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मुंबई के गोवंडी इलाके में रफी नगर झुग्गी में अपने दो बच्चों, मो. इमान (2.5 साल) और मो. अयान (10 महीने) के साथ 22 वर्षीय निखत मोहम्मद हुमायूं सेठ। मो. इमान का जन्म समय से पहले हुआ था और वह कम वजन का था। वह गंभीर रुप से कुपोषित था और अक्सर उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता था।

मुंबई महानगर के उत्तरी किनारे पर शहर का एक और चेहरा नजर आता है। जैसे ही आप 'एम ईस्ट' नगरपालिका वार्ड, जिसे 'एम / ई' कहा जाता है, तक पहुंचते हैं, बड़ी इमारतों की जगह झोपड़ियां, संकरी होती सड़कें नजर आती हैं। सरकारी सेवाएं तो यहां दुर्लभ हैं।

यह इलाका 132 हेक्टेयर-देवोनार डंपिंग ग्राउंड के आवास के लिए के लिए ज्यादा जाना जाता है, जो हर रोज 4,500 टन कचरा उत्पन्न करता है। इस वार्ड में 256 से अधिक मलिन बस्तियों और 13 पुनर्वास कालोनियां सहित चेंबूर पूर्व, गोवंडी, मानखुर्द और शिवाजी नगर शामिल हैं।

नागरिक निकाय- बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) (बीएमसी) से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, इस वार्ड में नगर निगम के विद्यालयों में पढ़ाई करने वाले 50 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। ये आंकड़े शहर के किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में सबसे ज्यादा हैं। हम बता दें कि यह आंकड़े गैर लाभकारी संस्था ‘प्रजा फाउंडेशन’ द्वारा द्वारा अभिगमित और प्रकाशित किया गया है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने जून 2017 में विस्तार से बताया है।

मुंबई में कुपोषण की जांच पर हमारे दो लेखों की श्रृंखला के दूसरे भाग में शहरी गरीबों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों को जानने के लिए हमने गोवंडी का दौरा किया।

एम / ई वार्ड

समुद्र के किनारे का दलदली इलाका है यह। इस वार्ड को एक समय इतना अवांछित माना जाता था कि शहर के योजनाकारों ने इसे रिफाइनरियों, उर्वरक संयंत्रों और एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए उपयोग करने का इरादा किया था।

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वर्ष 1970 के दशक में, नगर निगम ने मुख्य शहर से कई झुग्गी बस्तियों का पुनर्वास शिवाजी नगर इलाके में किया था। जैसे-जैसे मुंबई महानगर का विस्तार हुआ, वांदड़ा के मज़दूर और धारावी के डंपिंग ग्राउंड को भी इस वार्ड में शामिल कर लिया गया। आज, यह 800,000 लोगों का घर है। इनमें से 77 फीसदी लोग झुग्गियों में रहते हैं। इलाके ने शहर में सबसे कम मानव विकास सूचकांक दर्ज किया है-0.05 । यह आंकड़ा कई उप-सहारा अफ्रीकी देशों से भी बद्तर है।

मलिन बस्ती की संरचना

देवनार डंपिंग ग्राउंड के पास बसा हुआ है रफी नगर । जो पहाड़ी की तरह दिखता है और आसपास के चार मंजिला इमारत के बराबर ऊंचा है। कुछ साल पहले यहां मुख्य सड़क की मरम्मत की गई थी। वहां अब कुछ छोटी दुकानें दिखाई देती हैं। दोनों तरफ संकीर्ण गलियां हैं। प्रत्येक गली में एक पतली नाली है, जो बीच में बहती है। गली के दोनों तरफ टिन के झोपड़े बने हुए हैं। प्रत्येक घर में एक सोने का कमरा, रसोईघर और छोटी सी बैठक है। दिन के समय भी घर के भीतर बहुत कम रोशनी जाती है ।अधिकांश घरों में बिजली और एक टीवी सेट है । अंदर एक खुले स्नान क्षेत्र भी हैं।

गोवंडी इलाके में रफी नगर की झुग्गियां

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Typical slum settlement at Rafi Nagar, Govandi

