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पहली बार मां बनने वाली बिश्वासी, लीला और अनीता गर्भावस्था के अंतिम तिमाही में हैं। लेकिन केवल एक हफ्ते पहले ही उन्हें प्रसव पूर्व-प्रारंभिक जांच रिपोर्ट प्राप्त हुई है। ‘एंड मैटर्नल मोर्टैलिटी नाउ प्रोजेक्ट’ के तहत संगठित समुदायिक बैठक के दौरान उन्हें पहली बार बताया गया था कि क्या-क्या खाना चाहिए, आपात स्थिति में क्या करना चाहिए और वे किन-किन चीजों के हकदार हैं।

तेजपुर, असम: भारत के पूर्वी छोर पर, सर्दियों की एक धूप भरी दोपहर में, एक ऐसी भूमि पर जहां देश भर में माताओं की मृत्यु का अनुपात सबसे ज्यादा है, वहां कुछ मर्द, बच्चे और लगभग 40 महिलाएं एक बैठक में शामिल हुई। इस बैठक में बताया गया कि किस प्रकार एक ‘टेक्स्ट संदेश’ महिलाओं को जीवन दान दे सकता है।

एक गैर लाभकारी परियोजना, एंड मैटर्नल मोर्टैलिटी नाउ (एंडएमएमनाउ) के साथ जुड़ी पैरालीगल कोऑर्डनैटर गीती ( बदला हुआ नाम ) कहती हैं, “ हमें यह सुनिश्चित करना है कि आप और आपका बच्चा दोनों बीमारी से मुक्त हों, नियमित जांच-प्रक्रिया पूरी करना आपका कर्तव्य है। और अगर उपचार की मांग करते समय आपके साथ गलत तरीके से बर्ताव किया जाता है तो आपको इसकी सूचना देनी चाहिए। ”

हम बता दें कि इस परियोजना के तहत स्थानीय समुदायों से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षत किया जाता है । वे माताओं को उनके अधिकारों के संबंध में जागरुक करती हैं । वे मुफ्त सरकारी सेवाओं देने से इनकार करने वाले अधिकारियों की सूचना भी देती हैं। यह सब किसी एंड्रॉइड फोन पर पाठ संदेश या टेक्स्ट मेसेज के माध्यम से किया जाता है, जो परियोजना से जुड़े लोगों के बीच सह-स्वामित्व वाली है और वह फोन उनकी वेबसाइट के साथ जुड़ा होता है।

महिलाएं गीती की बात सुनकर चुपचाप सुनती रहीं। जब उन्होंने कहा कि वे गर्भावस्था के दौरान नि: शुल्क जांच, रक्त परीक्षण और दवाएं प्राप्त करने के हकदार हैं, तो सबने एक साथ कहा कि शायद ही उन्हें कभी मुफ्त में कुछ भी मिला हो।

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महिलाएं, एन्डएमएमएनाउ प्रोजेक्ट के एक पैरालीगल कोऑर्डनैटर गीती को ध्यान से सुनती हुई। गीती इस तस्वीर में दिख नहीं रही है। गीती सामुदायिक बैठक के दौरान उन उपायों और अधिकारों के संबंध में बात कर रही थीं,जिससे गर्भवती महिलाओं के जीवन को बचाया जा सकता है।

यहां बैठक में आईं माताएं आदिवासी हैं, जो उत्तर असम के सोनीतिपुर जिले के मुख्यालय तेजपुर से लगभग 50 किमी पश्चिम, नारायणपुर चाय बागान में काम करती हैं। असम में 100,000 जीवित जन्मों पर 300 मौतों का मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) है। ये आंकड़े भारत में सबसे खराब और लगभग घाना (321) और सूडान (325) के बराबर हैं।

असम की मातृत्व मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत का दोगुना और घाना, सूडान के बराबर

Source: Ministry of health & family welfare; Maternal mortality ratio: Deaths per 100,000 live births

पिछले तीन सालों में, आदिवासी महिलाओं के टेक्स्ट-संदेश से सोनितपुर जिले के दो ब्लॉक के 16 चाय बागानों और गांवों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में विस्तार हुआ है। कार्यक्रम को प्रसारित करने के लिए लगभग 40 महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है। इसकी सफलता को देखते हुए दिल्ली में दलित महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए भी इस तरह के प्रयास किए गए हैं।

