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पठानमथिट्टा, केरल: पिछले पांच महीनों से, 42 वर्षीय गिरिधरन* काम पर नहीं जा पा रहे हैं। केरल के पठानमथिट्टा जिले में ऑटो चलाने वाले गिरिधरन को पिछले साल दिसंबर में तपेदिक (टीबी) होने का पता चला था और दवाओं का साइड इफेक्ट्स इतना गंभीर हुआ कि फरवरी में उन्हें 13 दिनों तक अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाला सदस्य, गिरिधरन को फैमिली हेल्थ सेंटर (एक अपग्रेड किया गया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) में उनके डॉक्टरों द्वारा ‘उपचार सहायता समूह’ के पास भेजा गया था। यह एक कार्यक्रम है जो 2012 में पठानमथिट्टा जिले में शुरु हुआ था और यह टीबी रोगियों को विशेष रूप से सभी प्रासंगिक सरकारी योजनाओं के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों और परोपकारी एजेंसियों और व्यक्तियों के दानों तक पहुंच प्रदान करने के लिए सामाजिक सहायता प्रदान करता है। अधिकांश टीबी रोगी सामाजिक रूप से कमजोर और गरीब होते हैं, और बीमारी उन्हें शारीरिक रुप से और कमजोर बना देती है। उपचार को बनाए रखने में मदद के लिए, उन्हें समर्थन की आवश्यकता है। उपचार सहायता समूह यह काम इतनी सफलतापूर्वक कर रहा है कि 99 फीसदी से अधिक मामले उनके उपचार व्यवस्था को पूरा करते हैं, जो बीमारी के पुनरावर्तन और दवा प्रतिरोध की वृद्धि को रोकने के लिए आवश्यक है।

केरल के सफल टीबी नियंत्रण कार्यक्रम का पता लगाने वाली हमारी श्रृंखला के तीसरे हिस्से में, इंडियास्पेंड ने पता लगाया कि कैसे पठानमथिट्टा ने दवा प्रतिरोधी टीबी के खिलाफ भारत के संघर्ष का समाधान किया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली की फरवरी 2018 की हर टीबी रोगी को पोषण के लिए प्रति माह 500 रुपये देने के घोषणा के प्रकाश में जिला के अनुभव को महत्व मिला है। क्या बिना-नकद, सामुदायिक नेतृत्व वाले समर्थन प्रयास से जैसे पठानमथिट्टा में हुआ, जरूरतों को बेहतर तरीके से सेवा मिल सकती है?

यह काम किस प्रकार करता है?

पठानमथिट्टा के जिला टीबी अधिकारी जीनु थॉमस कहते हैं, "लगभग 70 फीसदी टीबी रोगी गरीबी रेखा से नीचे हैं। अक्सर, टीबी उपचार के शुरुआती चरण में (स्थायी दो महीने), वे काम पर नहीं जाते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि रोगी फॉलो-अप करना नहीं छोड़े, हम उसकी सहायता करते हैं।”

जरूरतमंद रोगी को पहली बार सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा पहचाना जाता है। उपचार सहायता समूह तब यह निर्धारित करने के लिए एक बैठक आयोजित करता है कि रोगी विभिन्न सरकारी योजनाओं या धार्मिक समूहों, गैर-सरकारी संगठनों या समुदाय के सदस्यों में से दान करने के इच्छुक किस प्रकार की सहायता कर सकते हैं। बैठक में एक सहज समाधान तलाशा जाता है।

एक रजिस्टर उन सभी मरीजों का रिकॉर्ड रखता है, जिन्होंने उपचार सहायता समूह से समर्थन मांगा है।

गिरिधरन के मामले में, ग्राम पंचायत के अध्यक्ष कला अजीत और उपाध्यक्ष जेम्स के. सैम ने स्थानीय गैर सरकारी संगठन से पोषण समर्थन की व्यवस्था की, जिसने जून 2018 में उन्हें कई महीने के चावल, अनाज और तेल भेजा। गिरिधरन ने इंडियास्पेन्ड को बताया कि जुलाई 2018 के बाद वह काम पर लौटने के लिए खुद को सक्षम महसूस कर रहा था।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक 'टीबी के इलाज का फॉलो- अप या अनुपालन नहीं करने वाले’ टीबी रोगी वे होते हैं जिन्होंने इलाज शुरू नहीं किया है, या जिसका उपचार लगातार दो महीने या उससे अधिक समय तक बाधित हो गया था।

टीबी को खत्म करने की राष्ट्रीय सामरिक योजना (2017-25) ने नोट किया कि उपचार शुरू करने वालों में से फॉलो-अप न करने वाले मामले ज्यादा हैं ,जिन्हें स्वीकारा नहीं जा सकता– 12 फीसदी से ऊपर। थॉमस बताते हैं कि, पठानमथिट्टा में तीन साल में फॉलो-अप के लिए 1 फीसदी से कम रोगी पीछे हटे हैं।

यह कैसे शुरू हुआ ?