प्रत्येक गली के हर घर के बाहर एक चमकीला नीला डब्बा रखा हुआ है, ताकि जब पानी के टैंकर आए तो जो जल्द से जल्द पानी लिया जा सके। घरेलू काम-काज पानी के टैंकर के आने के बाद ही शुरु हो पाते हैं।

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बाएं से दाएं : मुंबई के गोवंडी इलाके के लोटस कॉलोनी में एक लावारिस शौचालय परिसर। हर घर के बाहर नीले रंग का डब्बा रखा जाता है, ताकि पानी का टैंकर आने पर उसे तुरंत भर लिया जा सके।

पानी की पूर्ति सीमित है, इसलिए स्नान प्राथमिकता नहीं है। सार्वजनिक शाचालयों की स्थिति बद्तर है और प्रतीत होता है कि रख-रखाव की कमी के कारण लोग इसका इस्तेमाल करना छोड़ देते हैं।

वर्ष 2011 में, मुंबई की मलिन बस्तियों में रहने वाले परिवारों ने मानक नगरपालिका प्रभार की तुलना में पानी पर 52 गुना और 206 गुना अधिक खर्च किया है और 95 फीसदी झुग्गी में रहने वाले परिवारों ने प्रति व्यक्ति 50 लीटर के विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) मानक की तुलना में कम पानी का उपयोग किया है, जैसा कि बीएमसी पब्लिक हेल्थ जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चलता है।

सुरक्षित पेयजल और पर्याप्त स्वच्छता के बिना, बच्चों को अक्सर दस्त होता है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत का दूसरा सबसे मुख्य कारण दस्त ही है।

कम आय और कम भोजन

रमजान के पवित्र महीने में और ज्यादातर महिलाएं अपने घर के बाहर बैठकर टोपियां बुन रही थीं। छोटे बच्चों को मोती छांटने या उन्हें टोपियों पर लगाने का काम सौंप दिया गया था।

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बाएं से दाएं: रमजान के महीने के दौरान, ज्यादातर झुग्गी बस्तियों में कारागार घर पर काम कर रहे हैं, बच्चे भी मदद करते हैं। गर्मी से निजात पाने के लिए बच्चे अक्सर पानी में कूद जाते हैं लेकिन रफी नगर, गोवंडी के कई नाले इसी पानी में आकर मिलते हैं।

कुछ बच्चे गर्मी से निजात पाने के लिए पास में ही छोटी नदी में खेलने जाते हैं लेकिन गोवंडी के नाला का निकास इसी पानी में होता है। रफी नगर के कई भीड़ भरे गलियों में से हमने 10 वर्षीय सदिया खान और उनके परिवार से मुलाकात की। सादिया आठ वर्ष से ज्यादा की नहीं दिखती है और छठी कक्षा में पढ़ती है। सादिया की मां नाजूबिस्सा खान बताती हैं कि सदिया अक्सर दस्त से पीड़ित रहती थी और अक्सर कमजोरी की शिकायत करती थी।

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10 वर्ष की सादिया और उनका 8 वर्ष का भाई मोहम्मद गोवंडी के रफी नगर में रहते हैं। ये दोनो कुपोषित हैं। सदिया को सब्जियां और फल खाना पसंद नहीं है और उसका परिवार दूध खरीदने में सक्षम नहीं है। उसके भाई का कहना है कि स्कूल में मिड डे मील में दिए जाने वाला खिचडी भी उसे पसंद नहीं है।

अपने ही उम्र के कई बच्चों की तरह सादिया को फल और सब्जियां खाना पसंद नहीं है। लेकिन उनसे लहसुन चिवड़ा और चाइनीज भेल जैसे स्नैक्स काफी पसंद हैं।

नाजूबिस्सा खान के तीन बच्चे हैं। इससे पहले खान के दो बच्चे टेटनस और टीबी के कारण जान गवां चुके हैं। खान उत्तर प्रदेश से हैं और उन्होंने किसी तरह की शिक्षा हासिल नहीं की है। खान के पति एक जरी कारीगर हैं और परिवार में एक-मात्र कमाऊ सदस्य हैं।

