नई दिल्ली: 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में किशोरों की संख्या 25.3 करोड़ है और इनमें 47% लड़कियां हैं। किशोरावस्था वाली तमाम लड़कियां एनीमिया की शिकार होने के अत्यधिक जोखिम के अलावा, यौन स्वास्थ्य को लेकर बेहद कम जागरूकता, अल्पपोषण और मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से भी जूझ रही हैं। उनके स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने की संभावना तो ज्यादा रहती ही है, साथ ही घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

केंद्र सरकार के 1 फरवरी को अंतरिम बजट पेश करने से पहले हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर भारत में किशोरियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना इतना महत्वपूर्ण क्यों है। राज्यों की विशिष्ट जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वित्तपोषण में अंतर को पाटने के साथ ही आधारभूत कौशल और डिजिटल साक्षरता पर ध्यान केंद्रित करके बजट में भारतीय किशोरों के समग्र विकास की एक मजबूत नींव रखी जा सकती है। इससे उन्हें उत्पादक और डिजिटली-सक्षम भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के मुताबिक 10 से 19 के बीच की उम्र को किशोरावस्था माना जाता है जो मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है।

भारत में किशोर विकास से जुड़ी नीतियां तैयार करते वक्त उन्हें जनसांख्यिकीय के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिहाज से मूल्यों, सिद्धांतों और उद्देश्यों की व्यापक कसौटी पर परखा जाता है। इन नीतियों को तैयार करने में शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, युवा एवं खेल मामले, और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे विभिन्न मंत्रालय अहम भूमिका निभाते हैं।

किशोर समूह से जुड़ी प्रमुख नीतियों में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम या आरकेएसके, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, राष्ट्रीय युवा नीति, 2033 एवं 2014 और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति, 2014 आदि शामिल हैं। इनमें जहां अपने कुछ खास लक्ष्य हैं, तो कुछ परस्पर जुड़े लक्ष्य भी निहित हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 और हालिया राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 भी हैं जो पूरी तरह किशोरों पर केंद्रित तो नहीं हैं लेकिन इसके कुछ पहलू इस आयु वर्ग के लिए मायने रखते हैं।

स्वास्थ्य और किशोरियां

2019-2021 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लड़कों के मामले में यह आंकड़ा 28% है। ये आंकड़ा लड़कियों के मामले में एक खास स्वास्थ्य चुनौती को दिखाता नजर आता है, जो आगे चलकर गंभीर स्वास्थ्य समस्या की वजह बन सकती है और उनकी सोचने समझने का शक्ति और शारीरिक विकास में रुकावट डाल सकती है।

इंडियास्पेंड की अक्टूबर 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया के कारण “सिर्फ व्यक्ति विशेष की ही नहीं बल्कि पूरी आबादी की कार्य क्षमता घटती है और इसका गंभीर आर्थिक प्रभाव देश के विकास को भी बाधित कर देता है।” जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित 2002 के एक अध्ययन की मानें तो एनीमिया के कारण भारी शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों की उत्पादकता 17% घटी है, वहीं मध्यम सक्रियता वाले श्रमिकों के उत्पादन में 5% की गिरावट आई है।

यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे भी चर्चा के महत्वपूर्ण बिंदु बने हुए हैं, जिनमें कम उम्र में गर्भधारण और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता का अभाव चिंता का बड़ा कारण हैं। हालांकि 15-19 की उम्र में प्रति 1,000 महिलाओं पर आयु-विशिष्ट प्रजनन दर एनएफएचएस-4 (2015-16) के दौरान 51 से घटकर एनएफएचएस-5 में 43 हो गई। यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, , फिर भी वैश्विक स्तर पर पर हर सात अनपेक्षित गर्भधारण में से एक भारत में होता है। वहीं, एनएफएचएस-5 से यह भी पता चलता है कि 15 से 19 की उम्र की 6.8% किशोरियां बच्चों को जन्म दे रही हैं।