2011 में, पठानमथिट्टा में फॉलो-अप से पीछे हटने वाले मरीजों की दर 10 फीसदी थी। तत्कालीन जिला टीबी अधिकारी, जे मणिकांतन, इसका एक समाधान चाहते थे।

मणिकांत, जो अब पड़ोसी कोल्लम जिले के एक डिप्टी जिला चिकित्सा अधिकारी हैं, बताते हैं, "जब हमने डेटा का विश्लेषण किया और उन रोगियों से बात की, जो उस समय फॉलो-अप के लिए नहीं गए थे तो हमने पाया कि मरीज ज्यादातर आदिवासी थे या गरीब लोग थे। वे पहाड़ी इलाकों में रहते थे और अस्पताल उनके लिए उपलब्ध नहीं था। कई शराब का सेवन करते थे।”

कुछ रोगी दवाएं लेने में सक्षम नहीं थे, क्योंकि उनके घर पर उनके लिए राशन नहीं था। इसकी वजह यह थी कि वे टीबी के साथ कमजोर होते गए और काम नहीं कर पाए।

माणिकांतन ने मरीजों को अनौपचारिक रूप से मदद के लिए प्रयास करने का फैसला किया। एक रोगी नारनमुजू सप्ताह में तीन इंजेक्शन के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) का दौरा नहीं कर रहा था, क्योंकि उसके पास यात्रा के लिए पैसे नहीं थे।

मणिकांतन ने कहा, "संक्रमण फैलाने के बारे में कुछ आशंकाएं थीं, 'लेकिन हमने उन्हें समझाया कि अगर सावधानी बरती जाए तो संक्रमण फैल जाने की आशंका कम हो जाती है।"

रिक्शा चालक मरीजों को मुफ्त में लेने और छोड़ने के लिए राजी हुए। यह रोगी फॉलो अप के लिए पीछे हटने वाले व्यक्ति से इलाज के जरिए ठीक होने वाला पहला आदमी था।

धीरे-धीरे, माणिकांतन ने स्थानीय समुदाय के नेताओं से मदद लेने का फैसला किया। पंचायत, चर्च और ट्रेड यूनियन नेताओं से सही संबंध बनाने के बाद वे मदद करने के लिए सहमत हुए। अब सिर्फ एक फोन कॉल का सवाल था।

राज्य के डब्ल्यूएचओ सलाहकार शिबू बालकृष्णन बताते हैं, "राज्य में मजबूत स्थानीय स्व-सरकार ने इन मरीजों की मदद करके एक बड़ा परिवर्तन किया है।"

केरल देश के कुछ राज्यों में से एक है, जहां राज्य के बजट में स्थानीय स्व-सरकार के लिए निधि निर्धारित की जाती है, जैसा कि विकास अनुसंधान गैर-लाभकारी केरल डेवलपमेंट सोसायटी के अध्यक्ष जैकब जॉन ने इंडियास्पेंड को बताया।

उन्होंने कहा, "कई अन्य राज्यों में, पंचायत को धन की उपलब्धता का आश्वासन नहीं दिया जाता है।केरल में न केवल स्थानीय सरकार के पास अपना धन है, बल्कि यह अनिवासी भारतीयों के साथ समुदाय से धन जुटाने में भी सक्षम है। धार्मिक संस्थान भा एक प्रमुख योगदानकर्ता हैं। यह पंचायत को उनके धन का उपयोग करने के लिए एक नया दृष्टिकोण देता है।"

जॉन बताते हैं, “प्रभावी स्वास्थ्य प्रणालियों को बनाए रखना पंचायत प्रणालियों के प्रमुख कार्यों में से एक है, जो राज्य सरकार के साथ संयुक्त रूप से स्वास्थ्य विभाग को नियंत्रित करते हैं। कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मजबूत पंचायत प्रणाली भी है, जो पठानमथिट्टा मॉडल का उपयोग कर सकते हैं।”

हट रहा है कलंक

2012 के अंत तक, इस समर्थन को उपचार सहायता समूह के रूप में औपचारिक रूप दिया गया था। समूह में दो घटक हैं - एक तकनीकी समूह, जिसमें चिकित्सा अधिकारी, स्वास्थ्य कर्मचारी या टीबी दवाइयों के प्रदाता शामिल हैं, जो ज़रूरतमंद रोगियों को समर्थन के लिए संदर्भित करते हैं; और पंचायत नेताओं, गैर सरकारी संगठनों, राजनीतिक दल के नेताओं, स्थानीय परोपकारी, श्रमिक संघों और धार्मिक नेताओं के रूप में जमीनी समूह, जो मदद कर सकते हैं।

