बेंगलुरु, दिल्ली, नूंह (हरियाणा): हारिस* अभी 18 साल का नहीं हुआ है, लेकिन खुद को काफी बड़ा महसूस करने लगा है। सूरज डूबने के बाद वह घर से निकलता है और आधी रात तक बेंगलुरु की ट्रैफिक से भरी सड़कों पर कूड़ा बीनता रहता है। अक्सर उसके साथ उसकी मां फरहा* भी होती है।

पिछले कुछ महीनों में इस युवा रोहिंग्या शरणार्थी के जीवन में भारी बदलाव आया है। वह दिल्ली के स्कूल में पढ़ रहा था लेकिन मई 2023 में उसे पढ़ाई छोड़कर बेंगलुरु आना पड़ा। हारिस की मां की तबियत ठीक नहीं रहती थी। अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पिछले दस सालों से रोजाना कचरा बीनने का काम करती आ रही फराह की पीठ में दर्द रहने लगा था। जब ये पीठ दर्द असहनीय हो गया तो उसे न चाहते हुए भी अपने बेटे को अपने पास बुलाना पड़ा। उनके पति की तबीयत भी ठीक नहीं रहती है। बांग्लादेश की सीमा से लगे पश्चिमी म्यांमार में अपनी मातृभूमि रखाइन में हिंसा से बचते हुए उनके पैर में गोली लगी थी। वह घर से बाहर जाकर काम नहीं कर पाते हैं। उनसे अलग हुआ बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ दिल्ली चला गया है। अब हारिस ही है,जिसे अपने दो छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी संभालनी है। उन दोनों की उम्र 10 साल से भी कम है।

इन जिम्मेदारियों की वजह से हारिस की न सिर्फ औपचारिक स्कूली शिक्षा पूरी करने की संभावनाओं पर असर पड़ा, बल्कि उसके मानसिक सेहत भी लगातार खराब होती जा रही है। जब दिल्ली में रहने वाले उसके स्कूल के दोस्त फोन करते हैं, तो वह शर्म से उन्हें ये नहीं बता पाता कि वह अब कूड़ा बीनने का काम करने लगा है।

“मुझे शर्म आती है और दुख भी होता है। मैं अक्सर भगवान से पूछता हूं कि मुझे यह काम क्यों करना पड़ रहा है। मेरे माता-पिता मुझे एक बड़ा आदमी बनते हुए देखना चाहते थे।'' हारिस ने धाराप्रवाह अंग्रेजी में कहा। उसकी मां फरहा अपने बेटे की दुर्दशा पर रोती है। वह चाहती है कि हारिस पढ़ाई करे और नौकरी करे। वह कहती हैं, लेकिन "हम भूखे तो नहीं मर सकते"। हारिस शर्म की वजह से आमतौर पर शाम होने के बाद ही घर से बाहर निकलता है। वह नहीं चाहता कि आस-पास के लोग एक पढ़े-लिखे लड़के को ऐसा काम करते हुए देखें।

रसायन विज्ञान हारिस का पसंदीदा विषय है, लेकिन ओपन स्कूल में दाखिला लेते हुए उसे कॉमर्स लेना पड़ा। इसमें ज्यादा गहराई से पढ़ने की जरूरत नहीं होती और यह उतना महंगा भी नहीं है। हारिस ने कहा, "मुझे नहीं पता कि मैं यह (कूड़े बीनने का काम) कब तक करता रहूंगा। अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह मेरे लिए अच्छा नहीं होगा। मैं इस बारे में अपने माता-पिता से भी बात नहीं कर पा रहा हूं। मैं ये सोचकर चुप हो जाता हूं कि उन्हें दुख होगा।”

रोहिंग्या शरणार्थियों और मेजबान समुदायों द्वारा दी जाने वाली मानसिक स्वास्थ्य और मनोसामाजिक मदद (एमएचपीएसएस) पर बांग्लादेश में कॉक्स बाजार शरणार्थी बस्ती में जून 2021 एक अध्ययन किया गया था। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन (आईओएम) की इस रिपोर्ट से पता चला है कि 60% से ज्यादा लोगों ने महसूस किया कि तनाव की बड़ी वजह बुनियादी जरूरतें और जिंदा बने रहने की कवायद है। शिक्षा (43.2%), सुरक्षा और संरक्षण (23.7%), अनिश्चितता (23%), आजीविका (18.9%), खराब सेहत (18%), घर छूटने और किसी व्यक्ति के मरने से जुड़ी चिंताएं भी इस सूची में सबसे ऊपर थीं।

