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संयुक्त राष्ट्र की जलवायु प्रमुख क्रिस्टीना फिगुएरेस कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने का ज़िक्र करते हुए मिडिया को बताया है कि भारत का स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन में कटौतीकरने का संकल्प किसी भी सार्थक समझौते के लिए “बेहद महत्वपूर्ण” होगा। क्रिस्टीना फिगुएरेस ने पिछले साल दिसंबर में पेरिस में हुए एक महत्वपूर्ण संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान यह बात कही।

इंडियास्पेंड ने पहले ही खास रिपोर्ट में बताया है कि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन वृद्धि काफी तेजी से हो रही है। और जहां तक वैश्विक जलवायु परिवर्तन का सवाल है तो भारत इसमे सबसे महत्पूर्ण खिलाड़ी है।

वर्ल्ड एनर्जी की ब्रिटिश पेट्रोलियम( बीपी )के व्यापक सांख्यिकीय समीक्षा के नवीनतम संस्करण में यह बात सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में भारत में कार्बन उत्सर्जन में 8.1 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। इस आकंड़े के साथ वैश्विक उत्सर्जन में वृद्धि के लिए भारत का योगदान सबसे अधिक हो गया है।

क्षेत्र अनुसार उत्सर्जन * का पूर्वानुमान (2010-2040)

Source: EIA International Energy Outlook 2013

उपर दिखाए गए चार्ट से साफ पता चलता है कि भविष्य उत्सर्जन की वृद्धि दर के मामले में भारत का स्थान सबसे उपर रखा गया है। यह अनुमान लगाया गया है कि 2010 से 2040 के दौरान विकसित क्षेत्रों, जैसे कि अमरिका, में उत्सर्जन की वृद्धि बहुत कम रहेगी जबकि विकासशील देशों, जैसे कि भारत, चीन, में उत्सर्जन की वृद्धि अधिक मात्रा में देखी जाएगी। बीपी ( BP ) ने भी इस सामान्य अनुमान पर सहमती दिखाई है लेकिन कुछ अंतर की ओर भी संकेत दिया है।

2014 के उत्सर्जन विकास की तुलना में उत्सर्जन विकास दर का पूर्वानुमान (%)

Source: BP Statistical Review of World Energy 2015, EIA International Energy Outlook 2013

  • पूर्वानुमान के अनुसार भारत की औसत उत्सर्जन विकास दर 2.3 फीसदी हो सकती है जो कि किसी भी प्रदूषक देश से सबसे अधिक है। यह आकंड़े और उपर जाने की संभावने हैं। बीपी के अनुमान के मुताबिक साल 2014 में भारत में उत्सर्जन विकास दर 8.1 फीसदी दर्ज की गई है।
  • बीपी के अनुमान के मुताबिक चीन में औसत उत्सर्जन विकास दर 2.1 फीसदी हो सकती है। साल 2014 में चीन में 0.9 फीसदी की उत्सर्जन विकास वृद्धि दर्ज की गई है।
  • अगले 30 वर्षों में यूरोपीय संघ के उत्सर्जन में मामूली वृद्धिहोने का अनुमान लगाया गया है।लेकिन यदि साल 2014 में बीपी द्वारा किए गए अनुमान ( -5.4 फीसदी ) को देखा जाए तो इस अवधी के दौरान इस क्षेत्र में उल्लेखनीय ढ़ंग से उत्सर्जन की गिरावट देखी जाएगी।

भारत और अन्य प्रदूषक देशों के बीच बढ़ती खाई

बीपी द्वारा किए गए अनुमान से हाल ही में हुए पूर्वानुमान की वैधता (इस मामले में , अमेरिकी ऊर्जा सूचना प्रशासन द्वारा 2013 के अनुमान ) पर सवाल उठता है जिसे संशोधित करने की आवश्यकता हो सकती है।

हालांकि आकंड़ों में अशुद्धियों और विकृतियों की संभावना के बावजूद भारत के उत्सर्जन विकास एवं अन्य बड़े प्रदूषक देशों के बीच की खाई आधिक गहरी होती नज़र आ रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारत में उत्सर्जन विकास दर इस समय में काफी अधिक आगे बढ़ रहा है जबकि दूसरे प्रदूषक देशों में इन दरों में या तो गिरावट देखने को मिल रही है या काफी कटौती की जा रही है।

