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जहां तक शहरी श्रमिक शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का सवाल है, पिछले एक दशक में भारत का स्थान नीचे की तरफ हीरहा है। लेकिन अच्छी खबर यह है कि पिछले दो दश्क के आंकड़ों के विश्लेषण के बाद हमने देखा कि यह वक्त बदलाव का है। महिलाएं ( विशेष कर युवा लड़कियां ) अब बड़ी संख्या में शहरी श्रमिक शक्ति में हिस्सा ले रहीं हैं या हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं।

लेकिन बुरी खबर यह है कि दुर्भाग्यवश अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में कम तनख्वाह एवं बिना किसी काम की सुरक्षा के साथ महिलाएं छोटे मोटे काम ही कर पा रही है। इसके अलावा, उच्च शिक्षित युवा महिलाओं के लिए शहरी इलाकों में काम करने के सीमित विकल्प ही दिखाई देते हैं।

60 फीसदी से भी अधिक महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा हैं।अन्य जनसांख्यिकीय समूहों की तुलना में शहरी महिलाओं में बेरोज़गारी दर सबसे अधिक पाई गई है। 15.7 फीसदी बेरोज़गारी दर के साथ स्नातक एवं उच्च डीग्रियां हासिल करने के बावजूद शहरी महिलाओं में बेरोज़गारी सबसे अधिक देखी गई है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ( आईएलओ) के वैश्विक रोजगार के प्रवृतियों पर 2012 की रिपोर्ट के अनुसार 131 देशों में भारत की शहरी महिला श्रमिक शक्ति दर ( डब्लूपीआर ) 15 फीसदी के साथ दुनिया भर में नीचे से ग्यारवें स्थान पर है। हालांकि साल 1991 के बाद से 2 फीसदी ग्रामीण महिलाओं एवं 3 फीसदी शहरी पुरुष की तुलना में सालाना भागीदरी दर में 5.6 फीसदी की वृद्धि के साथ बदलाव होने की संभावना दिखाई देती है।

श्रम शक्ति भागीदारी में बदलाव - महिला जनसांख्यिकीय लाभांश

अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत की महिलाओं की वेतन रोजगार में हिस्सेदारी कम देखी गई है। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार साल 2011 में भारत में 15 वर्ष के अधिक आयु की महिलाओं का डब्लूपीआर 30 फीसदी से कम दर्ज किया गया है। जबकि ब्राजील एवं चीन में इन्हीं उम्र की महिलाओं का डब्लूपीआर 60 फीसदी एवं 67 फीसदी देखा गया है।

साल 2011 की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ऑर्गेनाइजेशन डेटा ( एनएसएसओ) के अनुसार महिला डब्लूपीआर विशेष कर शहरी क्षेत्रों में कम देखा गया है। जैसा कि नीचे दिखाए गए टेबल से साफ है पिछले दो दश्कों में शहरी इलाकों का डब्लूपीआर 15 फीसदी के करीब रहा है। इसी दौरान ग्रामीण महिलाओं का डब्लूपीआर 25 फीसदी और 30 फीसदी के बीच विविध रहा है। इसके विपरीत शहरी पुरुष भागीदारी दर 53 फीसदी के करीब देखा गया है।

लिंग एवं निवास स्थान के आधार पर श्रमिक संख्या में भागीदारी

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Source: Employment and Unemployment Survey, NSSO (various rounds)

जबकि भारत में हुई कई अध्ययन महिलाओं की कम डब्लूपीआर की ओर इशारा करती हैं हम यह स्पष्ट करेंगे कि किस प्रकार शहरी महिलाएं श्रमिक शक्ति में अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए तैयार हैं।

2011 की जनगणना के मुताबकि साल 1991 से 2011 के बीच कामकाजी महिलाओं एवं काम की तलाश में महिलाओं की संख्या में 14.4 फीसदी सलाना की वृद्धि दर्ज की गई है। जबकि इसी अवधि के दौरान शहरी महिला जनसंख्या में केवल 4.5 फीसदी की वृद्धि पाई गई है।