भारत में लगभग 212,000 से अधिक शरणार्थियों शरण लिए हुए हैं। UNHRC की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से 22,110 रोहिंग्या शरणार्थी हैं, जो म्यांमार के बाहर रहने वाले लगभग 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों का 2% है।

स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच पर सीरीज के दूसरे भाग में इंडियास्पेंड ने बेंगलुरु, दिल्ली और नूंह से मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं और भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों के सामने आने वाली चुनौतियों पर रिपोर्ट की है। रोहिंग्या शरणार्थियों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच पर पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।

रोहिंग्या लोग मुख्य रूप से मुस्लिम होते हैं और उन्हें दुनिया की सबसे बड़ी राज्यविहीन आबादी और सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यक बताया जाता है। हम उन शरणार्थियों से मिले जिनके परिवार के लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं। और कुछ ऐसे शरणार्थियों से भी मिले जिनके परिवार के सदस्यों को हिरासत में लिया गया है और वो आजीविका पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

म्यांमार से भागने से पहले ज्यादातर शरणार्थियों को हिंसा और मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ा था। कई लोग हिरासत और वापस वहां पहुंचाए जाने के डर में भी जी रहे हैं। दस्तावेजीकरण की कमी के चलते उनकी समस्याएं और बढ़ जाती हैं, जिससे मेजबान देश में रहने के उनके अवसर सीमित हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने इंडियास्पेंड को बताया कि इससे शरणार्थियों की मानसिक सेहत पर असर पड़ा है। उन्हें मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक सामाजिक सहायता (एमएचपीएसएस) की जरूरत है।

'शायद शरणार्थी जीवन के कारण'

फारूक* और शिरीन* 80 किमी दूर दिल्ली और नूंह में अपनी-अपनी रोहिंग्या बस्तियों में रहते हैं। इन दोनों को भोजन, सेहत और वेतन को लेकर हमेशा चिंता बनी रहती हैं। लेकिन इसके अलावा एक और बात दोनों में समान है: दोनों के ही परिवार में एक-एक सदस्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है और उसकी देखभाल की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर है।

फारूक की 24 वर्षीय पत्नी रीना* गर्भवती थी। दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में इलाज कराते हुए उन्हें पता चला कि वह डिसोसिएटिव लक्षणों के साथ गंभीर अवसाद से जूझ रही है। उन्हें महीने में कम से कम एक-दो बार अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते हैं। रीना को जब भी तेज आवाजे सुनाई देती हैं तो वह कुछ समय के लिए अपना आपा खो बैठती है। वह फारूक और अपने पहले जन्मे बच्चे के साथ-साथ आसपास के लोगों से भी ठीक ढंग से बात नहीं कर पाती है।

जब इंडियास्पेंड ने सितंबर में उनसे मुलाकात की थी, तो फारूक ने बताया था, “उसने कई बार खुद को चोट पहुंचाने की कोशिश की है। उसकी हालत ऐसी है कि मुझे बाहर जाने पर उसकी ही चिंता लगी रहती है। दिवाली पर तेज पटाखों की आवाज सुनकर वह बेहोश हो गई थी। इसने उसे म्यांमार में हुई हिंसा और गुजरे हुए दिनों की याद दिला दी थी।"


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने जून 2019 में प्रकाशित 39 देशों में किए 129 अध्ययनों की समीक्षा की थी। समीक्षा के मुताबिक, जिन लोगों ने पिछले 10 सालों में युद्ध या अन्य हिंसा का सामना किया है, उनमें से पांच में से एक व्यक्ति (22%) अवसाद, चिंता, पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस (पीटीएसडी), बाइपोलर डिसऑर्डर या सिज़ोफ्रेनिया से जूझ रहा है।

फारूक ठेले पर फर्नीचर ढोने का काम करते हैं। उन्होंने अपने रिश्तेदारों से कुछ पैसे उधार लिए और टेंट वाली रोहिंग्या बस्ती को छोड़ पास में ही किराए पर कमरा लेकर रहने लगे। किराया 3,000 रुपये प्रति माह है, जो उनकी मजदूरी के एक तिहाई से भी अधिक है। लगभग एक साल से वह भी डिप्रेशन की दवा ले रहे हैं।

उन्होंने कहा, ''मुझे गुस्सा बहुत आता है और हर समय निराशा महसूस होती है। डॉक्टर ने कहा कि यह शायद शरणार्थी जीवन के कारण है।"