इन विभिन्न प्रवृतियों में मूख्यत: दो कारणों से परिवर्तन नहीं हो सकता। पहली यह कि किसी भी अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्था की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास होने की उम्मीद है। परिणामस्वरुप, भारत के जीवाश्म ईंधन, विशेष रूप से अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाला कोयले की खपत काफी बढ़ने का अनुमान है। इस विषय पर इंडियास्पेंड ने पहले ही काफी विस्तार से चर्चा की है।

विज्ञान और पर्यावरण केंद्र द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक कोयले पर भारत की भारी निर्भरता होना की एक समस्या नहीं है। समस्या है कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के निराशाजनक दक्षता स्तर, जोकि लगभग सभी मोर्चों पर वैश्विक मानक के नीचे पाए गए हैं।

दूसरे कारण को समझने के लिए हमें दूसरे पक्ष को देखने की ज़रुरत है जहां पेरिस वार्ता से पहले प्रमुख प्रदूषकों द्वारा उत्सर्जन में कटौती करने का वादा किया।

पेरिस में किए वादे में भारत की अनुपस्थिति

नीचे दिए गए टेबल में साल 2015 में पेरिस में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में आगामी कॉंफ्रेंस पार्टी ( सीओपी )से पहले तमाम देशों द्वारा उत्सर्जन को रोकने के संकल्प का विवरण दिया गया है।

आईएनडीसीज ( Intended Nationally Determined Contribution ) टर्मके साथ यह संकल्प इन देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन से निपटने की इच्छा ( या अनइच्छा )को दर्शाता है। मोटे तौर पर इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण जलवायु वार्ता के रूप में वर्णित किए गए बातचीत के परिणम को आईएनडीसीज निश्चित करेगा।

Nation/regionIntended Nationally Determined Contribution (INDC)
United StatesReduce emissions by 26%-28% below 2005 level in 2025
ChinaAchieve peaking of emissions around 2030 and make best efforts to peak early; Increase share of non-fossil fuels in energy mix to around 20%
EU40% domestic reduction in emissions by 2030 compared to 1990
RussiaCut anthropogenic GHG to 70-75% of 1990 levels by the year 2030
CanadaReduce GHG emissions by 30% below 2005 levels by 2030
MexicoUnconditional reduction of 25% of GHG emissions (below BAU) for 2030
Ethiopia64% reduction in GHG emissions from Business As Usual scenario in 2030

Source: CAIT Climate Data Explorer

हर बड़े प्रदूषक देश ने अब तक अपनी आईएनडीसीज प्रस्तुत कर दी है ( अंतिम समय सीमा 31 अक्टूबर है ) लेकिन भारत की अनुपस्थिति सबका ध्यान आकर्षित कर रही है।

भारत की ' विकास" का हवाला देते हुए , प्रकाश जावड़ेकर , पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिए मंत्री ने मीडिया को बतायाकि हालांकि संयुक्त राष्ट्र को भारत उत्सर्जन के संकल्प को सौंपेगी लेकिन कोई एक तिथि नहीं निर्धारित की जाएगी। जावड़ेकर ने जोर देते हुए बताया कि सबकी की उम्मीद की तुलना में भारत की आईएनडीसीजऔर अधिक ”महत्वाकांक्षी " होगी।

जारी है जलवायु गतिरोध

अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ता अक्सर इन्हीं गतिरोध के कारण विफल होते हैं : विकासशील देश अतीत के उत्सर्जन को इंगित करते हुए चाहते हैं कि अमीर देश बड़ी कटौती करें जबकि विकसित देश विकासशील देशों से कटौती की उम्मीद करते हैं।

आंशिक रुप से यह भी एक कारण है कि क्यों भारतीय सरकार लगातार अंतरराष्ट्रीय जलवायु सौदों से असंतुष्ट रहती है। इस साल के शुरुआत में, भारत ने जलवायु समझौते को खारीज कर दिया जबकि ऐसा ही एक समझे पर अपरिका एवं चीन द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। समझौता इसलिए खारीज किया गया क्योंकि यह एशिया के पड़ोसी देशों के सममूल्यों के अनुकुल नहीं था जिसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत की तुलना में चार गुना अधिक एवं संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के मुकाबले काफी कम तय किया गया था।

प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन , 2010

Source: World Bank Little Green Data Book 2015

इसलिए जब भारत और अन्य विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को लेकरविकासित देशों पर दोहरे मापदंड रखने का आरोप लगाती हैं तो काफी हद्द तक सही ही है। हालांकि जलवायु पर उत्सर्जन के प्रभाव की बढ़ती प्रकृति, ऐतिहासिक पक्षपात के जोर को नज़अंदाज करती है।

