फीसदी लड़के और 35.1 फीसदी कम वजन की लड़कियों के पिता अशिक्षित हैं। जबकि 6.3 फीसदी लड़के और 22.8 फीसदी कम वजन वाले लड़कियों के पिता के पास कॉलेज या उच्च माध्यमिक विद्यालय शिक्षा हैं। यह संबंध स्टंटिंग के मामले में भी स्पष्ट है।

पिता के बीच शिक्षा के बढ़ते स्तर का परिणाम निम्न कुपोषण दर के रुप मे होता है: 16.3 फीसदी कम वजन वाले बच्चों के पिता ग्रैजुएट हैं और 22.8 फीसदी कम वज़न वाली लड़कियों के पिता ने ग्रेड IX-XII तक अध्ययन किया है।

बेहतर स्वच्छता का मतलब बेहतर पोषण संबंधी स्थिति

विश्व बैंक के इस अध्ययन के मुताबिक स्वच्छता तक पहुंच दस्त के मामलों को कम कर देता है, जो बच्चों में कुपोषण का प्रमुख कारण है।

सेनेटरी लैट्रिन के उपयोग अनुसार शहरों में 5 वर्ष के उम्र के लड़कों और लड़कियों के बीच अल्पपोषण

Source: National Institute of Nutrition

आंकड़े बताते हैं कि 43 फीसदी लड़के और 40.5 फीसदी लड़कियां जो कम वजन वाले हैं उन तक शौचालयों की पहुंच नहीं है। शौचालयों तक पहुंच में सुधार प्रतिशत कम करती है। लड़कों के लिए 22.5 फीसदी और लड़कियों के लिए 21.8 फीसदी शौचालय की उपलब्धता के साथ स्टंटिंग भी गिरावट आई है।

स्वच्छ भारत अभियान, वर्ष 2014 में शुरू हुआ था। इस अभियान के तहत 2017-18 तक 3.5 मिलियन शौचालयों का निर्माण करने के लक्ष्य को पार करते हुए 4 मिलियन शौचालयों का निर्माण किया गया है। योजना के वेबसाइट के अनुसार ( 24 अक्टूबर, 2017 तक ) 223,550 समुदाय शौचालयों का भी निर्माण किया गया है, जबकि 2017-18 तक 204,000 का लक्ष्य तय किया गया था।

हालांकि, 2016 की स्वच्छता स्थिति रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों में केवल 36.8फीसदी वार्डों से समुचित और सार्वजनिक शौचालयों के लिए उचित तरल-अपशिष्ट निपटान प्रणाली की सूचना दी गई है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने 24 मई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है। हालांकि, शौचालयों का उपयोग और इसके आस-पास के आंकड़े अस्पष्ट हैं। इस बारे में इंडियास्पेंड ने 2 अक्टूबर, 2017 की रिपोर्ट में विस्तार से बताया है।

(सालवे विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 25 अक्टूबर 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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