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“हाफ अ बिलियन राइज़िंग:द इमरजेंस ऑफ इंडियन विमन–एक ऐसी किताब जो भारतीय महिलाओं की शिक्षा में हो रही वृद्धि एवं उनके सशक्तिकरण के संबंध में विस्तार पूर्वक बताता है।साथही यह किताब समाज संचालक के परिवर्तन, सामाजिक-आर्थिकप्रभाव(अच्छेएवंबुरेदोनों ) एवं आवश्यक परिवर्तन, विशेष कर सामाजिक-व्यवहार जो परिवर्तनको स्वीकार करने के लिए ज़रुरी है, विषयों पर चर्चा करती है।यहकिताब, मुख्य रूप से लड़कियों और महिलाओं, विशेष रुप से वंचित समूहों की महिलाओं के साथ साक्षात्कार की एक श्रृंखला के माध्यम से हमें इस कहानी और इसके प्रभाव के विषय में बताती है।साथ ही हिंदी फिल्मों, टीवी धारावाहिकों एवं संस्कृति सहित कई प्रासंगिक आंकड़ों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।”

पेश है मुख्य अंश:

चंद्रा की शादी के दो—तीन साल के भीतर ही उसकी छोटी बहन की भी शादी हो गई। यह बहुत अलग भारत था। वर्ष 1951 में हुए पहली जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कुल साक्षरता दर 18.33 फीसदी दर्ज की गई थी जिसमें से महिलाओं का साक्षरता दर बहुत कम, 8.86 फीसदी थी। 1951 में भारतीयों के लिए औसत जीवन प्रत्याशा इकतीस साल थी। लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती थी एवं उन दिनों बाल विवाह होना आम बात है।

क्या कानून से मिली मदद? यदि कहानियों की सबूतों पर नज़र डालें तो शायद यह सच लगता है। कानून के प्रवर्तन एवं शिक्षा से भी काफी मदद मिली है। बाल विवाह के खिलाफ सामाजिक जागरुकता भी सामन्य रुप से महत्वपूर्ण है हालांकि बाल विवाह जैसी गंभीर समस्या जड़ से समाप्त नहीं हो पाया है। बाल विवाह जैसी घटनाएं ज़रुर कम हुई हैं लेकिन अब भी कई जगहों पर यह प्रचलन बड़ी मात्रा में जारी है। हालांकि बाल विवाह जैसी गंभीर समस्या केवल भारत तक ही सीमित नहीं है लेकिन देश में यह व्यापक रुप से फैला हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक विश्व में होने वाले कुल बाल विवाह में से 40 फीसदी घटनाएं भारत में होती हैं। वर्तमान में भारत में 47 फीसदी लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की आयु से पहले होने के आंकड़ों के साथ, बाल विवाह के मामले में देश तेरवें स्थान पर है।

मौजूदा भारत में महिलाओं की स्थिति

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युवा उम्र में लड़के या लड़कियां पूरी तरह परिपक्व नहीं होते और नही उन्हें अपने अधिकार, कर्तव्यों एवं ज़िम्मेदारियों के विषय में अधिक जानकारी होती है। कम उम्र की दुल्हन ( बाल विवाह में बनीं दुल्हनें ) शारीरिक एवं मानसिक रुप से कमज़ोर होती हैं और आसानी से मातृ मृत्यु दर , प्रजनन परिणामों, घरेलू हिंसा जैसी बुरी प्रभावों का हिस्सा बनती हैं। 15-19 आयु वर्ग में युवा विवाहित लड़कियों में मृत्यु का मुख्य कारण कम उम्र में गर्भ धारण करना है। 20 से 24 वर्ष की आयु में लड़कयों के मुकाबले 15 से 19 वर्ष की आयु में गर्भ घारण एवं जन्म देनें वाली बच्चियों पर मौत का खतरा दो गुना अधिक बढ़ जाता है।जबकि 15 वर्ष के कम उम्र में गर्भ धारण एवं बच्चे को जन्म देने वाली बच्चियों पर मौत का खतरा पांच गुना अधिक होता है। युवा अनपढ़ लड़कियां या कम पढ़ी लिखी लड़कियों घरेलू हिंसा एवं उत्पीड़न की शिकार होने की संभावना अधिक होती है। आमतौर पर परिवार में ऐसी लड़कियों की कोई शक्ति नहीं होती है।


