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52 वर्षीय महावीर मल्हार अपनी पत्नी के इलाज के लिए झारखंड से मुंबई आए हैं। मल्हार की पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं। झारखंड से मल्हार के बेटे पैसे नहीं भेज पा रहे हैं, क्योंकि हर जगह बैंकों पर लंबी कतारें लगी हुई हैं। इस जोड़े के पास चाय पीने या खाना खाने के भी पैसे नहीं हैं। किसी तरह अस्पताल के चैरटेबल रसोई के भरोसे अपना गुजारा कर रहे हैं। सरकारी अस्पतालों के विपरीत, निजी अस्पतालों में पुराने 500 और 1,000 रुपए के नोट स्वीकार नहीं किए जा रहे। इसका असर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 58 फीसदी भारतीयों पर पड़ रहा है, जो सरकारी अस्पताल की बजाय निजी स्वास्थ्य केंद्र जाना पसंद करते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 8 नवंबर, 2016 को भारत की 86 फीसदी मुद्राओं को अमान्य घोषित करने के बाद निजी अस्पतालों ने 500 और 1,000 रुपए के नोट स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। इस कारण अस्पतालों में मरने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है।

सरकारी अस्पतालों के विपरीत, निजी अस्पतालों को पुराने 500 और 1,000 रुपए स्वीकार करने की अनुमति नहीं है। इसका असर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 58 फीसदी भारतीयों पर पड़ रहा है, जो सरकारी अस्पताल की बजाय निजी स्वास्थ्य केंद्र जाना पसंद करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के आंकड़ों के अनुसार, शहरी क्षेत्रों के लिए ये आंकड़े 68 फीसदी हैं।

हाल ही में दिल्ली से सटे नोएडा में, केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा के कैलाश अस्पताल में कथित तौर पर एक बच्चे के इलाज के लिए 10,000 रुपए एडवांस में मांगे गए। अस्पताल ने पुराने नोट लेने से मना कर दिया। इन सबके बीच बच्चे की मौत हो गई।

विशाखापत्तनम में नए नोट न होने के कारण एक मां-बाप अपने 18 महीने के बच्चे के लिए दवा नहीं खरीद पाए, जिससे उसकी मौत हो गई। ऐसी ही एक घटना उत्तर प्रदेश के मैनपुरी की है। निजी अस्पताल में बच्चे का इलाज इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि उनके पास पुराने नोट थे।

कई अनुरोधों के बावजूद, 17 नवंबर, 2016 को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि निजी अस्पतालों में पुराने नोटों को स्वीकार नहीं किए जाएंगे, क्योंकि इससे पुराने नोटों का दुरुपयोग करने की संभावना ज्यादा बढ़ेगी।

जो लोग इलाज के लिए अपने राज्य से दूसरे राज्य गए हैं वे इस कदम से पूरी तरह अनजान थे और इस समय उन्हें नकदी की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है।

झारखंड से आई कैंसर की मरीज की जिंदगी और मुश्किल हुई

इंडियास्पेंड ने झारखंड के झरिया के रहने वाले महावीर मल्हार और उनकी पत्नी से मुलाकात की। मल्हार की पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं और फिलहाल दोनों मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर रहे हैं। पत्नी के इलाज के लिए मुबंई आने से पहले मल्हार हर रोज मजदूरी पर 200 रुपए तक कमा लेते थे। लेकिन अब उसके पास इस्तेमाल करने लायक रुपए नहीं हैं।

मल्हार कहते हैं, “हमारे पास खाना, यहां तक कि चाय खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं।” हालांकि टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज मुफ्त होता है और अस्पताल भी पुराने नोट स्वीकार कर रहे हैं लेकिन मुंबई में इस जोड़े के लिए रहना ही बहुत महंगा है। मल्हार के बेटे भी मजदूरी करते हैं। नोटबंदी के बाद उनके बेटे उन्हें पैसे नहीं भेज पा रहे हैं, क्योंकि स्थानीय बैंकों पर भारी भीड़ है।

मल्हार कहते हैं, “वो भी दिहाड़ी मजदूर हैं। उनके लिए लंबी कतार में घंटों खड़े रहने का मतलब उनकी कमाई में नुकसान होना है।” मल्हार दंपति अब अस्पताल और धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा दिए जाने वाले मुफ्त भोजन पर निर्भर हैं।

सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पताल में आठ गुना अधिक खर्च करते हैं भारतीय

जैसा कि हमने बताया है,आधी से अधिक आबादी निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। हालांकि, निजी स्वास्थ्य सेवाओं का खर्च 20 फीसदी गरीब भारतीयों पर उनकी औसत मासिक खर्च से 15 गुना ज्यादा पड़ता है। यह जानकारी 2014 की इस एनएसएसओ सर्वेक्षण में सामने आई है।

निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत की निर्भरता के अन्य चिन्ह:

  • 86 फीसदी ग्रामीण आबादी यानी लगभग 71.7 करोड़ और 82 फीसदी शहरी आबादी यानी लगभग 30.9 करोड़ लोग स्वास्थ्य व्यय सहायता के बिना जीते हैं। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने जुलाई 2015 में विस्तार से बताया है।
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (एनएचए) के वर्ष 2013-14 के आंकड़ों पर द हिंदू द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार, सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों पर भारतीय आठ गुना ज्यादा खर्च करते हैं। रिपोर्ट का अनुमान है कि सरकारी अस्पतालों में परिवारों ने 8193 करोड़ रुपए खर्च किए हैं,जबकि 62,628 करोड़ रुपए का आठवां हिस्सा निजी अस्पतालों पर खर्च किया गया है।
  • एनएचए के आंकड़ों के अनुसार, भारत में स्वास्थ्य व्यय का 69 फीसदी निजी ( आउट ऑफ पॉकेट) है। ये आंकड़े विश्व में सबसे ज्यादा हैं। इलाज में व्यय का वह हिस्सा, जो तीसरे पक्ष यानी बीमा या सरकार सब्सिडी से अलग मरीज स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के लिए खुद जो भुगतान करते हैं, ‘आउट ऑफ पॉकेट’ खर्च कहा जाता है।
  • नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2015 की रिपोर्ट कहती है कि देश में 9,30,000 डॉक्टरों में से सरकार के लिए केवल 1,06,000 डॉक्टर काम करते हैं। इसका मतलब है कि प्रति 11,528 लोगों के लिए एक सरकारी डॉक्टर उपलब्ध है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने नवंबर 2016 में विस्तार से बताया है।
  • 2015 की इस ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, समुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में करीब 81 फीसदी स्वीकृत विशेषज्ञ चिकित्सा पेशेवरों के पद रिक्त हैं। इसलिए, निजी अस्पतालों में पुराने नोटों को स्वीकार नहीं करने के फैसले से भारतीयों के एक बड़े वर्ग के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच प्रतिबंधित होगी।

डिजीटल दैनिक ‘स्क्रॉल’ ने 21 नवंबर, 2016 को इस संबंध में विस्तार से बताया है।

नोटबंदी के बाद, महाराष्ट्र सरकार के टोल फ्री हेल्पलाइन 108 (24 × 7 आपातकालीन एम्बुलेंस सेवा नंबर) ने भी निजी अस्पतालों द्वारा चेक स्वीकार न करने के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की है। ‘स्क्रॉल’ ने दवाएं न खरीद पाने या निजी अस्पतालों द्वारा 500 या 1,000 रुपए के नोट स्वीकार न करने से गुस्साए कॉलर के संबंध में भी रिपोर्ट किया है।

निजी अस्पतालों में मरीजो की संख्या में गिरावट

शहरी केंद्रों में निजी चिकित्सकों की मानें तो नोटबंदी के बाद लोगों के लिए नकदी की जरूरत प्राथमिकता बन गई है। कई परिवारों के लिए स्वास्थ्य के मुद्दे प्राथमिकता सूची में नीचे चले गए हैं।

मुंबई के ‘आस्था हेल्थकेयर’ में बेरिएट्रिक सर्जन मनीष मोटवानी कहते हैं, “हमारे ओपीडी विभाग में आने वाले रोगियों की संख्या में 25 -30 फीसदी की गिरावट हुई है।”

मुंबई के डायबिटोलोजिस्ट, प्रदीप गाडगे कहते हैं, “नोटबंदी के अगले दिन मेरे ओपीडी में आने वाले मरीजो की संख्या में 40 फीसदी की गिरावट हुई थी। अब यह 15 से 20 फीसदी तक पहुंची है। लेकिन मेरे कुछ अन्य सहयोगियों ने मरीजों के अस्पताल में दाखिल की संख्या में 50 फीसदी की गिरावट देखी है।”

सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या की वृद्धि हुई है, जहां इलाज काफी हद तक मुफ्त या नाम मात्र की फीस पर होता है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में एक छोटे शहर पल्लम के चिकित्सा अधिकारी अमोल भुसारे कहते हैं, “नोटबंदी के बाद हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में रोगियों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।” भुसारे बताते हैं कि उनके दो मरीज पास के नांदेड़ शहर में एक सीटी स्कैन के लिए एक निजी डायग्नोस्टिक सेंटर गए थे। उन्हें पुराने नोट के कारण वापस कर दिया गया था।

17 नवंबर, 2016 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली से अनुरोध किया कि 30 नवंबर, 2016 तक निजी अस्पतालों और दवा की दुकानों पर 500 और 1,000 रुपए के पुराने नोट चलने की अनुमति दी जाए।

यादव ने कहा था, “500 और 1,000 रुपए के नोटों को जल्दबाजी में प्रतिबंधित कर दिया गया है। जिनका इलाज अस्पतालों और नर्सिंग होम में चल रहा है, उन्हें भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए, 30 नवंबर तक अस्पतालों और नर्सिंग होम में 500 और 1,000 रुपए के नोट चलने देने की अनुमति देने की अनुरोध करता हूं।”

कुछ अस्पतालों ने भी पुराने नोट स्वीकार करने की वकालत की है। मुंबई के भाटिया अस्पताल ने प्रारंभिक नोटबंदी की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी। भाटिया अस्पताल के सीईओ. राजीव बौधानकर कहते हैं, “हम मुंबई के सबसे पुराने चैरिटेबल अस्पतालों में से एक हैं। और हमने यह अनुरोध किया कि कम से कम चैरिटोबल अस्पतालों को पुराने नोट स्वीकार करने की अनुमति दी जाए।” उन्होंने कहा कि किसी भी मरीज को वापस नहीं लौटाया गया है। वे लोग चेक जैसे अन्य माध्यम के जरिए भुगतान स्वीकार कर रहे हैं। हालांकि तीन चेक बाउंस भी हुए हैं।

(साहा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह ससेक्स विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ संकाय से वर्ष 2016-17 के लिए जेंडर एवं डिवलपमेंट के लिए एमए के अभ्यर्थी हैं। यदवार प्रिंसिपल संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 28 नवंबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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