वर्ष 2014 से बाद से ‘एंडएमएमनाऊ प्रोजेक्ट’ के तहत पैरालीगल कर्मचारियों द्वारा 230 से अधिक उल्लंघन दर्ज किए गए हैं। इनमें से 91 मुफ्त चिकित्सा सेवाओं जैसे कि रक्त परीक्षण, संक्रमण, एम्बुलेंस और दवाइयां की मांग से संबंधित हैं। 82 आंगनवाडी केंद्रों द्वारा सामानों की पूर्ति न करने के मामले भी हैं जैसे कि सरकारी योजना के तहत सुरक्षित मातृत्व को सुनिश्चित करने के लिए घर ले जाने के लिए राशन और भोजन के लाभ की गारंटी।

एंडएमएमनाऊ प्रोजेक्ट के तहत सूचित उल्लंघन

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Source: EndMMNow Project; Figures for the period May 5, 2014, to March 8, 2017

पैरालीगल कर्मचारियों द्वारा भेजे गए पाठ या टेक्स्ट संदेश के सत्यापन और तथ्यों की खोज परक जांच के बाद एक संक्षिप्त रिपोर्ट तैयार होती है और उस रिपोर्ट को परियोजना की इंटरैक्टिव वेबसाइट पर डाला जाता है। हर तीन महीने में आयोजित सामुदायिक शिकायत मंचों के दौरान वे संदेश ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर के सामने प्रस्तुत किए जाते हैं। प्रोग्राम मैनेजर क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) को लागू करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इसी मंच में संभावित समाधानों पर चर्चा की जाती है। ‘एंडएमएमनाऊ प्रोजेक्ट’ के कर्मचारी भी सोनितपुर जिले के डिप्टी कमिश्नर के साथ मिलकर इस तरह के उल्लंघनों पर चर्चा करते हैं और समाधानों की सिफारिशें करते हैं।

गीती कहती हैं, "मैंने अस्पतालों में अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है। मैं मुद्दों को अधिकारियों के सामने ले कर आई हूं ,लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। आप सभी को भी जागरूक होना चाहिए। उसके बाद ही हमारे जैसी महिलाओं का दुख और दर्द कम हो पाएगा। हमें रहने और स्वस्थ रहने का हक है। "

देश भर में अक्सर गरीब महिलाएं हक नहीं जानती और अधिकारों से वंचित रहती हैं।

भारत भर में गर्भवती महिलाओं के लिए मुफ्त सेवाओं का भुगतान

असम के चाय बागानों में गर्भवती आदिवासी महिलाओं के बीच चिकित्सा उपेक्षा के मामले कोई एक नहीं हैं।

कम मातृ मृत्यु दर सुनिश्चित करने के लिए सरकार की कोशिश गरीब महिलाओं तक नहीं पहुंच रही है, जैसा कि इंडियास्पेंड और वीडियो वालन्टीर की रिपोर्ट से 15 फरवरी, 2017 को पता चला है। अस्पताल और नर्सों की कमी के साथ-साथ अपर्याप्त सार्वजनिक-स्वास्थ्य संरचना, स्वास्थ्य सुविधाओं की जर्जर स्थिति और देखभाल की गुणवत्ता की कमी भारत के एमएमआर को बढ़ाती है। एमएमआर की आंकड़ा 100,000 जीवित जन्मों पर 167 मौतों का है। ये आंकड़े श्रीलंका, भूटान, कंबोडिया और अरब देशों की तुलना में बद्तर है।

पिछले एक दशक में महिला साक्षरता में वृद्धि, देरी से विवाह, वित्तीय स्वतंत्रता, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल, बेहतर खाना पकाने की सुविधा और साफ पानी की आपूर्ति ने यह सुनिश्चित किया है कि भारतीय मां और बच्चे लंबे समय तक जीवित रहें।राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2015-16 (एनएफएचएस -4) के आंकड़ों के विश्लेषण के बाद इंडियास्पेंड की रिपोर्ट यही कहती है।

असम का एमएमआर 300 है, जो राष्ट्रीय औसत का लगभग दोगुना है। हाल ही में उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक असम उन 10 राज्यों में से एक है, जहां 29 फीसदी बच्चों का जन्म असपतालों में नहीं होता है। इस संबंध में राष्ट्रीय औसत 21 फीसदी है। यह वर्ष 2005-06 के आखिरी सर्वेक्षण के बाद से एक सुधार है। तब असम के 78 फीसदी बच्चों का जन्म सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में नहीं होता था। उस समय राष्ट्रीय औसत 62 फीसदी था। केंद्रीय सरकार की मातृ स्वास्थ्य योजना, जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) से इस मामले में सुधार हुआ है।

