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1.कृषि – 600 मिलियन भारतीयों की कृषि पर निर्भरता एवं 0.2 फीसदी विकास दर के साथ कृषि का संकट बरकरार है।

एक सरकारी अनुमान के अनुसार, वर्ष 2015 की शुरुआत बेमौसम बरसात से शुरु हुई जिससे 18 मिलियन हेक्टर खेतों की फसलें बर्बाद हुई हैं ( करीब 30 फीसदी रबी फसलें )।

दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या देश भर में चर्चा का विषय बना रहा है। भारत ने पिछले वित्त वर्ष की अंतिम चौथाई में 0.2 फीसदी की कृषि विकास दर दर्ज की है।

कृषि क्षत्र, जिस पर करीब 600 मिलियन भारतीय निर्भर हैं, आज भी भारी संकट का सामना कर रहा है। पिछले 20 वर्षों में, कृषि क्षेत्र में पांच वर्षों के दौरान नकारात्मक वृद्धि का अनुभव किया था; इनमें से तीन वर्ष सूखा ग्रसित थे।

जब भारत खाद्य असुरक्षा और कुपोषण से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है, ऐसे समय में कृषि क्षेत्र में कई सुधारों की आवश्यकता है।

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस की एक कॉलम में अर्थशास्त्री अजय छिब्बर लिखते हैं, “सरकार को विश्व व्यापार संगठन की बाली पैकेज द्वारा एक अनूठा अवसर मिला था (पीडीएस - सार्वजनिक वितरण प्रणाली और घरेलू खाद्य सब्सिडी व्यवस्था में सुधार के लिए ) लेकिन इसमें उन योजनाओं को हटाया और भारतीय खाद्य निगम के सुधार पर शांता कुमार ने समिति की रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया है एवं विकृत उर्वरक सब्सिडी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।”

2. 640 जिलों में से 302 जिलों में सूखे जैसी स्थिति ;क्या बदल रही है भारत की जलवायु ?

भारत के 29 राज्यों में से नौ राज्य, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र , बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में सूखा घोषित किया गया है एवं केंद्रीय सहायता के रूप में कम से कम 20,000 करोड़ रुपयों की मांग की गई है।

देश के 640 ज़िलों में से कम से कम 302 ज़िलों में सूखे जैसी स्थिति बनी हुई है।

जलवायु परिवर्तन से इसका मजबूत संबंध है। भारतीय और वैश्विक अध्ययन पर इंडियास्पेंड द्वारा अप्रैल में की गई समीक्षा के अनुसार मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा ( मानसून प्रणाली का मूल ) हो रही है एवं मध्यम वर्षा कम हो रही है (स्थानीय और विश्व मौसम में जटिल परिवर्तन के परिणाम के रूप में।)

मवेशी, फसलों पर मौसम का प्रभाव

केवल 2014-15 में 92,180 मवेशी खोए, 725,390 मकान क्षतिग्रस्त एवं 2.7 मिलियन हेक्टर फसल भूमि प्रभावित रहे हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा इस रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक प्रमुख फसलों की पैदावार, जैसे कि मक्का और गेहूं में 18 फीसदी एवं 6 फीसदी की गिरावट हो सकती है।

3. 40 मिलियन भारतीय बच्चे अविकसित हैं

अन्य देशों के मुकाबले भारत में अविकसित ( औसत कद से कम ) बच्चों की संख्या सबसे अधिक पाई गई है। हालांकि कुछ सुधार अवश्य हुए हैं लेकिन यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में करीब 40 मिलियन बच्चे, यानि की कुल बच्चों में से 38.7 फीसदी, अविकसित हैं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बद्तर एवं बेहतर राज्यों में पोषण असमानताओं को चिह्नित किया गया है। उदाहरण के लिए, झारखंड में पांच वर्ष से कम उम्र के 47 फीसदी बच्चे अविकसित पाए गए हैं जबकि केरल में ऐसे बच्चों के आंकड़े 19 फीसदी है।

झारखंड में कम से कम 42.1 फीसदी बच्चे सामान्य वज़न से नीचे पाए गए हैं जो 45.3 फीसदी के साथ तिमोर लेस्ते ( पूर्वी तिमोर ) के बराबर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार इन आंकड़ों से पता चलता है कि झारखंड की स्थिति कई देशों जैसे कि 35.5 फीसदी के साथ यमन एवं 37.9 फीसदी के साथ नाइजर से बद्तर है।

बद्तर राज्य - पांच साल की उम्र के तहत कम वजन वाले बच्चे

बेहतर राज्य - पांच साल की उम्र के तहत कम वजन वाले बच्चे

अविकसित बच्चों की अधिक संख्या के साथ बद्तर राज्यों को 'उच्च ध्यान केंद्रित राज्य' के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है जिन्हें कुपोषण को कम करने के लिए केंद्र सरकार से विशेष धन प्राप्त होता है।

बेहतर राज्यों में मणिपुर में कम वजन वाले बच्चों की संख्या सबसे कम (14 फीसदी) है। यह आंकड़े भूटान (12 फीसदी) और मॉरीशस (13 फीसदी) जैसे देशों के करीब है।

जबकि पहले की तुलना में अधिक बच्चों को प्रतिरक्षित किया गया है, जुलाई में जारी बच्चे पर रैपिड सर्वे के परिणाम में राज्यों के बीच व्यापक असमानता दिखाया गया है।

उद्हारण के लिए, टीकाकरण आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में 56 फीसदी बच्चों को प्रतिरक्षित किया गया है, जोकि राष्ट्रीय औसत के 65.3 फीसदी से नीचे हैं। बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड को "पिछड़े " के रूप में वर्णित किया गया है।

