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सुनिल यादव, सफाई कर्मचारी से एम फिल, 36, यादव को यह नौकरी अपने पिता से मिली थी। बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी ) के साथ यावद मेहतर का काम करता था। बाद में यादव ने सामाजिक कार्य में अपनी परास्नातक पूरा किया एवं वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान ( टीआईएसएस) से एम. फिल कर रहे हैं। लेकिन यादव की कहानी बीएमसी में काम करने वाले 30,000 कर्मचारियों में से असधारण एवं अनूठी है। इनमें से अधिकतर कार्यकर्ता दलित हैं एवं वह यह अवैध काम इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

मुंबई - गर्म पानी, गंदे कपड़े और खाली बोतलें, मुंबई की गलियों में मैला ढोने वालों की ज़िंदगी इन चीज़ों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। हालांकि मैला ढ़ोना अवैध है लेकिन महाराष्ट्र उन 180,657 भारतीय परिवारों के 35 फीसदी परिवारों को रोजगार देता है जिनकी ज़िंदगी गली-कूंचों के मैल पर निर्भर है।

आधिकारीक प्रतिफल के डर से नाम न छापने की शर्त पर इंडियास्पेंड से बात करते हुए एक कार्यकर्ता ने बताया कि, “हम यह काम कर लोगों का जीवन बचाते हैं लेकिन हमरी ज़िंदगी बचाने वाला कोई नहीं है।”

आधिकारीक तौर पर भारतीय राज्य मैला ढ़ोने वालों, जिनमें से अधिकतर दलित हैं, के रोज़गार को मान्यता या पहचान नहीं देती है। महाराष्ट्र में आधिकारीक तौर पर इन्हें “सफाई करने वाले” के रुप में नियुक्त किया गया है। हालांकि राज्य यह स्वीकार करती है कि हज़ारो लोग आजीविका के लिए मैला ढ़ोने का काम करते हैं।

लोकसभा में सामाजिक न्याय और अधिकारिता विजय सांपला राज्य मंत्री द्वारा एक सवाल के दिए गए जवाब के अनुसार महाराष्ट्र में लगभग 63,000 परिवार मैला ढ़ोने के काम पर निर्भर हैं जबकि इस संबंध में दूसरा स्थान मध्यप्रदेश, तीसरा उत्तर प्रदेश, चौथा त्रिपुरा एवं पांचवे स्थान पर कर्नाटक है।

सबसे अधिक सफाई करने वाले परिवार के साथ राज्य

रेलवे करती है सबसे अधिक मैला ढ़ोने वाले कर्मचारी नियुक्त

मलमूत्र से निपटने के लिए उचित व्यवस्था न होने के कारण भारतीय रेल सबसे अधिक (अपने रोल पर एक अज्ञात संख्या के साथ ) मैला सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति करती है।

इन्हें अधिकतर “सफाई कर्मचारी” या मेहतर का नाम दिया जाता है जिससे इन्हें मैला ढ़ोने वालों के रुप में पहचान कर पाना कठिन होता है। गौरतलब है कि रेलवे में इनकी नियुक्ति ठेकेदारों के माध्यम से होती हैं एवं यह प्रतिदिन 200 रुपए कमाते हैं। हालांकि इन कर्मचारियों को दस्ताने उपलब्ध कराए जाते हैं लेकिन इनमें स्वच्छता जागरुकता इतनी कम है कि इनमें से शायद ही कोई दस्तानों का इस्तेमाल करते हैं। एक नया कानून मसौदा कहता है कि यदि यह सुरक्षात्मक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं तो इन श्रमिकों को मैला ढ़ोने वालों के तहत वर्गीकृत नहीं किया जाएगा।

मैला ढ़ोने वालों का फैलाव जानने के लिए सितंबर में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था। रेल मंत्रालय ने कोर्ट को बताया कि जक तक स्टेशनों पर धुल सकने वाले एप्रन एवं सील शौचालय प्रणाली की मजबूत व्यवस्था नहीं होती तब तक इन मैला ढ़ोने वालों को पूरी तरह हटाया नहीं जा सकता है।

डाउन टू अर्थ पत्रिका के अनुसार, “हालांकि रेल मंत्रालय आधिकारिक तौर पर मैला ढ़ोने वालों की नियुक्ति से इंकार करती है लेकिन पिछले नौ वर्षों में अदालत में प्रस्तुत की गई हलफनामें से पता चलता है कि कुछ ट्रेनों को छोड़ कर, रेलवे ने अपनी 80,000 शौचालयों को स्वच्छ रखने और 115,000 किलोमीटर लंबी पटरियों को साफ रखने के लिए किसी भी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया है।”

