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वर्ष 2015 में अपनाए गए 169 टिकाऊ विकास लक्ष्यों के हिस्से के रूप में दुनिया ने वर्ष 2030 तक गरीबी और भूख को खत्म करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन एक नई रिपोर्ट के अनुसार इस लक्ष्य में प्रगति के रूप में बढ़ता शहरीकरण एक चुनौती बन रहा है। भारत के लिए यह विशेष रुप से बड़ी चुनौती है, क्योंकि देश अल्प-पोषण और अत्यधिक पोषण जैसे दोहरे चुनौतियों का समाना कर रहा है।

‘इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी की गई वर्ष 2017 में जारी वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट में वर्ष 2016 की दुनिया में खाद्य नीति पर विकास की चर्चा की गई है। इसमें विशेष रुप से कम और मध्य आय वाले देशों में खाद्य सुरक्षा और पोषण के मामले में तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा की गई है।

छठी वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है, "भारत में विरोधाभासी स्थिति सामना करना पड़ता है। इसका तेजी से आर्थिक विकास कुपोषण में बहुत धीमी गिरावट के साथ जुड़ा होता है।"

रिपोर्ट कहती है कि देश ने अपना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए, जिसके तहत 9.94 करोड़ परिवार प्रति माह, प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम सब्सिडी वाले अनाज के हकदार हैं), मिड डे मील स्कीम ( जिसके तहत प्राथमिक और ऊपरी प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों को मुफ्त भोजन प्रदान किया जाता है ) और भोजन और पोषण असुरक्षा से निपटने के लिए आंगनवाड़ी केंद्र (बच्चों के भूख और कुपोषण से निपटने के लिए स्थापित आंगन केंद्र ) की गतिविधियों को जारी रखा है।

खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़ों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 11 फीसदी से कम लोग अल्प-पोषण से पीड़ित हैं। भारत के लिए यह आंकड़ा 15.2 फीसदी है।

भारत में अल्पपोषण आहार की प्रचुरता, 1990-2016

Source: Food & Agriculture OrganizationNote: Figures are three-year averages

भारत को चाहिए एक नया नजरिया

वर्ष 2011 की जनगणना से माइग्रेशन डेटा के अनुसार, वर्ष 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी इलाकों की ओर पलायन करने वाले 3.2 करोड़ लोगों में से 74 लाख लोगों ने काम / व्यवसाय के लिए पलायन किया है, जबकि 1.04 करोड़ लोगों ने परिवार के साथ अपना इलाका छोड़ा है।

भारत की करीब 17 फीसदी शहरी आबादी या 6.5 करोड़ से ज्यादा लोग झुग्गियों में रहते हैं, जो कि तीन दशकों में दोगुनी से अधिक हो गई है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने मार्च 2015 की रिपोर्ट में विस्तार से बताया है।

वर्ष 2012 के एक अध्ययन का हवाला देते हुए रिपोर्ट में बताया गया है कि कम से कम भारत की 78 फीसदी श्रम-शक्ति अनौपचारिक क्षेत्र (कृषि को छोड़कर) में कार्यरत है, जो ज्यादातर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में आधारित है।

वर्ष 2014 के इस संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 से 2050 के बीच भारत में 40.4 करोड़ शहरी नागरिकों के जुड़ने का अनुमान लगाया गया है, जो कि दुनिया भर में शहरी जनसंख्या में अनुमानित वृद्धि का 16 फीसदी है।

आईएफपीआरआई की रिपोर्ट कहती है, “गरीब शहरी निवासियों को पौष्टिक भोजन, पर्याप्त रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, पर्याप्त पानी, और स्वच्छता तक पहुंचने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे खाद्य सुरक्षा और पोषण प्रभावित होते हैं। ”

रिपोर्ट में शहरी क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा पर नए और पूर्ण आंकड़ों की कमी को व्यापक अनुसंधान द्वारा तत्काल हल किए जाने का सुझाव दिया गया है।