परिवार महीने में कुछ ही बार किसी विशेषज्ञ के पास इलाज कराने जा पाते हैं। और अगर उन्हें मुफ्त दवाएं नहीं मिल पाती हैं, तो वे यूएनएचसीआर- एनजीओ की सहायता से अपनी जरूरत की दवा खरीद पाते हैं।

यूएनएचसीआर इंडिया ने इंडियास्पेंड को बताया, "यूएनएचसीआर और उनसे जुड़े एनजीओ शरणार्थियों से मिलते रहते हैं और उन्हें मनोवैज्ञानिक सामाजिक परामर्श उपलब्ध कराते हैं।" उन्होंने बताया कि यूएनएचसीआर में पंजीकृत लगभग सभी शरणार्थियों को सहायता मिलती है।

फारूक और रीना जैसे गरीब परिवारों को आर्थिक सहायता के तौर पर हर महीने 4,000 रुपये मिलते हैं। ये पैसे उनकी चिकित्सा जरूरतों, किराया और उनके एक महीने के बच्चे के लिए बेबी मिल्क खरीदने जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं। फारूक ने कहा, "उसे दवा लेने के एक घंटे बाद बच्चे को दूध न पिलाने के लिए कहा गया है। यह हमारे लिए बड़ा मुश्किल है।"

शिरीन भी कुछ ऐसे ही हालातों से जूझ रही है। जब इंडियास्पेंड ने सितंबर में नूंह में उनसे मुलाकात की थी, तो वह अपनी सास को शांत कराने में लगी थीं। उनका सास लगातार रोए जा रही थीं (बाद में अक्टूबर में उनकी मौत हो गई) अगस्त में नूंह दंगों के बाद उनके बेटे यानी शिरीन के पति को पुलिस ने हिरासत में लिया था, तब से वह मानसिक रूप से परेशान थीं। हिरासत में लिए जाने के बाद करीब एक हफ्ते तक शिरीन को अपने पति के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आखिरकार सितंबर की शुरुआत में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया।

शिरीन ने कहा, “मेरी सास की उम्र हो चली थी और उन्हें कई बीमारियां भी थीं। लेकिन पहले उन्होंने कभी इस तरह का व्यवहार नहीं किया था। वह कभी-कभी बिना कपड़े पहने ही बाहर निकल जाती हैं। रोती रहती है। मैं उन्हें संभालते-संभालते थक गई हूं। मुझे उन्हें खाट से बांधकर रखना पड़ता है। क्योंकि अगर मैं आसपास न हुई तो वह कहीं भी चली जाएंगी।”

हिरासत का असर शिरीन पर भी पड़ा। वह चाहकर भी अपने छोटे बच्चों को नहीं बता सकती थी कि उनके पिता कहां हैं। उसने कहा, "मैं दुखी और उदास रहती हूं। उनकी हिरासत के बाद से ठीक से सो भी नहीं पाई हूं।"


उनके पति नासिर* ने बताया कि हिरासत से लौटने के बाद से शिरीन लगातार सिरदर्द और थकान की शिकायत करने लगी है। उन्हें लगता है कि इसका कारण शायद तनाव है। अब उनका डर फिर से गिरफ्तार किए जाने और म्यांमार भेजे जाने को लेकर है। उनके मुताबिक ये वो जगह है जहां, रोहिंग्या लोगों की जान को निश्चित तौर पर खतरा है। उन्होंने कहा, "बिना किसी गलती के हिरासत में डाले जाने से पहले मेरी चिंता अपने बच्चे के ऑपरेशन के लिए पैसे बचाने को लेकर थी (वह गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल से पीड़ित है) एक निजी अस्पताल में इस पर लगभग 35,000 रुपये खर्च आएगा।" वह आगे कहते हैं, “लेकिन अब मुझे वकील को 45,000 रुपये देने हैं, और फिर से गिरफ्तार होने की चिंता वो अलग से है। मैं निर्वासित नहीं होना चाहता। मैं यहीं जेल में रहना पसंद करूंगा।''

ऐसी ही चिंता आसिफ* के मन में भी है, जो शिरीन और नासिर से कुछ किलोमीटर दूर रहता है। उनके 14 वर्षीय बेटे जावेद* को अगस्त में नूंह दंगों के बाद 40 दिनों तक हिरासत में रखने के बाद बाल देखभाल केंद्र से रिहा कर दिया गया था। फिलहाल तो आसिफ को राहत है कि उसका किशोर बेटा उसके साथ है, लेकिन जावेद के फिर से गिरफ्तार होने का डर बना हुआ है। आसिफ ने दावा किया कि उसे झूठे आरोपों में उठाया गया था। आसिफ ने कहा, ''मैं और मेरी पत्नी इन दिनों हमेशा चिंता में डूबे रहते हैं। हम डरे हुए हैं, तनाव भी हैं। लेकिन हम तो शरणार्थी हैं, हम क्या ही कर सकते हैं?"