साल 2011 में श्रमिक शक्ति में कुल महिलाओं की भागीदारी तीन गुना से भी अधिक बढ़ी है। 1991 में कुल कामकाजी महिलाओं की संख्या 9 मिलियन दर्ज की गई थी जबकि 2011 में ऐसी ही महिलाओं की संख्या 28 मिलियन दर्ज की गई है। वहीं काम के लिए तलाश करती महिलाओं या काम के लिए तैयार महिलाओं की संख्या में आठ गुना अधिक वृद्धि दर्ज की गई है। 1991 में काम के लिए तैयार महिलाओं की संख्या 1.8 मिलियन थी जबकि 2011 में यह आंकड़े बढ़ कर 15.5 मिलियन देखे गए हैं।

इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि साल 2011 में श्रमिकशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में 55 फीसदी से अधिक की वृद्धि हो सकती थी यदि इन 15.5 मिलियन महिलाओं को रोज़गार मिल जाता।

पुरुषों की श्रमिक शक्तिसे तुलना की जाए तो यदि 14 मिलियन बेरोज़गार पुरुषों को काम मिल पाता तो उनके श्रमिक संख्या में 13 फीसदी की वृद्धि हो पाती। यह साफ तौर पर देखा जा सकता है किसाल 1991 से महिलाओं की श्रमिक शक्ति में बेहतर भागीदारी का संकेत है।

पुरुष एवं महिला जनसंख्या की संरचना, 2011

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Source: Census of India, 2011

शहरी महिला जनसंख्या की संरचना, 2011 ( 20 से 40 वर्ष की आयु )

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Source: Census of India, 2011

एनएसएसओ द्वारा आयोजित रोजगार तथा बेरोजगारी सर्वेक्षण 2011 से यह स्पष्ट होता है कि 15 से 59 वर्ष की आयु के बीच की शहरी महिलाओं में सबसे अधिक बेरोज़गारी दर, 15.7 फीसदी पाई गई है। जबकि इसी उम्र के पुरुषों की बेरोज़गारी दर 9 फीसदी दर्ज की गई है।

यह आंकड़े इस बात का साफ संकेत है कि श्रमजीवी रोज़गार में प्रवेश के लिए अधिक से अधिक संख्या में शहरी महिलाएं तैयार हैं लेकिन मौजूदा समय में पर्याप्त और योग्यता अनुसार अवसर खोजने में असमर्थ हैं।

यदि यही व्यवस्था जारी रही तो महिलाएं पूरी तरह से श्रम शक्ति से बाहर हो जाने का रास्ता चुन सकती हैं या फिर ऐसी नौकरियां चुन पाएंगी जो उनके कौशल एवं योग्यता के अनुरुप नहीं है।

उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं में बेराज़गारी सबसे अधिक

13.9 फीसदी दर के साथ देश में शहरी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं में बेरोज़गारी सबसे अधिक दर्ज की गई है। शिक्षित महिलाओं की इस श्रेणी में भी 15 से 29 वर्ष के बीच की महिलाएं सबसे अधिक बेरोज़गार देखी गई हैं। इस उम्र की महिलाओं में बेरोज़गारी दर 23.4 फीसदी दर्ज की गई है। यह आंकड़े शहरी भारत की शिक्षित युवा महिलाओं की गंभीर समस्या को दर्शाता है।

इस मुद्दे पर की गई कुछ अध्ययन के मुताबिक महिलाओं के स्वेचछा से काम न करने का कारण योग्यता अनुसार काम न मिल पाना हो सकता है।

नीचे दिया गया ग्राफ शहरी महिलाओं की शिक्षा अनुसार श्रम शक्ति को दर्शाता है। ‘निरक्षर’ एवं ‘स्नातक’ श्रेणी में काम करने वाली महिलाओं की संख्या सबसे अधिक पाई गई है।

शिक्षा अनुसार शहरी महिलाओं की श्रम शक्ति, 2011-12

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Source: Employment and Unemployment Survey, NSSO 2011-12

उपर दिखाए गए ग्राफ में बिंदु रेखा 15 वर्ष की आयु से उपर की महिलाओं की बेरोज़गारी दर दर्शाती है।