अधिकांश कल्याणकारी कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों पर केंद्रित होते हैं और इसके कारण शहरी गरीब दयनीय बने रहते हैं।

आईएफपीआरआई के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय कार्यालय के रिसर्च फेलो और रिपोर्ट के एक लेखक अंजनी कुमार ने इंडिया स्पेंड को बताया, “ विकासात्मक प्रवास के विपरीत, शहरी क्षेत्रों की ओर आपदात्मक या गरीबी की वजह से प्रवास खाद्य असुरक्षा के मुद्दे का शहरीकरण कर रही है। ”

हालांकि चुनौती से निपटने में ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति सकारात्मक रवैया है। उदाहरण के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का लक्ष्य है कि 75 फीसदी ग्रामीण घरों और 50 फीसदी शहरी परिवारों को एनएफएसए के तहत शामिल करना है। कुमार कहते हैं, अपने आधार नंबर के साथ पीडीएस लाभार्थियों को जोड़ने से दोहराव और चोरी होने से बचने में मदद मिलेगी। साथ उन्होंने यह भी कहा कि, पीडीएस में वृद्धि की दक्षता से 30 फीसदी अधिक कवरेज सक्षम हो पाएगा, जिससे शहरी झुग्गी बस्तियों तक पहुंच बनेगी।

अल्प-पोषण और अत्यधिक पोषण का दोहरा बोझ

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 (एनएफएचएस -4) के अनुसार, भारत को अब अल्प-पोषण और अत्यधिक पोषण के दोहरे बोझ का सामना करना पड़ रहा है। अपने देश में पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चे स्टंड ( उम्र के अनुसार कम कद ) और 21 फीसदी वेस्टेड हैं ( कद के अनुसार कम वजन )। 2012 में छह महीने के लिए एक अध्ययन आयोजित किया गया था जिसमें 27 स्कूलों से 5 से 18 आयु वर्ष के 18,001 छात्रों को शामिल किया गया था। अध्ययन में पाया गया कि 9.5 फीसदी अधिक वजन और 3 फीसदी मोटापे का शिकार हैं। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने अप्रैल 2016 में विस्तार से बताया है।

इसके अलावा एनएफएचएस -4 के आंकड़ों के मुताबिक, 22.9 फीसदी और 20.2 फीसदी महिलाओं और पुरुषों का बॉडी मास इंडेक्स सामान्य से नीचे है, जबकि 20.7 फीसदी महिलाएं और 18.6 फीसदी पुरुष मोटापे या अधिक वजन से ग्रसित हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में जहां कम बॉडी मास इंडेक्स अधिक देखे गए, वहीं शहरी क्षेत्रों में मोटापा और अधिक वजन अधिक पाए गए।

वयस्कों की पोषण संबंधी स्थिति, 2015-16

Source: National Family Health Survey, 2015-16; *Body Mass Index < 18.5 kg/m2; **Body Mass Index > 25.0 kg/m2

पोषण संक्रमण: बदलते आहार के साथ नवीनीकृत नीतियों की जरुरत

अध्ययन से पता चलता है कि, शहरीकरण के साथ, लोगों के आहार बदल रहे हैं:

  • शहरी आबादी द्वारा अधिक कैलोरी खपत होने की संभावना होती है। फिर भी इन कैलोरी का बहुत कम अनुपात अनाज या कार्बोहाइड्रेट से आता है। ज्यादा अनुपात में वसा आती है।
  • शहरी जनसंख्या अन्य प्रोटीन की तुलना में मांस ज्यादा खाती है या ग्रामीण समकक्षों की तुलना में विभिन्न पशु प्रोटीन स्रोतों का उपयोग अधिक करती है, जबकि डेयरी उत्पादों का उपयोग कम करती है।
  • शहरी जनसंख्या अधिक फलों और सब्जियों का उपयोग करती है। हालांकि इन खाद्य पदार्थों की खपत में अमीर और गरीब शहरी आबादी के बीच अंतर है।
  • शहरी निवासियों में बच्चों के बीच मीठा भोजन, घर से दूर भोजन, और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ सहित अधिक गैर-पारंपरिक खाद्य पदार्थों का उपयोग ज्यादा होता है।