इस उम्र में पोषण की कमी के चलते बौनेपन और कम वजन की समस्याएं भी नजर आती हैं। एनएफएचएस-4 के मुताबिक, स्कूल जाने वाली 41.9% से अधिक लड़कियों का वजन औसत से कम है। ये समस्या बिहार, झारखंड और गुजरात जैसे कुछ राज्यों में अधिक स्पष्ट दिखाई देती है, जो क्षेत्रीय स्तर पर पोषण संबंधी असमानता का संकेत है।

नए मिशन पोषण 2.0 के तहत किशोरियों की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने पर जोर दिया गया है। पिछली योजना में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को शामिल किया गया था। वहीं पोषण 2.0 में आकांक्षी जिलों की 14-18 वर्ष की सभी लड़कियां को शामिल किया गया है।

एनएफएचएस सर्वे मासिक धर्म स्वास्थ्य की स्थिति भी दर्शाता है, जिसमें मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले स्वच्छता उत्पादों के इस्तेमाल में अच्छी-खासी बढ़ोतरी नजर आती है। अब 15-19 वर्ष आयु वर्ग की 78% लड़कियां इन उत्पादों का इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि 2015-16 में यह आंकड़ा 58% ही था। हालांकि, सभी लड़कियों तक मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद की उपलब्धता और उन्हें शिक्षा मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास किए जाने की जरूरत बताई गई है।

मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियों में से आधी की शुरुआत 14 वर्ष की उम्र में होती है, और 15 से 19 साल के बच्चों की मौत का एक प्रमुख कारण उनका खुद को नुकसान पहुंचाना ही है। भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 में पाया गया कि 13-17 वर्ष की आयु के किशोरों में मानसिक विकार के शिकार होने का जोखिम करीब 7.3% था और लड़कों की तुलना में लड़कियों के तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गईं। भारत में किशोर कल्याण पर यूनिसेफ की 2019 की रिपोर्ट मानसिक स्वास्थ्य (किशोरों में अवसाद और चिंता के मामले) की बढ़ती समस्या को रेखांकित करती है और इस दिशा में लक्षित प्रयासों की जरूरत बताती है।

आरकेएसके और पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रमों का असरदार होना और सबको इसका फायदा मिले, यह पूरी तरह इस पर बात पर निर्भर करता है कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कितने मजबूत हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम किशोरों के स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन धन के कम इस्तेमाल की वजह से इसके अमल में कई तरह की बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।

शिक्षा एवं किशोरियां

किशोरावस्था उम्र का वह दौर है जब बच्चे प्रारंभिक से माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से कैरियर की राह पर चलने की तैयारी करते हैं। लेकिन शिक्षा के सीमित अवसर लड़कियों की भविष्य की संभावनाओं पर अच्छा खासा असर डालते हैं। भारत सहित आठ देशों में किए गए 2020 के एक शोध अध्ययन के मुताबिक, सार्वभौमिक माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के लिए प्रति लड़की प्रति दिन 1.53 डॉलर का निवेश, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को औसतन 10% तक बढ़ाने में मदद कर सकता है।

मौजूदा समय में भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर (FLPR) 37% है। यह दर जी20 देशों में सबसे कम में से एक है। जहां एक तरफ लड़कियों का उच्च शिक्षा न मिल पाना महिला श्रम बल भागीदारी दर के बढ़ने का एक कारण है, वहीं दूसरी ओर पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।

14-18 साल की उम्र में ही लड़कियां माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से अपने कैरियर की ओर रुख करती हैं। कह सकते हैं कि ये उम्र उनके आगे के जीवन के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है। यह दर 2012-13 में 43.9 फीसद थी, जो 2021-22 में बढ़कर 48 फीसद पर पहुंच गई। लेकिन बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां अभी भी स्कूल से बाहर हैं। शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के मुताबिक, 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई, जबकि किशोर लड़कों के लिए यह आंकड़ा 12.96% है। कोविड-19 महामारी ने भारत की किशोरियों की सीखने की क्षमता पर गहरा असर डाला है। एएसईआर 2023 'बियॉन्ड बेसिक्स' सर्वे बताता है कि 14-18 वर्ष की उम्र की 24% लड़कियां दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाती हैं।