मैने सायरा से पूछा कि जब उसने अपनी पढ़ाई जारी रखने की सोची तो उसकी मां को उसका समर्थन देने के लिए किस चीज़ ने प्रेरित किया? “मेरी मां के ज़माने में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता था। लेकिन अब हम पढ़ाई कर रहे हैं। मेरी बुआ ( पिता की बहन ) ने कक्षा सात तक शिक्षा प्राप्त की है लेकिन अब वह चाहती हैं कि उनकी बेटियां अधिक पढ़ें। मेरी मां भी मेरी बुआ की लड़कियों से बहुत अधिक प्रभावित हैं। वह कहती हैं कि यदि वे यह ( स्नातक ) कर सकती हैं तो तुम क्यों नहीं। लेकिन कभी-कभी मेरी मां आस-पड़ोस के लोगों की बातों में भी आ जाती हैं।” प्रश्न के जवाब में सायरा ने हमें बताया। यह गैर सरकारी संगठनों की सही रोल मॉडल और सतत जमीनी स्तर पर हस्तक्षेप के महत्व को रेखांकित करता है।

सायरा की कहानी कई स्तरों पर आकर्षक है। सायरा की कहानी सामान्य नहीं है क्योंकि आमतौर पर घरों में लड़कियों के मुकाबले लड़कों की शिक्षा को महत्व दी जाती है लेकिन सायरा के घर में सायरा के भाईयों की बजाए सायरा की पढ़ाई को प्राथमिकता दी जा रही है। सायरा का बड़ा भाई ग्यारहवीं कक्षा में विफल रहा है और अब टीवी सेट और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मरम्मत के लिए एक मैकेनिक के रूप में काम कर रहा है। वह उर्दु माध्यम स्कूल में पढ़ता था। "हम ना , मुसलमान हैं , सायरा मुझसे ऐसे कहती है कि जैसे उनके लिए मुस्लिम माध्यम स्कूल में पढ़ना स्वभाविक बात है। उसका छोटे भाई भी उर्दू स्कूल में पढ़ाई कर रहा है और यह कल्पना कर पाना कि उसका भविष्य उनके बड़े भाईसे बहुत अलग हो जाएगा .. मुश्किल है।

इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सायरा एक रोल माडल के रुप में उभर रही है। कभी-कभी उसके भाई उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए भी बोलते हैं। हाल ही में उसके पड़ोस में रहने वाले कक्षा चार में पढ़ने वाले लड़के ने उसे पढ़ाई में मदद करने के लिए भी बोला है।


मेघना ने अपने पिता से प्रभावित हो कर फाईनेंस को कैरियर के रुप में चुना। मेघना के पिता भी फाईनेंस प्रोफेश्नल हैं। साथ ही भारत में कई सफल फाईनेंस प्रोफेश्नल महिलाओं की कहानी ने भी मेघना को खासा प्रभावित किया है। हमसे बातचीत के दौरान मेघना ने सीईओ और एक्सिस बैंक की प्रबंध निदेशक, शिखा शर्मा का विशेष उल्लेख किया। मेघना ने कहा कि"वह एक औरत होने और अपने बच्चों के अनदेखी के बावजूद उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में बहुत अच्छी तरह काम किया है। मैं वास्तव में उनकी प्रशंसा करती हूँ” ।

मेघना के वाक्यांश में “बावजूद” शब्द का इस्तेमाल से मेरा मन कौतुहल से भर गया। मैंने उसे उसे विस्तार में समझाने के लिए कहा। क्या आपको लगता है कि आज भी यहां भेदभाव किया जाता है?“ऐसी बात नहीं है। मैंने आप-पास देखा है कि बच्चे होने के बाद उनकी देख-रेख करने के लिए परिवार की ओर खासा दबाव होता है। आमतौर पर महिलाओं बच्चों के जन्म के बाद करीब साल भर के लिए छुट्टी पर चली जाती हैं। जैसा कि मेरी मां....मेरी मां काम करती थीं...लेकिन मेरे जन्म के बाद उन्होंने काम छोड़ दिया। उसके बाद मालिनी का जन्म हुआ। कुछ सालों के बाद उन्होंने दोबारा काम करना शुरु किया। शिखा आंटी के मामले में उन्हें कैरियर के बीच से छुट्टी नहीं लेनी पड़ी। उनके पास उनकी माता-पिता एवं सास-ससुर का पूरा समर्थन था। यह उनके लिए बहुत अच्छा साबित हुआ। आमतौर पर माना जाता है कि बच्चे पालना केवल मां की ही ज़िम्मेदारी है। यही बात महिलाओं के कैरियर के लिए गलत साबित होती है।”