एंडएमएमनाउ प्रोजेक्ट यह दर्शाता है कि किस प्रकार हस्तक्षेप संभव है, विशेषकर उनके लिए जो तकनीक का उपयोग करते हैं और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित करते हैं।

प्रोत्साहन के लिए पहुंच सीमित, सरकार द्वारा चिकित्सा सहायता का वादा

एंडएमएमनाउ प्रोजेक्ट तीन गैर-सरकारी संगठनों के एक समूह द्वारा चलाया जाता है। ये एनजीओ हैं नजदीक, इंटरनेशनल सेंटर फॉर एडवोकेट्स अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन (आईसीएएडी), और प्रमोशन एंड एडवांसमेंट ऑफ जस्टिस, हार्मनी एंड राइट्स ऑफ आदिवासी ( पीएजेएचआरए )। ये संस्थाएं वर्ष 2014 में एक साथ आए थे।

महिलाओं में गीती ने पहली बार मां बनी बिश्वासी, लीला और अनिता से बातचीत की। ये सभी अपनी गर्भावस्था की अंतिम तिमाही में थीं। लेकिन केवल एक हफ्ते पहले ही उन्हें पहला प्रसवोत्तर जांच (एएनसी) प्राप्त हुआ था।

अनिता ने बताया, "आशा कार्यकर्ता ने हमें आयरन की गोलियां दीं, जो हम ले रहे थे, लेकिन उसने हमें कुछ और नहीं बताया। " बाकी का भी यही अनुभव था। वैसे यह पहली बार हुआ था कि उन्हें बताया गया था कि क्या खाना है, आपात स्थिति में क्या करना है और इस संबंध में उनके अधिकार क्या हैं। नियम के अनुसार इन सारी बातों की जानकारी उन्हें गर्भावस्था के आरंभ में मिलनी चाहिए थी।

20 साल की ओमिना ने लगभग घंटे भर के लिए अपने पांच महीने के शिशु को पालने में झुलाया। वह कमजोर दिखाई दे रही थी। उनके कान पर घाव दिख रहे थे। हमने जब उससे उसका हाल पूछा तो उसने कहा, “सब ठीक है”।

वहां मौजूद दो पैरालीगल में से एक- भीमा ( बदला हुआ नाम ) कहती हैं “यहां आदिवासी महिलाओं को कठिनाई की इतनी आदत है कि उन्होंने शायद ही कभी मदद की मांग की है। वे पोषण और देख-रेख के संबंध में बहुत कम जानती हैं। चुपचाप दर्द सहती हैं क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि मदद कहां से और कैसे मिलेगी।”

बैठक में उपस्थित अधिकांश महिलाएं ने कहा कि उन्होंने धेकाजुली में गर्भावस्था के दौरान सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) का दौरा किया था। वहां दवाओं और परीक्षणों के लिए भारी रकम देनी पड़ी। और कुछ को तो नर्स सेवा के लिए भी पैसे देने पड़े थे।

संस्थागत प्रसव के लिए जेएसवाई के तहत केवल कुछ मुट्ठी भर महिलाओं को 1400 रुपए का चेक प्राप्त हुआ था और किसी को भी राज्य संचालित ममोनी स्कीम के तहत तीन जन्मपूर्व जांच के बाद पोषण संबंधी सहायता के लिए 1,000 रुपए प्राप्त नहीं हुआ था। ज्यादातक चेक नकद में नहीं बहले, क्योंकि महिलाओं के पास बैंक खाते नहीं थे।

चाय बागानों में 95 फीसदी महिला कार्यकर्ताओं में है खून की कमी

असम में उच्च मातृ मृत्यु दर के कारणों में से एक है राज्य की महिला आबादी में एनीमिया का प्रकोप। एनएफएचएस -4 के मुताबिक, 15 से 49 वर्ष की उम्र के बीच राज्य में 46 फीसदी महिलाओं में खून की कमी थी। यह पिछले सर्वेक्षण की तुलना में सुधार है। पहले यह 69 फीसदी थी। लेकिन अब भी यह चिंता का एक प्रमुख कारण बना हुआ है। राष्ट्रीय औसत 55 फीसदी है।