महामारी के दौरान स्कूलों को वर्चुअल मोड में बदल दिया गया था। इसने उन छात्रों की शिक्षा को सबसे अधिक प्रभावित किया जिनके पास डिजिटल उपकरणों तक पहुंच नहीं थी या सीमित थी। असर (एएसईआर) सर्वे में किशोर युवाओं के बीच लैंगिक असमानता का भी पता चलता है। जो लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर सकते हैं, उनमें से 43% छात्रों के पास अपने खुद के फोन थे, जबकि छात्राओं के लिए ये आंकड़ा 19% था।

बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके, इसके लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की मौजूदगी बेहद मायने रखती है। लेकिन यहां भी आंकड़े बताते हैं कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पदों में से माध्यमिक स्तर पर 15% और उच्च माध्यमिक स्तर पर 19% पद खाली हैं।

क्योंकि माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मुफ्त नहीं है, इसलिए माता-पिता अपनी बेटियों की तुलना में अपने बेटों को पढ़ाने के ज्यादा इच्छुक रहते हैं। उन्हें बेटियों की बजाए बेटों पर खर्च करना ज्यादा उचित लगता है। ऐसे में कम शुल्क लेने वाले सरकारी स्कूल अप्रत्यक्ष रूप से माध्यमिक स्तर पर लड़कियों को अधिक बढ़ावा देने वाले साबित होते हैं। जाहिर सी बात है, किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली आर्थिक मदद बेहद महत्वपूर्ण है।

इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2018 में ‘नन्ही कली’ की ओर से जारी टीन एज गर्ल्स रिपोर्ट के आधार पर बताया था "स्कूल में बिताया गया एक अतिरिक्त साल एक लड़की द्वारा अर्जित आय में 10% -20% से कम की वृद्धि नहीं करता है। माध्यमिक शिक्षा पर रिटर्न 15%-25% तक है।" ‘नन्ही कली’ किशोर लड़कियों के साथ काम करने वाली एक संस्था नन्दी फाउंडेशन का एक प्रोजेक्ट था।

ग्रामीण इलाकों में सर्वे में शामिल सिर्फ 18.6% लड़कियों ने कहा कि उनके समुदाय के लड़के उतना ही घरेलू काम करते हैं जितना कि वे करती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में ऐसा कहने वाली लड़कियों का आंकड़ा 23.8% रहा। घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

माध्यमिक शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कुल सार्वजनिक व्यय पिछले पांच सालों से सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1% पर स्थिर है और केंद्र सरकार का हिस्सा समय के साथ घट रहा है। सीबीजीए-क्राई अध्ययन का अनुमान है कि 15-19 वर्ष की उम्र की सभी योग्य लड़कियों को सार्वभौमिक गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा मिल पाए इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का 0.2% - 0.3% अतिरिक्त चाहिए होगा।

2022 में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को फिर से नामांकित करने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के साथ मिलकर कन्या शिक्षा प्रवेश उत्सव नाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत एक विशेष अभियान शुरू किया था। सरकार ने जुलाई 2023 में लोकसभा को बताया कि 2022-23 में, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत केंद्र सरकार ने 90 करोड़ रुपये जारी किए थे। 2020-21 और 2021-22 में यह आंकड़े क्रमशः 53 करोड़ रुपये और 57 करोड़ रुपये थे। पोर्टल के अनुसार, 2022 तक 22 राज्यों में 144,000 किशोर लड़कियों की पहचान की गई और उनमें से 100,000 को फिर से नामांकित किया गया है। हालांकि, स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या रिपोर्ट की गई संख्या से अधिक होगी क्योंकि प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड ऑफ समग्र शिक्षा अभियान की बैठक के मिनट्स से पता चलता है कि कई राज्यों ने अभी तक PRABANDH पोर्टल पर डेटा अपलोड करना शुरू नहीं किया है।

*लेखक सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए), नई दिल्ली से जुड़े हैं।