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  • पिछले दश्क( 2001 से 2011 ) के दौरान बाल श्रम में 53 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। पांच से नौ वर्ष की आयु के बीच लगभग 240 फीसदी अधिक लड़कियों को काम करते पाया गया है। जबकि इसी उम्र के लड़कों के लिए आंकड़े 154 फीसदी दर्ज किए गए हैं।
  • देश के शहरी इलाकों में प्राथमिक स्कूलों की संख्या 0.2 मिलियन दर्ज की गई है जबकि ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्कूलों की संख्या 1.2 मिलियन है।ग्रामीण स्कूलों के मुकाबले शहरी स्कूलों में जहां गरीब बच्चों को शिक्षा देने की सुविधा है, अधिक भीड़ देखी गई है। जबकि शिक्षा परिणाम निराशाजनक ही है।

शहरी गरीब बच्चों पर लेख के दूसरे भाग में इंडियास्पेंड पर शिक्षा, बाल श्रम एवं अपराध पर चर्चा की जाएगी। इस लेख का पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं। पहले भाग में हमने प्राइसवॉटरहाउसकूपरस एवं सेव द चिल्ड्रेन द्वारा जारी किए गए रिपोर्ट के आधार पर शहरी गरीब बच्चों की बिगड़ती स्थिति पर चर्चा की थी।

भारत के ग्रामीण इलाकों के मुकाबले तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों में बेहतर शिक्षा सुविधा है। लेकिन यह सुविधा हर जगह समान रुप से वितरित नहीं है।

पीडब्लूसी एवं सेव द चिल्ड्रेन की रिपोर्ट के अनुसार शहरी स्कूल जहां गरीब बच्चों को शिक्षा देने की सुविधा है वहां बच्चों की औसत संख्या 229 है। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 118 है। अधिक बच्चों को समायोजित करने के लिए ग्रामीण इलाकों ( 2.03 फीसदी ) की तुलना में शहरी क्षेत्रों ( 11.05 फीसदी ) के स्कूल डबल शिफ्ट में अधिक काम कर रहे हैं। साथ ही शहर के गरीबों के स्कूलों में बच्चों के ड्रॉप आउट दर भी अधिक हैं।

प्राइमरी से उच्च प्राइमरी तक : ड्रॉप आउट की संख्या

Primary to Upper Primary: The Great Fall 2013-14 (Urban Retention Rate)
ClassesBoysGirlsTotal
Class I-V13.612.426
Class VI-VII6.96.313.3

Source: District Information System for Education, 2013-14, (Figures in million)

टेबल में दिखाए गए आंकड़ों से साफ है कि शहरी इलाकों में प्राथमिक से उच्च प्राथमिक में जाने वाले बच्चों की संख्या में आधे से अधिक की गिरावट होती है। बच्चों के स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण है विस्थापित होना। माता-पिता के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ता है।

शहरी गरीब बच्चों की शिक्षा परिणाम निराशाजनक

शहरी इलाकों के गरीबों से लिए छात्रों के शिक्षा परिणाम उतना ही निराशाजनक है जितना कि ग्रामीण स्कूल के बच्चों का।

साल 2013 की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट ( एएसईआर ) के अनुसार दिल्ली के सरकारी स्कूलों के लगभग 45 फीसदी कक्षा तीन से पांच तक के छात्र पहली क्लास की किताबें पढ़ने में असमर्थ पाए गए हैं। जबकि प्राइवेट स्कूलों में ऐसे ही बच्चों की संख्या 20 फीसदी दर्ज की गई है।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी स्कूल के 24 फीसदी कक्षा तीन से पांच तक के बच्चे गणीत में घटाव नहीं कर पाते देखे गए। प्राइवेट स्कूलों में ऐसे ही बच्चों की संख्या 56 फीसदी देखी गई है। कुछ ऐसे ही परिणाम एएसईआर द्वारा जयपुर, हैदराबाद, मैसूर एवं पटना में किए गए अध्ययन में भी सामने आए हैं।

सरकारी स्कूलों में सीखने की गति धीमी

Slower To Learn At State Schools
CitiesCould read Std 1 text (govt schools)Could read Std 1 text (pvt schools)Could do simple subtraction (govt schools)Could do simple subtraction (govt schools)
Delhi55%80%24%56%
Jaipur59%77%36%46%
Hyderabad34%40%38%41%
Mysore49%53%49%73%
Patna65%83%56%75%