गुजरे दिनों की यादें और मानसिक स्वास्थ्य

हमने इस सीरीज के पहले भाग में बताया था कि केंद्र सरकार रोहिंग्या को "अवैध प्रवासी" मानती है जो "राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं"। यह मामले को और जटिल बनाता है क्योंकि भारत शरणार्थियों से संबंधित 1951 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और 1967 प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता भी नहीं है। यह प्रोटोकॉल शरणार्थियों के अधिकारों और सुरक्षा को परिभाषित करता है और इसके आधार पर ही यूएनएचसीआर काम करता है।

निवेदिता सुधीर और देबंजन बनर्जी के दिसंबर 2021 के पेपर में कहा गया है कि आवश्यक जानकारी होने के बावजूद भी मानसिक विकारों के अनुमान रोहिंग्याओं की अधिक जटिल बहुआयामी मनोवैज्ञानिक सामाजिक चुनौतियों से निपटने में विफल रहते हैं। इन्हें सिर्फ 'चिकित्सीय' लेंस से नहीं देखा जा सकता है।

मानव अधिकार नेटवर्क फोर्टिफाई राइट्स द्वारा प्रशिक्षित रोहिंग्या शोधकर्ताओं की एक टीम ने बांग्लादेश के कॉक्स बाजार शरणार्थी शिविर में दिसंबर 2020 में एक अध्ययन किया था। इस पार्टिसिपेटरी एक्शन रिसर्च अध्ययन के अनुसार, " म्यांमार और बांग्लादेश में सजा से छूट के साथ चल रहे मानवाधिकारों के हनन और दुर्व्यवहार के कारण रोहिंग्या शरणार्थी आबादी को गंभीर और दीर्घकालिक मानसिक क्षति हुई है"।

सर्वे में शामिल लगभग 89% रोहिंग्या प्रतिभागियों ने डिप्रेशन के लक्षणों की बात की; 84% ने भावनात्मक परेशानियों; और 61% ने पीटीएसडी के संकेत वाले लक्षण बताए।

राज्यविहीन समुदायों की अजीब परिस्थितियां मानवाधिकारों के उल्लंघन के जोखिम को बढ़ा रही हैं और अनिश्चित हालातों को जन्म दे रही हैं। हालांकि ये समुदाय अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। क्लीनिकल ​​मनोवैज्ञानिक/एमएचपीएसएस पेशेवर स्टेला डर्मोसोनियाडी बांग्लादेश रोहिंग्या समेत कई शरणार्थियों के साथ काम कर चुकी हैं। उन्होंने कहा, "...शरणार्थी राज्यविहीन व्यक्तियों और समुदायों को अक्सर लगता है कि वे "यहां के नहीं है", क्योंकि उन्हें कोई नहीं स्वीकारता है। राज्यों, कानूनी संस्थाओं और मीडिया में उनके लिए कोई जगह नहीं होती है।"

रीना ने म्यांमार में हिंसा और मौत देखी है। ये सभी घटनाएं अपने परिवार के साथ कॉक्स बाज़ार से भागने और फिर भारत आने से पहले की हैं। उन्होंने कहा, गोलियों और बमों ने उनके दिल में एक खौफ पैदा कर दिया है। उन्हें अकसर लगता है जैसे कोई उन्हें चोट पहुंचाने के लिए आ रहा है। "यहां तक कि एम्बुलेंस या लोगों के चिल्लाने जैसी छोटी सी आवाज भी मुझे परेशान कर देती है।"

उनकी हमेशा से उच्च शिक्षा हासिल करने की चाह रही हैं। उन्होंने रोहिंग्या लड़कियों को बर्मी भाषा सीखाने में भी मदद की। उन्होंने भारत में अपनी शिक्षा जारी रखने की कोशिश की, लेकिन नौवीं क्लास में बेहतर रिजल्ट के बावजूद वह अस्वस्थ हो गई और दसवीं कक्षा की परीक्षा देते हुए परीक्षा हॉल में बेहोश होकर गिर गईं।