संयुक्त राष्ट्र बाल फण्ड (यूनिसेफ) और असम मेडिकल कॉलेज द्वारा किए गए नमूना अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2014 में असम के डिब्रूगढ़ जिले के 16 चाय बागानों में पाया गया कि महिलाओं के बीच एनीमिया लगभग सार्वभौमिक (95 फीसदी) थी।

नमूना अध्ययन में यह भी पाया गया कि अधिकांश लड़कियों और महिलाओं को पौष्टिक भोजन न मिलने का कारण परिवार की निम्न आय है। चाय बागानों में रहने और काम करने वाली हजारों महिलाएं लंबे समय तक काम करती हैं, कम मजदूरी अर्जित करती हैं और अक्सर खराब स्थितियों में रहती हैं।

स्वंयसेवी संस्था नजदीक के साथ न्याय मामलों के सहयोगी अर्पणा चौधरी बताती हैं," पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं और कुशल कर्मियों की कमी के कारण, ज्यादातर चाय बागानों में गर्भवती महिलाओं को ज्यादातर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र या सार्वजनिक अस्पतालों में जाना पड़ता है जो आमतौर पर 10 किमी से अधिक दूरी पर हैं। इसका अर्थ है एम्बुलेंस या निजी कार के लिए लंबे समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. जिसके लिए परिवार को भुगतान करना पड़ता है।"

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एक सामुदायिक सभा के दौरान पुरुषों, बच्चों और नारायणपुर टी एस्टेट में लगभग 40 महिलाओं के समूह को संबोधित करते हुए स्वंयसेवी संस्था नजदीक के न्याय मामलों की सहयोगी अर्पणा चौधरी। ऐसी सभाओं में महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान मुश्किलों से उबरने के उपायों के बारे में शिक्षित किया जाता है । उन अधिकारों के बारे में सूचित किया जाता है, जिनकी वे हकदार हैं। उनकी शिकायतों को भी नोट किया गया है और उसे स्थानीय सरकार के अधिकारियों तक पहुंचाया जाता है।

जब एक महिला जन्म देने की पीड़ा को लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर पहुंचती है तो क्या होता है? यह देश भर में गरीब महिलाओं , विशेष रूप से ग्रामीण आदिवासी बेल्टों में रहने वाली महिलाओं की कहानी से साफ झलकता है। इस पर इंडियास्पेंड ने फरवरी 2017 में विस्तार से बताया है।

चौधरी कहती हैं, “वार्ड गंदे हैं, महिलाओं को कभी-कभी दूसरे अस्पताल में भी जाना जाता है। इसका मतलब हुआ उन्हें अधिक यात्रा करनी पड़ती है। उन्हें रक्त संक्रमण और दवाओं के लिए भुगतान करना पड़ता है । कर्मचारियों द्वारा अक्सर परेशान किया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है। ”

तेजपुर से लगभग 35 किलोमीटर पश्चिम ढेकियाजुली में सीएचसी तक जाने के बाद पता चलता है कि क्यों राज्य में गर्भवती महिलाओं पर केंद्र तक पहुंचने के समय जान जोखिम में रहता है।

क्यों सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र गरीब महिलाओं के लिए रहे हैं विफल?

ढेकियाजुली ब्लॉक में लगभग 236 गांवों और 21 से अधिक चाय बागानों में गर्भवती महिलाओं के लिए सीएचसी सुविधा केंद्र हैं। इन केंद्रों का ब्लड बैंक के बिना काम करना जारी है।

अप्रैल 2016 में मैंने एक महिला को बच्चे के जन्म के बाद दर्द से कहराते हुए देखा था। बच्चे के जन्म के 12 घंटे बाद भी उसे किसी डॉक्टर ने नहीं देखा। प्रसव के समय डॉक्टर ने जो दर्द निवारक लिखा था, उसके लिए भी उसके परिवार को भुगतान करना पड़ा। लेकिन उससे उसे कोई मदद नहीं मिली।

उसके बगल में ही एक और महिला बिस्तर पर बैठी थी। दर्द में होने के कारण वे अपने बच्चे को पकड़ने या बोलने में असमर्थ थी। रिश्तेदार असहाय हो कर केवल देख रहे थे।

दिसंबर 2016 में एक यात्रा के दौरान भी इसी तरह के दृश्य देखने मिले थे। वार्ड में बिस्तरों पर फटी चादरें बिछी हुई थीं। कहीं-कहीं एक बिस्तर पर दो मरीज लेटे थे। बाहर प्रसव पीड़ा में महिला दर्द से कराह रही थी। उसे देखने के लिए कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था और नर्सें कमरे में बैठी बातें करने में व्यस्त थीं।