हाशिए पर हैं मैला ढ़ोने वाले

निम्न जाति से आने वाले एवं जिनकी नौकरियां आधिकारिक रुप से मौजूद नहीं हैं उनके विकास की गति धीमी है और इसका विरोध लगभग असंभव है।

बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी ) " संरक्षण श्रमिकों" ( गलियों को साफ करने वाले मैला सफाई कर्मचारियों के लिए एक संस्था ) ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि हाल ही में उन्हें दस्ताने मिलने शुरु हुए हैं। बीएमसी भी उन्हें 500,000 रुपए तक चिकित्सा बीमा भी देना शुरू किया है। प्रीमियम उनके ही वेतन से काटी जाती है और आधे से अधिक कर्मचारियों ने इसके लिए हस्ताक्षर भी नहीं किया है।

एक कर्मचारी ने इंडियास्पेंड से बातचीत के दौरान बताया कि “हर महीने चार से पांच लोगों की मौत होती है। हम में से अधिकांश लोग तपेदिक जैसी बिमारी से पीड़ित हैं। बीएमसी का अपना अस्पताल है लेकिन हमें इसका फायदा नहीं मिलता है।” इसका मतलब हुआ कि इन कर्मचारियों को अस्पताल में इलाज के लिए परामर्श फीस का भुगतान नहीं करना पड़ता है लेकिन दवाओं के लिए अपने पैसे लगते हैं। यहां तक कि सोनोग्राफी टेस्ट के लिए छह महीने एवं एक्स-रे टेस्ट के लिए चार महीने का इंतज़ार करना पड़ता है।

मुंबई के बीएमसी के लगभग सभी संरक्षण कार्यकर्ताएं ने हिंदू धर्म की निम्न जातियों से धर्मान्तरित कर बौद्धों या नव बौद्ध धर्म को अपनाया हुआ है। हाशिये पर रखे इन लोगों की यथास्थिति तोड़ना कठिन है।

एक ठेकेदार ने इंडियास्पेंड को बताया कि अब नाले मशीन से साफ किए जाते हैं और अब कर्यकर्ताओं को मैनहोल में नहीं उतरना पड़ता है। हालांकि कुछ श्रमिकों ने ठीक इसका उल्टा बताया है। उन्होंने कहा कि करीब हर रात कुछ श्रमिकों को मैनहोल में उतारा जाता है।

मैनहोल में उतरने की बारी हरेक श्रमिक की आती है। मैनहोल में उतरने से पहले यह श्रमिक पूरे शरीर पर नरियल तेल लगाते हैं ताकि सीवर की बदबू न रह सके।

क्यों करते हैं यह काम?

घर-परिवार के लिए करते हैं काम

मुंबई में मैला ढ़ोने वालों का यही काम करने के पीछे मुख्य कारण शिक्षित न होना है। मेहतर के रुप में काम करने का मतलब है बीएमसी से आवास पाना। साथ इनकी नौकरी परिवार के किसी सदस्य को हस्तांतरित किया जा सकता है।

हालाकि आधिकारिक रुप से इन श्रमिकों की आय 7,000 रुपए से लेकर 25,000 रुपए तक होती है लेकिन शिक्षा और शादी के लिए लिए गए ऋण ( ज़मीनदारों से लिया गया ) एवं बीमा के प्रीमियम कटने के बाद इनके हाथ में केवल 5,000 से लेकर 15,000 तक ही आता है।

एक नया कानून, मैला ढोने वालों के रोजगार का प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम , 2013, 40,000 रुपये की नकद सहायता देकर संरक्षण श्रमिकों के पुनर्वास की बात करता है। बीएमसी कर्मचारियों से बाद करने पर यह स्पष्ट हो गया कि उन्हें इस विषय में कोई जानकारी नहीं है।

One-time Cash Assistance For Manual Scavengers, FY 2014-FY 2016
State/UTManual Scavengers IdentifiedBeneficiariesExpenditure (Rs crore)
Andhra Pradesh124450.18
Bihar1371310.52
Chhattisgarh330.01
Karnataka3021960.78
Uttar Pradesh10,016525221
Uttarakhand1371240.49
West Bengal98950.38

Source: Lok Sabha; Note: Data for FY 2016 up to June 30, 2015

मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना ( एसआरएमएस ) 2007 में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा पेश किया गया था, और कार्यान्वयन नवंबर 2013 में शुरू हुआ है। आंध्र प्रदेश, बिहार , छत्तीसगढ़, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ने सरकार द्वारा सरकार पहचान किए गए मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए नगद प्राप्त किया है।

महाराष्ट्र में पहचान किए गए मैला ढ़ोने वालों को कोई नकद दिया है।

( पटणकर सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई में पब्लिक पॉलिसी की एमए, द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं। पाटणकर इंडियास्पेंड के साथ इंटर्न हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 18 नवम्बर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।


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