रीना ने कहा, "मैं काफी लंबे समय से अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश कर रही हूं। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है। हमें घुसपैठिया कहा जाता है और इसका मुझ पर असर पड़ता है। मुझे लगता है कि म्यांमार की वही घटनाएं यहां भी दोहराई जाएंगी। हम इंसान हैं, जानवर नहीं।”

अमेरिका में रोहिंग्या सहित शरणार्थी समुदायों के साथ काम कर चुकीं ईस्टर्न वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ सोशल वर्क की फैकल्टी मेंबर बिपाशा बिस्वास ने कहा, अलग-थलग रहना अपनी मानसिक परेशानियों से मुकाबला करने का एक तरीका है जो उन लोगों में देखा जा सकता है जिन्होंने गंभीर मानसिक तनाव झेला हैं, जैसे यौन शोषण से बचे लोग। वह आगे कहती हैं, “यह एक शारीरिक अभिव्यक्ति है जहां आपका दिमाग दर्दनाक घटना की कुछ यादों को नकारने लगता है। अलग-थलग रहना हमेशा दुर्भावनापूर्ण नहीं होता है, लेकिन इसे एक ऐसा मानसिक रोग नहीं बना देना चाहिए जिसके लिए एक व्यक्ति को बहुत अधिक दवा दी जाती है।

मानसिक स्वास्थ्य सहायता के लिए प्रयासों का बढ़ाया जाना चाहिए

भारत में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का स्ट्रक्चर और व्यय काफी कम रहा है। सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी इंडियन लॉ सोसायटी-इंडिया मेंटल हेल्थ ऑब्जर्वेटरी (CMHLP) के बजट विश्लेषण में कहा गया है कि 2023-24 के लिए स्वास्थ्य और संबंधित कार्यक्रमों के लिए कुल बजट परिव्यय केंद्र सरकार के राजकोषीय परिव्यय का 2% था। 919 करोड़ रुपये का मानसिक स्वास्थ्य का बजट स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के कुल बजट के 1% से थोड़ा ही ज्यादा है।

इंडियास्पेंड ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की वजह से पड़ने वाले आर्थिक प्रभाव और मानसिक बीमारी से पीड़ित सदस्यों वाले परिवारों के लिए आर्थिक जोखिम सुरक्षा की जरूरत पर अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि अगर किसी सदस्य को मानसिक बीमारी है, तो एक परिवार को उसकी स्वास्थ्य देखभाल पर हर महीने औसतन 2,115 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। यह परिवार के मासिक खर्च का 18.1% है।

अक्टूबर में शरणार्थियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सहायता पर इंडियास्पेंड द्वारा दायर सूचना के अधिकार याचिका के जवाब में, MoHFW के मानसिक स्वास्थ्य विभाग ने कहा कि जानकारी को "निल" माना जाए और याचिका गृह मंत्रालय को स्थानांतरित कर दी गई है।

ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड हियरिंग, मैसूर मंत्रालय के उन विभागों/संस्थानों में से एक है, जिसे याचिका आगे भेजी गई थी। विभाग ने बताया कि उसके क्लीनिकल ​​मनोविज्ञान विभाग ने "उन सभी मरीजों का इलाज किया है, जिन्हें ऐसी सेवाओं की जरूरत थी"। इसमें यह कहीं नहीं बताया गया कि उन मरीजों में शरणार्थियों को विशेष रूप से शामिल किया गया था या नहीं।

मौजूदा समय में भारत में यूएनएचसीआर से जुड़े गैर सरकारी संगठनों की सहायता से मनोवैज्ञानिक सामाजिक परामर्श दिया जा रहा है। जिनकी काम करने की अपनी सीमाएं हैं। रोहिंग्या के आवास और काम की अनौपचारिकता और अधिकारियों द्वारा निरंतर निगरानी, इस समुदाय पर दबाव बनाती हैं। हालांकि वे मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और जरूरतों के बारे में खुलकर बात नहीं करते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें इस तरह की मदद की जरूरत है।