4. भारत के 282 मिलियन लोग अशिक्षित - इंडोनेशिया की आबादी से भी अधिक

इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में बताया है कि 282 मिलियन लोग निरक्षर हैं।

2015-16 बजट में शिक्षा पर 16 फीसदी खर्च कम कर दिया गया है। 2014-15 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए आवंटन कुल खर्च का 4.6 फीसदी थी ( 2015-16 के केंद्रीय बजट में यह 3.9 फीसदी कम किया गया है )।

हस्तांतरण सुधार के लिए कर राजस्व के विभाज्य पूल के राज्यों की हिस्सेदारी में 32 फीसदी से बढ़ा कर 42 फीसदी की गई है लेकिन सामाजिक क्षेत्र के आवंटन में कटौती की गई है। इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार कटौती से स्वास्थ्य एवं शिक्षा क्षेत्र पर प्रभाव पड़ेगा।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2010 में विश्व भर में शिक्षा पर औसत खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 4.9 फीसदी दर्ज की गई थी जबकि भारत में केवल 3.3 फीसदी खर्च की गई है।

स्कूल छोड़े गए बच्चों के आंकड़े से पता चलता है कि करीब 18 फीसदी बच्चे जो स्कूल गए वे शिक्षा के माध्यमिक स्तर (संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार ) को पूरा करने में सक्षम नहीं थे।

नामांकन और स्कूल छोड़ने की दर 2013-14

Note: GER, or Gross Enrolment Ratio, is the total enrolment, expressed as a percentage of eligible school-going age population for the level of education. The dropout rate is calculated by subtracting the sum of promotion and repetition from 100 in every grade.

जबकि प्रवेश स्तर पर बच्चों के लिए पूर्ण नामांकन सुनिश्चित करने में सरकार सफल रही है, माध्यमिक स्तर को पूरा करने से पहले ड्रॉप आउट दर 18 फीसदी रहे हैं।

शिक्षकों का स्तर औसत से नीचे हैं एवं वे अक्सर अनुपस्थित रहते हैं जबकि स्कूल खर्च का 80 फीसदी हिस्सा शिक्षकों के वेतन पर किया जाता है। इंडियास्पेंड ने पहले भी बताया है कि इस साल के शुरुआत में, महाराष्ट्र में, 99 फीसदी प्राथमिक स्कूल के शिक्षक, वार्षिक मूल्यांकन परीक्षा में असफल रहे हैं। पिछले एक दशक में 94 बिलियन डॉलर शिक्षकों की परिक्षणों पर खर्च करने के बावजूद पांच में से एक शिक्षक भी पर्याप्त रुप से परिक्षित नहीं है।

5. व्यापार और विकास दर के पूर्वानुमान में गिरावट

बुरी खबर : व्यापार में गिरावट हुई है। अच्छी खबर : थोक मुद्रास्फीति नीचे है; एक और बुरी खबर - यह भारतीय उपभोक्ताओं को पारित नहीं हो रही है यानि कि कीमत नीचे नहीं आए हैं।

जबकि भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के ट्रैक पर है लेकिन विकास दर के पूर्वानुमान में गिरावट हुई है और इस तरह के मुद्रास्फीति के रूप में महत्वपूर्ण चिंता का विषय रही है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी रिपोर्ट में बताया है कि खाद्य प्रधान, दाल की कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति रहेगा।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) और थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) दो सूचकांक हैं जो अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के आकार को निर्धारित करते हैं।

थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) (उत्पादन की कीमतों का सूचक है और जिसमें पेट्रोलियम , लोहा और इस्पात प्रमुख कारक हैं ) शून्य से नीचे गिर गया है, मतलब जनवरी 2015 में अपस्फीति, और वर्ष के अंत तक नकारात्मक बनी हुई है।

मुद्रास्फीति की दर परिवर्तन, 2008-09 से 2015-16

कच्चे माल की कीमतों में गिरावट और कमजोर वैश्विक स्तर पर माल की कीमतों से थोक मूल्य सूचकांक नीचे की ओर संचालित है, जिसका अर्थ हैं 2015 के हर महीने वैश्विक बाजार से भारत में कम और कम कीमतों पर कच्चा माल प्राप्त किया गया है।

प्रणव सेन , अध्यक्ष , राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग , इंडियन एक्सप्रेस की एक कॉलम में लिखते हैं कि, “दूसरी ओर एक सकारात्मक सीपीआई दिखाते हैं कि (डब्ल्यूपीआई द्वारा इंगित) गिरती कीमतों का लाभ, उपभोक्ताओं को पारित नहीं किया जा रहा है।”

आर जगन्नाथन, फर्स्टपोस्ट में लिखते हैं कि आपूर्ति अक्षमताओं भारत में बिगड़ रहे हैं और इसका कारण बुनियादी ढांचे में कम निवेश और बढ़ती परिवहन और रसद लागत है ,कृषि उत्पादन और औद्योगिक माल दोनों के लिए। इससे सीपीआई और डब्लूपीआई के बीच की खाई बढ़ सकती हैं।

जबकि गिरता डब्लूपीआई भारतीय उत्पादों के लिए, वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी होना अनुकूल है, निम्नलिखित चार्ट में दिखाया गया है भारत का निर्यात पिछले वर्ष इसी अवधि की तुलना में अप्रैल -नवंबर 2015 में 10 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है ।

आयात और निर्यात में वृद्धि, वर्ष 2007-08 से 2015-16 ( वर्ष-दर- वर्ष)

वैश्विक आर्थिक मंदी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर मांग के साथ 2015-16 में दूसरी तिमाही के अंत में आयात और निर्यात में 10 फीसदी से भी अधिक की कमी हुई है।

( यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 30 दिसंबर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है। )

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