जलवायु में परिवर्तन से बढ़ता खतरा

पिछले दो सौ सालों में की गई मानव गतिविधियों ( जीवावशेष से बना तेल, कोयला आदि ईंधन से हुआ आर्थिक विकास ) से पृथ्वि के तापमान में औसतन 0.80 सेल्सियस की वृद्धि हुई है जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहा जाता है।

वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिकयदि समय रहते सही कदम नहीं उठाए गए तो ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ते तापमान का खामियाजा पूरी दुनिया को उठाना पड़ सकता है।वर्तमान में यह धरती केवल 2 डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि सह सकती है। यदि तापमान इससे अधिक बढ़ता है तोइसका दुष्परिणाम समस्त मानव जाति को भुगतना पड़ सकता है।

वैश्विक तापमान में वृद्धि के प्रभाव तहत अनुमान है कि भारत के तापमान में 2 डिग्री से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। तापमान की वृद्धि से काफी बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका है। अनुमान के मुताबिक भविष्य में मौसम अत्यधिक गरम हो सकता है, समय पर बारिश न होने की संभावना है जिससे कि खाद्य सुरक्षा का खतरा बढ़ेगा। धरती की तपन बढ़ने की वजह से समुद्र के जल-स्तर में बढ़ोत्तरी शायद सबसे ज्यादा घातक साबित हो सकती है। ग्लेशियर केपिघलने से पीने के पानी की समस्या बढ़ सकती है। इन सबका स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ सकता है। कुल मिला कर पूरे मानव जाति के लिए यह एक खतरे का संकेत है।

बढ़ते तापमान से भारत में खतरनाक प्रभाव, जैसे कि बढ़ती गरमी एवं समय पर बारीश न होना, पहले ही महसूस किए जा रहे हैं। इन समस्याओं पर इंडियास्पेंड पहले ही विस्तार से चर्चा कर चुका है।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की आधिकारिक पांचवीं आकलन रिपोर्ट ( AR5 ) द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के विश्लेषणअनुसार विश्व के पास अब भी ग्लोबल वॉर्मिंग को 20 डिग्री सेल्सियस से कम करने का मौका है। कहीं भी शेष जीवाश्म ईंधन के भंडार का 80-90% से जमीन में छोड़ दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक यदि उत्सर्जन दर वर्तमान स्थिति से बढ़ता रहा तो साल 2036 तक विश्व का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ सकता है।

क्यों है भारत के लिए गंभीर मुद्दा

मोटे तौर पर जलवायु परिवर्तन की विडंबना यह है कि ऐतिहासिक दृष्टि से जिन देशों ने उत्सर्जन में सबसे कम योगदान दिया है वही देश इसके दुष्परिणाम से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे। उष्णकटिबंधीय राष्ट्रों जैसे कि भारत को , विशेष रूप से , अधिक असंगत प्रभाव भुगतना होगा।

समस्या इतनी गंभीर होने के बावजूद, जलवायु पर मंडराता खतरा विकसित देशों द्वारा अधिक मान्यता दिया गया है। यह साफ तौर पर विकासशील देशों के सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन पर निर्णायक कार्रवाई में घरेलू दवाब की कमी को दर्शाता है।

विशेषज्ञों के अनुसार कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव की बढ़ती प्रकृति से साफ है कि भारत, अपने उच्च कार्बन - विकास के मार्ग पर जारी नहीं रह सकता, जोकि चीन के “अभी विकास, भुगतान बाद में”, के नक्शेकदम पर चल रहा है।

भारत का विशाल आकार और बढ़ता उत्सर्जन दर, जोकि वैश्विक प्रवृत्ति अवहेलना करती है, जलवायु परिवर्तन के मामले में बनाने या बिगाड़ने जैसा दिखाई पड़ता है।

पेरिस वार्ता में भारत के रुख के बारे में अटकलें लगाते हुए पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में लिखा है: “भारत को जलवायु परिवर्तन के लिए अपने दम पर काम करना चाहिए क्योंकि कई क्षेत्रों में भारत के पास तकनीकी नेतृत्व की क्षमता है...यदि दुनिया मदद के लिए आगे आती है तो अच्छी बात है। लेकिन इस मदद के लिए हमें किसी का इंतज़ार करने की ज़रुरत नहीं है।”

(जोस बंगलौर में स्थित स्वतंत्र पत्रकार है। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 14 जुलाई 14 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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