Source: Swasti Health Resource Centre

भारत में समलैंगिक रिश्तों को खुले दिल से स्वीकार नहीं किया जाता है। यौन साथी के रूप में पुरुष को पसंद करने वाले 22 वर्षीय अजित (बदला हुआ नाम) को भी कई वर्षों तक अपनी पहचान छुपा कर रखनी पड़ी। अजित मैनेजमेंट ग्रैजुएट हैं। तमिलनाडु के एक छोटे से गांव कामबाम के रहने वाले हैं और चेन्नई में एक होटल में काम करते हैं। अजित के माता-पिता और उसकी छोटी बहन को उसके यौन अभिरूचि के बारे में जानकारी है, लेकिन अजित को डर है कि अगर उसे गांव में उसके समलैंगिक होने की बात पता चल गई तो लोग उसका मजाक बनाएंगे। बहुत संभव है कि लोग अजित के साथ मार-पीट भी करें।

लेकिन गांव की तुलना में चेन्नई में अजित खुद को ज्यादा महफूज पाते हैं। अजित का मनना है कि चैन्नई में एक किस्म की आजादी वह महसूस करते हैं और इसके पीछे वह यहां अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं और इसके लिए वह ‘कम्युनिटी ऑर्गनाइजेशन’ नाम की संस्था को धन्यवाद देते हैं। ‘कम्युनिटी ऑर्गनाइजेशन’ (सीओएस) नाम की संस्था ऐसे पुरूषों के लिए काम करती है, जो वैकल्पिक यौन अभिरूचि के साथ जीते हैं।ऐसे ही 12 संगठनों के लिए ‘स्वास्ति स्वास्थ्य संसाधन’ केन्द्र ने पांच राज्यों में एक सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण का नतीजा भी अजित की धारणा को सही साबित करता है। समलैंगिक पुरुष जिन्हें साथियों के समर्थन की तलाश रहती है, वे माता-पिता के साथ रहते हुए खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य समलैंगिक लोगों के प्रोफाइल और उनकी जरुरतों को बेहतर ढंग से समझना थाष जो मदद के लिए संगठनों (सीओएस) के पास जाते हैं।

अभिभावक के साथ रहते हुए मदद लेने में डर

सर्वेक्षण के अनुसार, आधे से अधिक पुरुष जिन्होंने शारीरिक हिंसा (52.4 फीसदी), यौन शोषण (55 फीसदी) और भावनात्मक यातना (46.5 फीसदी) का सामना किया है, वे अब भी अपने माता-पिता के साथ रह रहे थे। अधिकतर के पहचान गुप्त थे। हमला करने वालों में अधिकतर अजनबी थे। पुरुष यौनकर्मियों के मामले में ग्राहक थे और गुंडे थे।

संभवत: इसके पीछे का एक कारण यह है कि परिवार के साथ रहते हुए समलैंगिक पुरुषों के लिए अन्य समलैंगिकों साथियों से समर्थन प्राप्त करना मुश्किल होता है। इसके विपरीत, अध्ययन में पाया गया है कि जो लंबे समय या कम समय से अपने समलैंगिक साथी के साथ रह रहे हैं, उन्हें बहुत कम हिंसा का सामना करना पड़ता है।

कई तरह से किया जाता है परेशान

यह अध्ययन अप्रैल और अक्टूबर 2015 के बीच किया गया था। अध्ययन में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक को शामिल किया गया था। अध्ययन में पाया गया कि सवालों के जवाब देने वाले 8549 समलैंगिक पुरूषों में से 14 फीसदी ने भावनात्मक हिंसा, 8.9 फीसदी ने यौन हिंसा और 9 फीसदी ने शारीरिक हिंसा का सामना किया है। सवालों पर प्रतिक्रिया देने वाले 1,762 लोगों में से 2,795 हिंसा की घटनाएं सामने आईं। यानी एक व्यक्ति ने करीब-करीब 1.6 हिंसा का सामना किया है। 39.4 फीसदी हमले पुरुष सेक्स वर्कर पर ग्राहकों द्वारा किए गए हैं। 24 फीसदी हमले अजनबियों की ओर से किए गए और गुंडे 17.5 फीसदी हमले गुंडों ने किए।

अपराधी अनुसार समलैंगिक पुरुषों के खिलाफ हिंसा

Source: Swasti Health Resource Centre

कई परिवारों में, समलैंगिक पुरुषों पर विवाह करने का भारी दबाव है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 8.9 फीसदी उत्तरदाता शादीशुदा थे और 42.5 फीसदी अब अलग रह रहे थे।

बदतर हालात के लिए जिम्मेदार हैं मौजूदा कानून

एचआईवी और एड्स पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष सत्र में यह बात स्वीकार किया गया है कि भारत में अनुमान के अनुसार 3.1 मिलियन पुरुष ऐसे हैं, जो पुरुषों के साथ सेक्स पसंद करते हैं। इस मामले पर मौजूदा कानून और एचआईवी पर काम कर रहे ग्लोबल आयोग के वर्किंगपेपर के मुताबिक देश में इस समूह के बीच एचआईवी प्रसार दर 14.5 फीसदी है।