Source: Annual Status of Education, 2013

पांच से नौ साल के बच्चों के रोज़गार में वृद्धि

चाइल्ड राइटस एंड यू ( क्राई ) संस्था द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार देश भर में बाल श्रम 2.2 फीसदी की दर से कम हो रहा और यदि यही रफ्तार चलती रही तो शायद बाल श्रम को जड़ से हटाने में सदियों लग जाएगें।

शहरी क्षेत्रों में इस दर से भी बाल श्रम हटाने में कितना वक्त लगेगा कहा नहीं जा सकता।

2001 से 2011 के दशक में देश के शहरी इलाकों में बाल श्रम में 53 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। यह आंकड़े 2011 की जनगणना की विश्लेषण करने के बाद क्राई संस्था द्वारा सामने आए हैं। इस अवधि के दौरान पांच से नौ साल के उम्र के बीच के बच्चों को अधिक काम करते देखा गया है। इसमें लड़कियों की संख्या में 240 फीसदी की वृद्धि देखी गई है जबकि लड़कों की संख्या 154 फीसदी दर्ज की गई है। रिपोर्ट के अनुसार इस वृद्धि के मुख्य कारण अधिक लोगों का विस्थापित होने के साथ साथ बच्चों की तस्करी होना भी है।

जैसा कि हमने इस लेख के पहले भाग में भी बताया है कि भारी संख्या में ग्रामीण इलाकों ( जहां 833 मिलियन रहते हैं ) से लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पिछले एक दश्क में शहरी आबादी में 91 मिलियन की वृद्धि हुई है। यह आंकड़े जर्मनी और इजीप्ट की आबादी से भी अधिक है। इस अवधि के दौरान शहरी इलाकों की आबादी में ग्रामीण इलाकों के मुकाबले 2.5 अधिक तेजी से वृद्धि हुई है। बच्चों की संख्या में वृद्धि के साथ साथ उनके काम और शोषण के अवसर में भी इज़ाफा हुआ है।

ग्रामीण इलाकों से आती हैं लड़कियां संपन्न शहरों में

आज की तारीख में लगभग हर परिवार में घरेलू नौकरानियां होती हैं और शहरों की बढ़ती समृद्धि के साथ इनकी मांग बढ़ती ही जा रही है। बच्चों की तस्करी पर चाइल्ड लाइन की रिपोर्ट कहती है“घरेलू नौकरानियों की बढ़ती मांग के कारण पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं झारखंड के गांव से बच्चों की तस्करी के मामलों में वृद्धि देखी गई है। लड़कियां पहले प्लेसमेंट एजेंसी लाई जाती हैं और वहां से घरों में भेज दी जाती हैं”।

शहरी एवं ग्रामीण विभाजन के कारण किशोरी बच्चियों के लिए तस्करी का खतरा, घरेलू काम , बाल श्रम और यौन कार्य में अधिक बढ़ गया है।

एशिया फाउंडेशन के लिए स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की 2010 रिपोर्ट के मुताबिक “आर्थिक विकास के निम्न स्तर और उच्च स्तर दोनों ही अवैध व्यापार को प्रोत्साहित करती है, यानि राज्य विकास के साथ श्रोत से गंतव्य स्थान मेंपरिवर्तित हो जाती है”।

( मोटे तौर पर गिना हुआ) शहरी क्षेत्र के गरीब बच्चे

शहरी गरीबों के बच्चे –पीडब्यूसी की रिपोर्ट के अनुसार 377 मिलियन भारतियों में से 32 फीसदी बच्चे 18 वर्ष से कम उम्र के हैं। इसके अलावा 8 मिलियन से अधिक बच्चे छह वर्ष से कम बच्चे 49,000 झुग्गी-बस्तियों में रहते है। इन आंकड़ों के अलावा कई बच्चों हैं जो गरीबी का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनकी गिनती अधिकारिक रुप से गरीबों में नहीं होती क्योंकि हर रोज़ की आय 47 रुपए से अधिक है। 1992 की यूनिसेफ रिपोर्ट के अनुसार 15 से 18 मिलियन बच्चे झुग्गियों में रहते हैं। इन आंकड़ों से साफ है कि शहरी गरीब बच्चों की गिनती स्पष्ट नहीं है। रिपोर्ट में जिन 49,000 झुग्गियों का ज़िक्र किया गया है वह अधिकारिक रुप से गिने गए हैं। कई हज़ार बच्चे ऐसे हैं जिनकी गिनती नहीं की गई है। 2011 की जनगणना के अनुसार झुग्गी बस्ती में करीब 13.7 मिलियन लोग रहते हैं।

इस लेख का पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं

( सालवे एवं तिवारी इंडियास्पेंड के साथ नीति विश्लेषक हैं। )

( यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 27 जुलाई 15 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है। )


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