तो क्या यह सोच बदल रही है या आपके ज़माने में सोच में बदलाव आएगी?

“मुझे लगता है...हां (और एक बड़ी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आती है ) मुझे लगता है कि आने वाले समय में अधिक लड़के घर पर रहेंगे...मुझे पूरा यकीन है...”

पहले के पृष्ट में हमनें चर्चा की कि किस प्रकार और क्यों कार्यस्थल पर महिलाओं की मौजूदगी बढ़ रही है। सही नीतियां एवं कार्यस्थल का सकारात्मक एवं बेहतर माहौल महिलाओं की उपस्थिति और अधिक दर्ज कराने में सफल होगा। भारत की जनसांख्यिकीय लाभांश को नियंत्रण में लाने के विषय पर काफी चर्चा होती है जबकि कार्यस्थल पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के विषय पर शायद की चर्चा होती है। इस विषय पर चर्चा होनी आवश्यक है। नीति निर्माताओं, सरकार, गैर सरकारी संगठन एवं महिलाओं के मुद्दे पर काम करने वाली संस्थाओं को यह सोचना पड़ेगा कि नए ज़माने की लड़कियों एवं महिलाओं के साथ किस प्रकार काम किया जाए जो पहले से अधिक शिक्षित एवं जागरुक हैं।


तनवी ने पटना मेडिकल कॉलेज ( पीएमसीएच ) से डाक्टर बनने की पढ़ाई की फिर बाद में पैथोलोजी में विशेषज्ञता हासिल की। एक ऐसे ज़िले से जहां की साक्षरता दर अब भी 26.9 फीसदी है,( राष्ट्रीय साक्षर दर 65.5 फीसदी है ) वहां से तनवी को आगे पढ़ने के लिए किस चीज़ ने प्ररित किया? कौन थे उसके रोल मॉडल ? तनवी ने बाताया “प्रेरणा मेरी मां थी...”। कोलकाता से भावनगर....फॉर्बीसगंज...हर जगह कहानी एक ही है...

तनवी बिहार के काफ नामी-गिरामी परिवार से ताल्लुक रखती है, उसने मुझे बताया की “...हमारे पास बहुत जमीनी संपत्ति है। मैं तीन बहनें हूं ( परिवार में लड़कियां ), मेरी चचेरी बहन मुझसे उम्र में आठ साल बड़ी है। और वे कहती हैं कि यदि इस परिवार में लड़की का जन्म होता है तो बहुत अच्छा है...फिक्र की कोई बात नहीं...इस परिवार में लड़कियों की शादी करने के लिए बहुत पैसा और संपत्ति है। मेरी बहन की शादी 17 साल की उम्र में ही हो गई थी। लेकिन जब मेरी बारी आई तो मेरे माता-पिता से कहा कि मैं बढ़ाई में अच्छी हूं इसलिए मेरी शादी जल्दी नहीं होगी। मेरे पिता-मां ने कहा कि यदि में पढ़ाई में अच्छा करुंगी तो आगे पढ़ती रहुंगी...पढ़ने के लिए पर्याप्त समय देंगे....बेहतर किया तो ठीक है नहीं तो शादी कर दी जाएगी। मैंने उसके बाद और मेहनत से पढ़ाई करना शुरु किया..मुझे डर था कि यदि मैंने अच्छा नहीं किया तो मेरी शादी कर दी जाएगी।”