एम / ई वार्ड में अधिकांश परिवार सादिया के परिवार की तरह ही हैं। करीब 40 फीसदी परिवारों की आय 5,000 रुपए से लेकर 10,000 रुपए के बीच है। 20 फीसदी परिवारों की आय 2,000 रुपए से कम है और कुल मिलाकर 62 फीसदी परिवार किसी भी तरह का बचत करने में असमर्थ है।‘ टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज’ (टीआईएसएस) द्वारा गोवंडी में वर्ष 2015 में इस अध्ययन में भी यह बात सामने आई है। इस अध्ययन में वार्ड के सभी परिवारों को शामिल किया गया है।

इतनी कम आय के साथ, 59 फीसदी परिवार दिन में दो वक्त का भोजन पाने में भी सक्षम नहीं है। 10 फीसदी से भी कम लोग दूध, मछली, मांस, अंडे और फल जैसे दैनिक पदार्थों पर उपभोग करने में सक्षम हैं। अधिकांश परिवार दूध का इस्तेमाल केवल चाय बनाने के लिए करते हैं।

कम आय का भोजन की गुणवत्ता और मात्रा पर सीधा प्रभाव पड़ता है और इसके परिणाम गंभीर हैं। एम / ई वार्ड में पांच से कम उम्र के 45 फीसदी बच्चे स्टंड और 35 फीसदी कम वजन के थे। टीआईएसएस के अध्ययन के मुताबिक, दो वर्ष की आयु के करीब आधे बच्चे स्टंड थे ।

वार्ड में निरक्षरता दर 21 फीसदी है जो मुंबई के (11 फीसदी) के आंकड़ों की तुलना में दोगुना है। यहां 30 फीसदी महिलाएं अशिक्षित हैं। यह आंकड़ा 9 फीसदी के मुंबई के आंकड़े की तुलना में तीन गुना है। इस क्षेत्र में रहने वाले 90 फीसदी मुस्लिम महिलाएं काम नहीं करती हैं।

ज्यादातर दिनों में, सदिया के परिवार में न तो दूध खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे होते हैं और न ही बच्चे स्कूल में खाने का डब्बा ले जाते हैं। जब पूछा गया कि क्या उसकी बेटी नगरपालिका के स्कूलों में दिए जाने वाला मिड डे मील खाती है तो खान के पास इसकी कोई जानकारी नहीं थी।

सादिया के छोटे भाई मोहम्मद ने कहा, "हमें स्कूल में दी जाने वाली खिचड़ी पसंद नहीं है।" मोहम्मत 8 साल का है और काफी दुबला और कमजोर दिखता है।

खान ने बताया कि बच्चों ने स्कूल से घर आने पर चावल और दाल खाया है।

परिवार बड़ा, खाने वाले ज्यादा

धार्मिक और सांस्कृतिक झुकाव के कारण यहां परिवार नियोजन एक लोकप्रिय विचार नहीं है। इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार महिलाओं के पास कम ही होता है।

जब पूछा गया कि क्या उसने परिवार नियोजन की कोशिश की थी, खान ने कहा: " नहीं...मैं पांच बच्चे चाहती हूं...शायद एक और लड़का चाहिए।"

एम / ई वार्ड में अधिकांश महिलाएं औसत पर 3.8 जीवित जन्म देती हैं, जिनमें से 3.6 जीवित रहते हैं।

शिक्षा ने पारिवारिक आकार को प्रभावित किया और निरक्षर महिलाओं की तुलना में माध्यमिक शिक्षा से अधिक प्राप्त महिलाएं आधे जन्म दर की सूचना दी है, जैसा कि टीआईएसएस की रिपोर्ट में बताया गया है।

सोसाइटी फॉर न्यूट्रिशन, एजुकेशन एंड हेल्थ एक्शन (स्नेहा) केंद्र के साथ एसोसिएट प्रोग्राम डायरेक्टर, सोनाली पाटिल के इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया, “हमने उन घरों का दौरा किया है जहां एक मां के 17 बच्चे हैं। हमारे क्षेत्रीय अधिकारियों को उन्हें परिवार नियोजन के तरीकों के संबंध में समझाना काफी मुश्किल होता है। ”