आंकड़ों से स्पष्ट है कि शहरी शिक्षित महिलाएं काम करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं लेकिन अपनी योग्यता अनुसार उन्हें काम नहीं मिल पा रहा है।

संभवत: कौशल प्रशिक्षण एवं अद्योगिकरण एजेंडा इस जनसांख्यिकीयसमूह की बेरोज़गारी की समस्या का हल निकालने में सक्षम नहीं है।

महिलाओं के काम में मामूली वृद्धि

निरक्षर एवं कम पढ़ी-लिखी महिलाओं की बेरोज़गारी दर बहुत कम है। इसकी एक वजह शायद महिलाओं का अनऔपचारिक क्षेत्रों में जैसे कि सेवाएं, थोक व्यवसाय या भवन निर्माण में काम करना है जहां कम कुशलता की ज़रुरत होती है एवं पैसे भी कम ही दिए जाते है।

एनएसएसओ की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 20 फीसदी शहरी महिलाएं घरेलू सहायिका,सफाई कर्मचारी, विक्रेता ,फेरी वाले एवं दुकानों में सेल्सगर्ल की रुप में काम करती हैं। वहीं 43 फीसदी महिलाए स्वनियोजित कार्य करती हैं जबकि इतनी हीं महिलाएं मासिक वेतन पर काम करती हैं। 46 फीसदी मासिक वेतन पर काम करने शहरी महिलाओं के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा एवं रोज़गार लाभ तय नहीं है। जबकि 56 फीसदी महिलाओं के पास लिखित में जॉब कॉंट्रैक्ट नहीं है।

कौशल विकास प्रोग्राम, जैसे कि व्यवसायिक प्रशिक्षण एवं व्यवसाय विकास महिलाओं की श्रमशक्ति वृद्धि में कुछ हद तक सहायक होने के साथ साथ महिलाओं को उनकी योग्यता अनुसार काम दिलाने में भी मददगार साबित हो सकती है। हालांकि कौशल प्रशिक्षण रोज़गार दर सुधारने का केवल एक कारक है। ऐसे की कई दूसरे कारक जैसे कि समाजिक एवं लिंग मानदंडों में सुधार, शिक्षा स्तर में सुधार, क्रेडिट तक पहुंच, में सुधार के ज़रिए शहरी महिलाओं की रोज़गार दर को बेहतर बनाया जा कता है।

केवल मेक इन इंडिया एवं स्किल इन इंडिया से नहीं बनेगी बात

पिछले दो दश्क में उपने अकुशल श्रमशक्ति के लिए पर्याप्त एवं सुरक्षित रोज़गार उपलब्ध कराए बगैर भारत की अर्थव्यवस्था 2 ट्रिलीयन डॉलर तक पहुंच गई है। हालांकि मौजूदा सरकार इस गंभीर समस्या पर ध्यान देने के लिए दो महत्वपूर्णकदम उठाए हैं।पहला यह कि अद्योगिकी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए मेक इन इंडिया प्रोग्राम चलाया गया। दूसरा, सरकार ने स्किल इन इंडिया मिशन की भी शुरुआत की है। इस मिशन के तहत अगले सात सालों में 400 मिलियन कर्चारियों को प्रशिक्षित करने का उदेश्य रखा गया है।

सरकार द्वारा चलाए गए कैंपेन से उम्मीद है कि लोगों के लिए अधिक और बेहतर रोज़गार के विकल्प उपलब्ध होंगे।

उपर दिए गए आंकड़ों हमें इस सवाल के पूर्वानुमान की अनुमति देने के साथ भारत के रोजगार के एजेंडे के लिए प्राथमिकताओं को भीसंकेंद्रित करते हैं। मौजूदा हालात की नीतियां श्रम शक्ति की संरचना को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, विशेष कर महिलाओं के लिए जो भारत की संभावित श्रम शक्ति में आधे की हिस्सेदार हैं।

भारत के विकास की स्थिरता और समग्रता सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं के काम के बदलते स्वरूप पर ध्यानकेंद्रितकरनाआवश्यकहै।

( आनंद एवं कोडुगंटी बंग्लुरु के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन सेटलमेंट में शहरी आर्थिक विकास मुद्दों पर काम करते हैं )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 30 जुलाई 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है|

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