थॉमस ने कहा, "हम ऐसा दिखाते हैं कि रोगी आर्थिक रूप से समर्थित नहीं है, बल्कि यहां मानवता की भावना काम कर रही है।"

अब 31 वर्षीय मनोहर* का मामला लें। वह अपने 63 वर्षीय मां के साथ रहता है। वह 2016 में टीबी से संक्रमित हुआ। वह एक पेंटर था, और वह अपने परिवार का एकमात्र कमाई करने वाला सदस्य था। मनोहर ने कहा, "मैंने छह महीने तक काम नहीं किया था।"

उस समय मनोहर का निदान किया गया था। नौसेना में काम करने वाले एक आदमी ने ज़रूरतमंद रोगियों की मदद के लिए चेनरीरिया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को धनराशि दान की थी। मनोहर उन मरीजों में से एक था, जिसको इस दान से लाभ मिला। उसे हर महीने चावल, तेल और अनाज दिया गया था। उनकी मां ने बगीचे में कुछ सब्जियों उगाई, जिससे उस मुश्किल वक्त में उन्हें मदद मिली।

‘उपचार सहायता समूह’ परामर्श भी देता है। चेन्नारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) प्रसन्ना एम. के. ‘उपचार सहायता समूह’ के सदस्य हैं। वह एक 60 वर्षीय रोगी को याद करती हैं, जिन्होंने टीबी की दवा लेने से इनकार कर दिया था। प्रसन्ना ने कहा, "मैं उसके घर गया और उसे समझाया कि अगर उसने अपनी दवाएं शुरू नहीं की हैं, तो वह बीमारी को अपने परिवार के सदस्यों को फैलाएगा। फिर उन्होंने इलाज शुरू किया।"

थॉमस ने बताया कि ‘उपचार सहायता समूह’ का परामर्श रोगी को रोग के कलंक से उबरने में मदद करता है। कुछ मरीजों ने धूम्रपान बंद कर दिया है या पीने छोड़ दिया है और इस हस्तक्षेप के लिए उन्हें धन्यवाद।

पठानमथिट्टा जिला टीबी अधिकारी जीनु थॉमस मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्रसन्ना एम.के. के साथ

परिणाम को सत्यापित करना

‘उपचार सहायता समूह’ को औपचारिक बनाने के बाद, जिला टीबी इकाई ने अपने हस्तक्षेप से पहले और बाद में फॉलो-अप मामलों में पीछे हटे दर पर एक अध्ययन किया।

2015 में इंडियन जर्नल ऑफ ट्यूबरकुलोसिस में प्रकाशित अध्ययन में उल्लेख किया गया था कि 2013 की तीसरी तिमाही की ओर, धुंध-सकारात्मक मामलों के बीच फॉलो-अप से पीछे हटना शून्य हो गया था, और उसके बाद शून्य रहा।

थॉमस जानकारी देते हैं, "2012 से, हमारे पास फॉलो-अप के लिए केवल नौ टीबी रोगी पीछे हटे। इनमें से अधिकतर मरीज शराब का सेवन करते थे। "

राज्य अब पलक्कड़, कोझिकोड और कोल्लम जिलों में इस मॉडल को दोहराने की योजना बना रहा है। तिरुवल्ला शहर में, बिलिवर्स मेडिकल कॉलेज के सामुदायिक चिकित्सा विभाग से एबेल के. सैमुअल से मदद के साथ, न केवल बलगम-सकारात्मक मामलों पर, बल्कि कार्यक्रम के प्रभाव सभी प्रकार के उपचार बाधाओं पर पठानमथिट्टा जिला भी अध्ययन करने जा रहा है। इस अध्ययन को केंद्रीय टीबी डिवीजन द्वारा संचालित बेंगलुरू स्थित संस्थान ‘नेशनल ट्यूबरकुलोसिस इंस्टीट्यूट’ द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है। हमारा लक्ष्यय है कि ‘फॉलो-अप से पीछे हटना' जैसे शब्दों को पीछे छोड़ दें और हमारे बीच के डॉक्टरों के बीच "उपचार में बाधा" जैसे शब्द भी न आएं। थॉमस कहते हैं, "हम अब (एकल) दिन के इलाज में बाधाओं की जांच और अध्ययन करना चाहते हैं।"

* मरीजों के नाम उनकी गोपनीयता की रक्षा के लिए बदल दिए गए हैं।

यह टीबी के खिलाफ केरल की लड़ाई पर चार आलेखें की श्रृंखला का तीसरा भाग है। पहला आलेख आप यहां और दूसरा आलेख यहां पढ़ सकते हैं।

( राव स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 10 अक्टूबर 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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