आईएफपीआरआई की रिपोर्ट में उद्धृत दिल्ली में एक शहरी झुग्गी कॉलोनी के एक अध्ययन में पाया गया कि 66 फीसदी घरों में वसा वाले डिब्बाबंद स्नैक्स का उपभोग होता है, जिसमें से दो-तिहाई घरों में इसकी रोज खपत होती है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की शहरी आबादी में से पुरुषों में हाई ब्लड प्रेशर और हृदय रोग की समस्या ज्यादा है,जबकि अन्य आबादी उच्च कोलेस्ट्रॉल की समस्या से जूझ रही है।

अब अधिक लोग 'शहरी आहार' को अपना रहे हैं, इसलिए खाद्य आपूर्ति मे कुछ बदलाव की जरूरत है। उदाहरण के लिए लोग चावल और गेहूं जैसे मुख्य खाद्य से दूर हो कर सब्जियां, फल, डेयरी, मांस और मछली की तरफ बढ़ रहे हैं।

इसके लिए कोल्ड स्टोरेज इत्यादि जैसे अधिक बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है। शहरी उपभोक्ताओं के बीच पारंपरिक बाजारों की बजाय खुदरा सुपरमार्केट को भी वरीयता दिए जाने की जरूरत है।

आईएफपीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली, बीजिंग और ढाका में आलू और चावल की कीमतों में मार्जिन बहुत कम है। औसतन, एक किसान ने दिल्ली में चावल के लिए खुदरा मूल्य पर 69 फीसदी तक बनाया है।

कुमार कहते हैं, इसका कारण एक तो यह है कि सरकार धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है और फलों और सब्जियों की तुलना में चावल को संभालने का खर्च कम है।

पोर्ट फार्मगेट फंक्शन जिसमें भंडारण, परिवहन और वितरण आते हैं,कीमत और रोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, नीति निर्माताओं को इस तरफ अधिक ध्यान देना चाहिए। मूल्यों में बढ़ोतरी शहरी गरीबों को प्रभावित करता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि, “सरकार ने अप्रैल 2016 में एक एकीकृत कृषि विपणन ‘ई-प्लेटफार्म’ का शुभारंभ किया, जो किसानों को बाजार तक पहुंच बनाने में मील का पत्थर था।”

आईएफपीआरआई के कुमार ने इंडिया स्पेंड को बताया कि कुछ राज्यों के कुछ किसान इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार और कृषि उत्पाद मार्केट समितियों से लाभान्वित हुए हैं, लेकिन परिणाम बड़े पैमाने पर नहीं हैं। खरीदारों / उपभोक्ताओं के साथ सीधे संपर्क की कमी के कारण किसानों को मुश्किलें हो रही हैं।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि, “जैसे-जैसे खाद्य और कृषि बाजार विकसित होंगे, गुणवत्ता और खाद्य सुरक्षा मानक महत्वपूर्ण होते चले जाएंगे। इन मुद्दों पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। ”

‘एक्सेस टू न्यूट्रिशन इंडेक्स’ इंडिया स्पॉटलाइट- 2016 के अनुसार, नौ प्रमुख भारतीय खाद्य और पेय कंपनियों द्वारा बेची जाने वाली 12 फीसदी पेय पदार्थ और 16 फीसदी से अधिक खाद्य पदार्थ "उच्च पोषण गुणवत्ता" वाले नहीं हैं। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने मार्च 2017 में विस्तार से बताया है।

(माधवापेद्दी डेस्क संपादक हैं, इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेंजी में 24 मार्च 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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