‘स्नेहा संस्था’ बच्चों में कुपोषण को रोकने के लिए काम करता है और महिलाओं के बीच गर्भनिरोधक को बढ़ावा देता है।

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सोसाइटी फॉर न्यूट्रिशन, एजुकेशन एंड हेल्थ एक्शन (स्नेहा) की एसोसिएट प्रोग्राम डायरेक्टर, सोनाली पाटिल। ‘स्नेहा’ संस्था बच्चों में कुपोषण को रोकने के लिए काम करती है और महिलाओं के बीच गर्भनिरोधक उपायों को बढ़ावा देती है।

पाटिल ने बताया कि वर्ष 2011 में जब संस्था ‘स्नेहा’ की ओर से गोवंडी और मानखुर्द में प्रजनन आयु वर्ग के 6000 महिलाओं के बीच बेसलाइन अध्ययन किया गया तो पाया कि 66 फीसदी महिलाओं ने परिवार नियोजन का अभ्यास नहीं किया है। उन्होंने बताया कि ‘स्नेहा’ के हस्तक्षेप के बाद वर्ष 2016 में यह संख्या घटकर 59 फीसदी हुई है।

सरकार द्वारा चलाए जाने वाले प्रतिरक्षण कार्यक्रमों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती शिक्षा की कमी है।

नाम न बताने की शर्त पर एक मेडिकल हेल्थ अधिकारी ने बताया, “यह आसान नहीं है। हम टीकाकरण शिविरों का आयोजन करते हैं, लेकिन वहां कोई नहीं आता है। बच्चों को प्रतिरक्षित कराने की अनुमति के लिए हमें मांओं को घंटों समझाना पड़ता है। ”

हम रफी ​​नगर में निखत मोहम्मद हुमायूं सेठ के घर गए। सेठ लगभग 16 साल की उम्र की दिख रही थी, लेकिन उन्होंने बताया कि उनकी उम्र 22 वर्ष है। घर के बाहर सेठ का ढाई साल का बेटा खेल रहा था और घर के भीतर एक छोटा बच्चा सोया था।

उसका बड़ा बेटा, मोहम्मद इमान, घुटनों के बल चल रहा था। थोड़ी ही देर में मोहम्मद इमान ने ‘पाउडर’ मांगना शुरु कर दिया। यह एक मेडिकल पोषण उपचार (एमएनटी) अनुपूरक है जो धारावी में पोषण पुनर्वास केंद्र द्वारा नि: शुल्क वितरित किया जाता है।

मोहम्मद इमान का जन्म समय से पहले हुआ था। जन्म के समय उसका वजन केवल 1.7 किलो था। जन्म के फौरन बाद उसे इनक्यूबेटर में रखा गया था और तब से ही उसे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होती रहती हैं।

इमान का भाई मोहम्मद अयान 10 महीने का है। उसका जन्म पूर्ण अवधि में हुआ था। जन्म के समय अयान का वजन 2.4 किलो था। हालांकि, उसे निमोनिया के लिए हाल ही में सायन अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, जन्म के समय 2.5 किलो वजन से कम वाले बच्चे को 'कम जन्म वजन' वाला माना जाता है। मोहम्मद इमान और आयन दोनों ही कम वजन वाले बच्चे थे।

सामान्य जन्म वजन शिशुओं की तुलना में कम जन्म वजन शिशुओं के जीवन के पहले चार हफ्तों के भीतर मरने की संभावना 40 गुना अधिक होती है। कम जन्म वजन का संबंध बाधित विकास, संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ बाद में पुरानी बीमारियों से भी होता है।

निखत ने कहा कि वह अपने बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए दृढ़ संकल्पित है, लेकिन 5000 रुपए प्रति माह में सब कुछ देखना मुश्किल होता है।

बुनियादी सेवाओं तक सीमित पहुंच

सबसे कमजोर लोगों में से कई लोग सरकारी सेवाओं तक पहुंचने में असमर्थ हैं।

गैर-लाभकारी संस्था ‘अपनालय’ से जुड़े उप कार्यक्रम प्रबंधक, संजय बम्ने ने हमें अपने शिवाजी नगर कार्यालय में बताया कि 500,000 से अधिक की आबादी के लिए क्षेत्र में चार प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्र हैं, जो मातृ एवं बाल देखभाल सेवाएं प्रदान करते हैं।