क्षेत्र में एमएचएम को लागू करने के लिए जिम्मेदार ढेकियाजुली के ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर, दिबाकर हतिबोरुआ कहते हैं, “विभिन्न योजनाओं और चिकित्सा आपूर्ति के लिए धन मिलने में नियमित रुप से देरी होती है। '108' आपातकालीन सेवा के तहत केवल एक एम्बुलेंस है। यह पूरे क्षेत्र को कवर नहीं कर सकता है, इसलिए आवश्यकता पड़ने पर भी यह हमेशा उपलब्ध नहीं होता है। ” दिबाकर हतिबोरुआ आगे कहते हैं, "चाय बागानों में, प्रबंधन लाभ-उन्मुख होते हैं और श्रमिकों के स्वास्थ्य को उतनी प्राथमिकता नहीं देते । महिलाएं अशिक्षित और अनजान हैं। वे असहाय हैं। "

स्थानीय अधिकारियों और कार्यकर्ताओं के मुताबिक असम में ज्यादातर मातृ मृत्यु रोकी जा सकती है। ज्यादातर मामले चाय बागानों में दर्ज की जाती हैं।

बोलने से सोनितपुर में आया बदलाव

हालांकि असम में उच्च एमएमआर दर है। लेकिन वहां हाशिए पर रहे समुदायों से संबंधित बहुत कम या कोई आंकड़े मौजूद नहीं हैं। पहली बार ‘एंडएमएमनाउ प्रोजेक्ट’ ने इन समस्याओं में एक पैटर्न को हाइलाइट किया है। पैरालीगल्स द्वारा भेजे गए कोड पाठ संदेश ने पिछले दो सालों में बदलाव भी लाए हैं।

वर्ष 2015 में समुदाय रिपोर्टिंग के माध्यम से परियोजना की जारी पहली रिपोर्ट ‘नो टाइम टू लूज: फाइटिंग मैटर्नल एंड मोर्टालिटी ’ के बाद से क्षेत्र में 527 आंगनवाड़ी केंद्रों ने लगभग 27,000 गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बच्चों को राशन की नियमित आपूर्ति प्रदान की है।

वर्ष 2015 में समुदाय रिपोर्टिंग के माध्यम से परियोजना की जारी पहली रिपोर्ट ‘नो टाइम टू लूज: फाइटिंग मैटर्नल एंड मोर्टालिटी ’ के बाद से क्षेत्र में 527 आंगनवाड़ी केंद्रों ने लगभग 27,000 गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बच्चों को राशन की नियमित आपूर्ति प्रदान की है।

डीसी ने यह भी सुनिश्चित किया कि ढेकियाजुली सीएचसी में एक डॉक्टर को अल्ट्रासाउंड मशीन का इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाए ,ताकि मरीजों को टेस्ट के लिए दूसरी जगह नहीं जाना पड़े।

बेवजह गर्भवती महिलाओं को मंहगी दवाइयां लिखने की शिकायतों के कारण इस पर रोक लगी है। अगस्त 2016 में यहां सीएचसी ने अपना पहला सिजेरियन ऑपरेशन किया।

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तेजपुर से लगभग 35 किलोमीटर पश्चिम में ढेकियाजुली के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बिस्तर पर लेटी एक मां। बच्चे के जन्म के 12 घंटे बाद भी उसे किसी डॉक्टर ने नहीं देखा। प्रसव के समय डॉक्टर ने जो दर्द निवारक लिखा था उनके लिए भी उनके परिवार को भुगतान करना पड़ा, लेकिन उससे उसे कोई मदद नहीं मिली।

चौधरी कहती हैं कि, “उल्लंघन के संबंध में स्थानीय अधिकारियों को जानकारी है, लेकिन अक्सर यह नहीं पता कि परिवर्तन कैसे करें। हम परियोजना के माध्यम से उनकी मदद कर रहे हैं और उनके और आदिवासी समुदाय के बीच संवादहीनता को भी कम कर रहे हैं। ”

गांवों और चाय बागानों में सामुदायिक बैठकों के अतिरिक्त, नागरिक शिकायत मंच भी फरवरी 2016 से आयोजित किए गए हैं। महिलाएं स्थानीय अधिकारियों की मौजूदगी में अपनी समस्याओं के बारे में बताती हैं और समाधानों पर चर्चा की जाती है।