मैंने तनवी से पूछा कि उसकी शादी के बाद उसके परिवार के दूसरे लोगों पर कैसा प्रभाव पड़ा? तनवी डॉक्टर बनी और शादी के बाद काम के लिए मुंबई आ गई। तनवी वित्तीय रुप से स्वतंत्र है औऱ एक ऐसे शख्स से शादी की है जो तनवी के काम और प्रोफेशन में पूरा समर्थन देता है। इसलिए तनवी अपने परिवार एवं बिहार के सोशल नेकवर्क में कई लोगों के लिए रोल मॉडल है। ऐसा मुझे समझ आया। लेकिन जीवन में कई अन्य चीज़ों की तरह ही अनपेक्षित परिणाम का नियम यहाँ भी काम करता है। तनवी कई लोगों के लिए रोल मॉडल ज़रुर है लेकिन इसके भी कई अलग कारण हैं।

जब तनवी की शादी हुई तो उसके माता-पिता तो किसी प्रकार का दहेज नहीं देना पड़ा। उसकी शादी एक बहुत ही खानदानी परिवार में हुई। लड़का भी देश के प्रतिष्ठित संस्थान, आईआईटी से पढ़ा था जोकि अब वैश्विक निवेश बैंक में काम करता है।

तनवी ने मुझे बताया कि “ मेरे सारे चाचा और चाचियों को लगता है कि एक बार लड़की ने पढ़ाई कर ली तो उनकी शादी में कोई समस्या नहीं होगी। इसलिए वह चाहते हैं कि उनकी बेटियां भा पढ़े चाहे उनके एडमिशन पैसे दे कर ही क्यों न करानी पड़ा। ” यह एक ऐसी बात है जो मैंने दूसरे शहरों में भी सुनी है।


मैंने रॉय से उसके उम्र की लड़कियों के विषय में पूछा। “मेरे आस-पास लड़कियां अधिक पढ़ाई करती हैं। लड़के अधिकतर दोस्तों के चक्कर में रह जाते हैं और पढ़ाई नहं करते...मेरे कई दोस्त हैं जो शराब और सिगरेट पीते हैं। लड़कियां शराब-सिगगरेट को हाथ नहीं लगाती हैं....” जैसे हमने अपना साक्षात्कर समाप्त किया और अपनी गाड़ी में बैठे, टीना ने मुझसे कहा कि “लड़कियां उसे ज़िंदा खा जाएंगी। क्या आपने देखा कि वह हमें सलाह दे रहा था...हम जितनी भी लड़कियों से मिले...किसी ने भी हमसे ऐसा नहीं कहा। लड़कियों ने हमसे पूछा कि हमने क्या पढ़ाई की है...आप कहां काम करती हैं...क्या काम करती हैं...आप यह सवाल क्यों पूछ रही हैं...आपके पति क्या काम करते हैं आदि..आदी।” टीना ठीक कह रही थी।

यह एक आवर्ती अभ्यास है—लड़के अधिक टीवी देखते हैं, अधिक महंगी चीज़ें खरीदते हैं ( रॉय ने सबसे महंगी चीज़ अपने दोस्त की शादी में पहनने के लिए ब्रांडेड सूट खरीदा था ), दोस्तों के साथ एवं खेलने में अधिक समय व्यतीत करते हैं औऱ पढ़ाई कम करते हैं। लड़कियां इसका ठीक विपरीत करती हैं। मैंने इस मुद्दें एक दूसरे कई मुद्दों पर रंजना गुहा से बात क जो पिछले दो दशक से मुबंई के स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं।

“मेरे स्कूल में लड़के बहुत अलग पृष्ठभूमि से आते हैं – माताएं घरों में काम करती हैं, पिता ड्राइवर या खाना पकाते हैं। अधिकतर बच्चे निचले मध्यम वर्ग के होते हैं। कुछ लड़के होते हैं – बहुत कम संख्या में, जो अच्छे परिवार से आते हैं। बदलाव कैसा हुआ है...मुझे लगता है बदलाव और बुरा हो गया है।”