यहां एक और बात पर ध्यान देना जरूरी है। समलैंगिकता के अपराधीकरण से हालात और बिगड़े हैं। ऐसी स्थिति में समलैंगिक पुरुषों के लिए यौन संचारित संक्रमण (एसटीआई) पर चिकित्सा सहायता प्राप्त करना मुश्किल होता है। ग्लोबल कमीशन के पेपर के मुताबिक, “ कठोर कानूनी संदर्भों और सामाजिक रूप से इसे समाज में एक धब्बा समझा जाता है।ऐसे पुरुषों के बीच यौन संक्रमण के रोकथाम और एचआईवी पीड़ित होने के बाद समुचित उपचार में बाधा आती है।

2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसे वैध करार दिया था, लेकिन भारत में 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को फिर से एक अपराध माना।

5 अक्टूबर, 2016 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में ‘2014 के एचआईवी / एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) विधेयक’ का अनुमोदन किया गया। लंबे समय से प्रतीक्षित बिल में एचआईवी और एड्स के साथ लोगों के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया गया है। लेकिन, मानवाधिकार वकील देया भट्टाचार्य Firstpost में लिखती हैं, “बिल में गैर-भेदभाव और अन्य अधिनियमों के प्रावधानों और निर्णय की विधि साफ नहीं है। इससे सेक्स कार्यकर्ता, समलैंगिकों और किन्नरों के खिलाफ किए जा रहे भेदभाव से निपटना बहुत आसान नहीं होगा।”

यौन कर्मियों के बीच हिंसा

अध्ययन में पाया गया है कि यौन कर्मी पुरुष, विशेष रुप से जिनके ज्यादा ग्राहक हैं, उन पर हिंसा का खतरा ज्यादा रहता है।

साप्ताह में ग्राहकों की संख्या के अनुसार, सेक्स वर्कर्स के खिलाफ हिंसा

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हालांकि, कम आमदनी वाले यौन कर्मियों के बीच एसटीआई लक्षणों का प्रसार अधिक देखा गया है। ऐसे पुरुष जिन पर साप्ताहिक रुप से कम ग्राहकों को भार होता है (चार या कम) उनमें एसटीआई प्रसार की सूचना ज्यादा दर्ज की गई है। इसके लिए 8.3 फीसदी का आंकड़ा दर्ज है। इस संबंध में अधिक ग्राहकों वाले पुरुषों के लिए आंकड़े 4.3 फीसदी हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि कम कमाई की वजह से पुरुष एसटीआई / एचआईवी के लिए परीक्षण न करा पाते हैं।

यौन कर्मियों में आय के अनुसार यौन संचारित संक्रमण

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मासिक आय के अनुसार सेक्स वर्कर्स के बीच एचआईवी परीक्षण की स्थिति

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कैसे मददगार है सीओएस

लगभग 41.3 पुरुष, जिन्होंने शारीरिक हिंसा का सामना किया है, उनके रिपोर्ट को दर्ज करने की संभावना नहीं होती है। जबकि 39.8 फीसदी पुरुष यौन हिंसा का सामना करते हैं और उनकी रिपोर्ट भी बहुत कम दर्ज होती है । 32.4 फीसदी भावनात्मक हिंसा का सामना करने वाले पुरुषों की भी रिपोर्ट दर्ज नहीं होती। अजित कहते हैं कि चेन्नई में सीओ के माध्यम से हिंसा के खिलाफ पुलिस की सुरक्षा पाना अधिक आसान है।

अजित कहते हैं, “जब हम पर हिंसा होती है, तो हम नेटवर्क तक पहुंच सकते हैं। यदि मैं बस स्टॉप पर खड़ा हूं और पुलिस पूछताछ के लिए आती है तो हम मदद के लिए सीओ को फोन कर सकते हैं।”

अध्ययन से पता चलता है कि यौन कार्य और अन्य व्यवसायों में लगे हुए ऐसे समलैंगिकों के लिए सीओ एक मजबूत समर्थन प्रणाली प्रदान करता है। कुल 6482 पुरुष या 75 फीसदी सीओ के साथ पंजीकृत हैं। सीओ को रिपोर्ट किए गए अधिकांश मामले भावनात्मक हिंसा से संबंधित हैं और इसका प्रतिशत 51 है।

समलैंगिक पुरुषों के खिलाफ हिंसा की रिपोर्टिंग

Source: Swasti Health Resource Centre

(चतुर्वेदी बैंगलोर स्थित ‘स्वास्ति स्वास्थ्य संसाधन केन्द्र’ के स्वतंत्र मीडिया सलाहकार हैं और OpinionTandoor.in पर ब्लॉगर हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 21 अक्तूबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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