दो बच्चों की मां और पैरालीगल सबिना ( बदला हुआ नाम ) कहती हैं, “नर्स और आशा कार्यकर्ता सभी एक ही समुदाय से हैं, फिर भी वे जागरूकता की कमी का लाभ लेती हैं। इस प्रोजेक्ट के लिए स्वयंसेवक बनने के बाद मैंने बहुत कुछ सीखा है। समस्याएं जारी हैं, लेकिन मैं खुद के लिए और अन्य महिलाओं के लिए बोल सकती हूं। "

इस परियोजना में कुछ बाधाएं जरूर देखने को मिलीं। लेकिन इसके परिणाम ने इसे सामूहिक रूप से भारत के अन्य कोनों में भी दोहराने के लिए प्रोत्साहित किया है।

मोबाइल रिपोर्टिंग परियोजना दिल्ली की ओर

‘एंडएमएमनाउ प्रोजेक्ट’ के पास वर्तमान में लगभग 17 पैरालीगल हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर के लिए स्वयंसेवक के लिए समय निकालना एक चुनौती है। भीमा पीएजेएचआरए साथ एक बाल अधिकार परियोजना पर काम कर रही हैं । सबीना एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है। गीती कहती हैं, “कुछ महिलाओ की शादी हो गई है और वे दूर चली गयीं हैं। कुछ अन्य को काम और घरेलू जिम्मेदारियों से फुर्सत नहीं मिलती है। प्रगति धीमी रही है, लेकिन यह बंद नहीं हुई है। ”

स्वंयसेवी संस्था नजदीक के सह-संस्थापक जयश्री सतपुते कहती हैं कि सबसे बड़ी बाधा चाय बागानों में कंपनी के अधिकारियों तक पहुंच की है, जो उत्तरदायी नहीं हैं। वह कहती हैं, “वहां गतिविधियों का निरीक्षण करना मुश्किल है, इसलिए पैरालीगल के लिए उल्लंघन की रिपोर्ट मुश्किल हो जाता है।”नई दिल्ली में यह परियोजना अब अपनी दूसरी पहल - एसएमएस फॉर जस्टिस - पर है।

नजदीक आईसीएएडी समेत पांच अन्य गैर-सरकारी संगठनों के साथ पार्टनरशिप पर है, जिसमें 70 दलित महिलाओं को न सिर्फ प्रजनन-स्वास्थ्य से संबंधित उल्लंघनों की रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। पोषण, आवास सेवाएं और पानी और स्वच्छता के संबंध में भी उनको प्रशिक्षित किया जा रहा है।

दिसंबर 2016 के आखिरी सप्ताह में परियोजना के शुरू होने के बाद से पश्चिम दिल्ली के नांगलोई के भीम नगर झुग्गी से और बाढ़ोला में राजीव रतन आवास योजना (आरआरईए) से 20 पैरालीगलद्वारा 200 उल्लघनों की सूचना दी गई है।

अन्य दो मलिन बस्तियों में भी लगभग 50 और पैरागलगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है।

एसएमएस फॉर जस्टिस प्रोजेक्ट के तहत उल्लंघन की रिपोर्ट

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Source: SMS For Justice Project; Figures for the period December 23, 2016 to April 13, 2017

दिल्ली के छोटे इलाकों में बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य के मामलों में अधिकारों और उल्लंघन पर लोगों को जागरूक करते हुए सातपुते का विचार है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में हाशिए पर रहे समुदायों को सशक्त बनाने के लिए नए दृष्टिकोणों का इस्तेमाल चमत्कारी है।

इससे सरकार को विभिन्न प्रकार के मुद्दों के लिए जवाबदेह बनाया जा सकता है।गिति कहती हैं, "किसी भी महिला को सेवा या उपचार तक पहुंच से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि वह कहां रहती है या किस समुदाय से है। "

नोट: इस कहानी में तीन पैरालीगल के नाम उनकी पहचान को छुपाने के लिए बदल दिए गए हैं। उन्हें सरकार और चाय कंपनी के अधिकारियों से डर लगता है।

(संतोषिणी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं ।असम में रहती हैं। संतोषिणी ह्यूमन राइटस,डेवलपमेंट और जेंडर के मुद्दों पर लिखती रहती हैं। वह ‘रीप्रडक्टिव राइट्स एंड जस्टिस’ के लिए वर्ष 2016 में बिच मीडिया राइटिंग फेलो थीं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 22 अप्रैल 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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