उन्होंने बताया “समस्या का मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली है – कक्षा नौ तक बिना किसी को फेल किए, लगातार बच्चों को पास कराना एक समस्या है। बच्चे कुछ जानते नहीं। अब युवा सोचते हैं कि वो शिक्षा के साथ या शिक्षा के बगैर भी जो चाहें कर सकते हैं – उनमें इस तरह का मनोबल विकसित हो गया है। यहां तक कि राजनीतिक पार्टियां भी बच्चों से कहती हैं कि वे यहां के स्थानीय लड़के हैं...उन्हें नौकरी कौन नहीं देगा...नैतिकता बर्बाद हो रही है। राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए युवाओं को प्रत्साहित किया जाता है। स्थानीय स्तर पर राजनीतिक गतिविधियां एवं खेल एवं धार्मिक गतिविधियों में अधिक भागीदारी युवाओं को पढ़ाई से और दूर करती हैं। ”

लड़कियों में पढ़ने की चाहत अधिक होती है। आप ऐसा क्यों समझती हैं...मैंने रंजना से पूछा? “यदि हम सामाजिक स्थिति को देखें तो लड़कियांअपने जीवन में स्थिर होने के लिए अधिक आतुर होती हैं। उन्होंने उन महिलाओं को देखा है जो वित्तीय रुप से स्वतंत्र नहीं हैं...उन्होंने अपनी माताओं के साथ बुरा व्यवहार होते हुए देखा है...और आज कल हम देखते हैं कि लड़किया जल्दी ही अपने करियर में स्थिर हो कर वित्तीय रुप से स्वतंत्र होना चाहती हैं.....”

विभिन्न शहरो एवं सामाजिक-आर्थिक तबकों में मैंने जहां भी साक्षात्कार किया, हर जगह संदेश एक ही था। हर जगह लड़कियों को बेहतर करने एवं आगे बढ़ने की अधिक इच्छा है। यही तथ्य हर साल स्कूलों के बोर्ड परिक्षाओं के परिणाम में भी दिखता है जब लड़कों को पीछे छोड़ते हुए अखबार की सुर्खियों में लड़कियां छाई रहती हैं।

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि लड़के अच्छा प्रदर्शन नहीं करते ही नहीं हैं। मेघना की बात करें तो उसे अपनी कक्षा में शिक्षा के प्रति लड़के या लड़कियों के नज़रिए में कोई अंतर नहीं दिखता है। मेघना के अनुसार उसकी क्लास में पढ़ाई के प्रति लड़के थोड़ी देर से जागरुक हुए लेकिन किसी भी मामले में वे लड़कियों से पीछे नहीं थे, बल्कि कई मामलों में लड़कियों से बेहतर भी थे। मेरा मानना है कि इसका स्पष्करण उनके परिवार की पृष्ठभूमि , तत्काल प्रभावों में निहित है और सच्चाई यह है कि मेघना एवं उसके साथी मुबंई के एक बड़े प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। लेकिन, कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि लड़कियों का प्रदर्शन बेहतर है।

लड़कियों के शादी के मामले में उनके शिक्षा एवं चतुरता का प्रभाव स्पष्ट रुप से देखा जाता है। भारत में माता-पिता अपने बच्चों, चाहे लड़का हो या लड़की, की शादी को लेकर बेहद मनोग्रहीत रहते हैं। लड़कियों के अधिक शिक्षित एवं अधिक महत्वकांक्षी होने के साथ कई लोगों को वर्तमान सामाजिक-आर्थिक समुदायों के भीतर मनपसंद साथी खोजना कठिन होगा। पुरुषों के लिए आत्मविश्वास से भरी महिला, जो खुद को अच्छी तरह पहचानती है एवं पुराने ज़माने की तरह आदर्श भारतीय नारी की तरह जीने को तैयार नहीं, ऐसी महिलाओं को संभालना बहुत कठिन होगा। कई सारी कहानियों मेंमैंने देखा है कि कई महिलाएं खुद से कम योग्य लड़कों से शादी की हैं। कुछ और सालों बाद शायद ऐसा अधिक लड़कियां नहीं करेंगीं।

( दत्ता ने आईआईटी, खड़गपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री है, और एक्सएलआरआई , जमशेदपुर से बिज़नेस मैंनेजमेंट में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया है। )

हाफ अ बिलियन राइज़िंग – द ईमरजेंस ऑफ इंडियन विमन रुपा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है ; लंबाई : 258 पृष्ठ; मूल्य : रुपये 395

यह लेख मूलत: 28 अगस्त 2015 को अंग्रेज़ी में indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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