42,000 की आबादी के लिए 21 आंगनवाड़ी हैं। बम्ने बताते हैं कि स्वास्थ्य पदों और आंगनवाड़ी को यहां लाने के लिए कई वर्षों तक वकालत की गई है। वह कहते हैं, “आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इलेक्ट्रॉनिक वजनी तराजू का उपयोग नहीं करते हैं और केवल वजन मापते हैं, कद नहीं। इसलिए वे केवल यह निर्धारित करते हैं कि बच्चा कम वजन का है या नहीं, स्टंड या वेस्टिंग बच्चों का पता नहीं चल पाता है। ”

‘अपनालय’ जैसी गैर-लाभकारी संस्थाओं ने कुपोषित बच्चों को पोषण की खुराक प्रदान करने से अपनी रणनीतियां विकसित की हैं, ताकि माताओं के बीच स्वास्थ्य-संबंधी व्यवहार को प्रोत्साहित किया जा सके और पोषण के बारे में उन्हें परामर्श दिया जा सके।

‘अपनालय’ के एक क्षेत्रीय अधिकारी, जगदीव बनसोड बताते हैं, “हम माताओं को ग्रूप बनाने में मदद करते हैं, जिन्हें अस्पताल में बच्चे को जन्म देने और उनके बच्चों को प्रतिरक्षित करने के लिए के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हम खाना पकाने वाले कक्षाएं आयोजित कर रहे हैं, ताकि महिलाओं को पता चल सके कि अपने बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन कैसे तैयार करना है। ”

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जगदेव बनसोड ‘अन्नालय’ संस्था के साथ 24 वर्षो से फील्ड अधिकारी के रुप में झुग्गी बस्ती में काम कर रहे हैं।

वर्ष 2010 के बाद से धारावी के शहरी स्वास्थ्य केंद्र के पोषण पुनर्वास केंद्र, मुंबई और उसके आसपास शहरी इलाकों में कुपोषण का इलाज कर रहे हैं। हम बता दें इसे 'छोटा सायन अस्पताल' भी कहा जाता है।

इसके पोषण विशेषज्ञों, डॉक्टरों, नर्सों और परामर्शदाताओं के साथ-साथ एक मरीज की सुविधा को देखते हुए ठाणे (30 किमी दूर) और पालघर (100 किमी दूर) के कुपोषित बच्चों को भी यहां लाया जाता है।

यही वह जगह है जहां पिनट बटर, सोया, दूध पाउडर, पाउडर चीनी और सूक्ष्म पोषक तत्वों से डब्लूएचओ द्वारा सिफारिश ‘एमएनटी पाउडर’ बनाया जाता है। यह गंभीर तीव्र कुपोषित बच्चों के लिए मुफ्त में वितरित किया जाता है।

सायन के लोकमान्य तिलक म्युनिसपल जनरल अस्पताल में बाल चिकित्सा विभाग के प्रमुख, अलका जाधव इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताती हैं, “सामान्य बच्चों की तुलना में मध्यम तीव्र कुपोषित वाले बच्चों की किसी भी कारण से मृत्यु की आशंका चार गुना ज्यादा होती है।जबकि मध्यम तीव्र कुपोषित बच्चों की तुलना में गंभीर तीव्र कुपोषित बच्चों के जीवित न रहने की आशंका की तुलना नौ गुना ज्यादा होती है। ”

‘एमएनटी पाउडर’ का इस्तेमाल तेजी से वजन बढ़ाने के लिए किया जाता है। जाधव बताती हैं कि ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में कुपोषण का इलाज कराना अधिक कठिन है,"शहरों में रहने का खर्च बहुत अधिक है और केबल टीवी और मोबाइल फोन रखने की इच्छा जैसी बदलती आकांक्षाओं के साथ, ज्यादातर घरों में पोषण प्राथमिकता नहीं है।"

(दो लेखों की इस श्रृंखला में हमने यह जानने की कोशिश की कि देश का सबसे अमीर महानगर मुंबई पोषण के मामले में थक क्यों रहा है। पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।)

(यदवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 6 जुलाई 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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