दिल्ली एनसीआर में रोहिंग्या शरणार्थियों का इलाज करने वाली मेडिकल डॉक्टर और सामुदायिक चिकित्सा विशेषज्ञ अक्सा शेख ने कहा, इन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए कोई बेहतर माहौल नहीं है क्योंकि निराशा या असहायता जैसे अवसाद के लक्षण होने पर भी यह अस्तित्व की ही लड़ाई मानी जाती है। वह आगे कहती है, “इसे आम तौर पर ऐसी परेशानियों के तौर पर देखा जाता है, जिसका सामना एक शरणार्थियों का करना पड़ रहा है। वास्तव में इसकी पड़ताल नहीं की गई है…। और जब वे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के पास जाते हैं, तो उन्हें उनके बारे में बेहद कम जानकारी और सहानुभूति होती है।

आजादी प्रोजेक्ट’ एक गैर-लाभकारी संस्था है जो दिल्ली में शरणार्थी और हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को नेतृत्व, आजीविका कौशल और मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समर्थन दे रही है। वे मानसिक स्वास्थ्य पर रोहिंग्या महिलाओं, छोटे बच्चों और किशोर लड़कों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।

आजादी प्रोजेक्ट की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक प्रियाली सूर ने कहा, जब मानसिक स्वास्थ्य गंभीर हो जाता है तो शरणार्थियों के लिए इसका इलाज प्राथमिकता बन जाती है। रोजाना की चिंताओं में शौचालय तक पहुंच जैसी आम परेशानियां होती हैं। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा के लिए सभी को – खासतौर पर रोहिंग्या समुदाय के पुरुषों को - साथ लाना एक मुश्किल काम है।

सूर ने कहा, "हर बार जब भी हम पुरुषों को इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं, तो वे नहीं आते हैं। इसलिए हम युवा लड़कों को अपने साथ जोड़ रहे हैं और उन्हें टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी व लिंग आधारित हिंसा के बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे इसे जानने के बड़े इच्छुक हैं। महिलाओं के बीच भी नजरिया बदलना मुश्किल है, लेकिन बातचीत हो रही है।”

उनके समूह में महिलाएं शामिल हैं और उन्होंने चिंता, अवसाद और अपनी मानसिक पीड़ा के बारे में खुलकर बात की है। सूर ने कहा, “कम से कम समूह के भीतर मैंने उन्हें एक-दूसरे को इसके लिए शर्मिंदा होते हुए नहीं देखा है। अगर इसे लेकर उन्हें बाहर शर्मिंदा किया गया तो मुझे नहीं लगता कि वे इस पर खुल कर बात कर पाएंगी।''

मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक सामाजिक सहायता को लेकर जागरूकता लाने के लिए रोहिंग्या समुदाय से जुड़े लोगों को इसमें शामिल करने के प्रयास किए गए हैं। नीलोफर* हैदराबाद में एक रोहिंग्या शरणार्थी है। वह शरणार्थियों के साथ काम करने वाले एक एनजीओ में बतौर परामर्शदाता काम करती है। वह लगभग एक दशक से भारत में हैं और सबसे बड़ी संतान की तरह एक शिक्षक, अनुवादक और अब परामर्शदाता के रूप में अपने काम के जरिए कई सालों से छोटे अपने भाई-बहनों की मदद कर रही हैं।

2022 से वह एक टीम का हिस्सा हैं, जिसमें 10 बेयरफुट काउंसलर और 10 स्वास्थ्य स्वयंसेवक और मोबिलाइज़र शामिल हैं। उन्हें और बाकी के बेयरफुट काउंसलर को प्राथमिक चिकित्सा परामर्श, टकराव की स्थितियों और लिंग आधारित हिंसा से निपटने, शादीशुदा जोड़ों को परामर्श देने आदि में एनजीओ ने प्रशिक्षित किया है। वह घर-घर जाती हैं और समुदाय के लोगों के साथ जुड़ती हैं।

नीलोफर ने कहा, "हम रोजाना कम से कम 20 घरों में जाते हैं। शुरुआत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में बात करना मुश्किल था। अब हमारे बीच बेहतर तालमेल है। कई महिलाओं को अपने रिश्तों और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं होती हैं।”

एक बेयरफुट काउंसलर के रूप में उन्होंने लगभग 70 मामलों को सुलझाया है। इनमें से ज्यादातर मामले लिंग आधारित हिंसा से जुड़े थे।

धीरे-धीरे नजरिया बदल रहा है और अधिक महिलाओं को काम करने की अनुमति दी जा रही है। घर पर प्रसव के मामलों में कमी आई है, लेकिन अब भी 20 फीसदी प्रसव घर पर ही हो रहे हैं। वह कहती हैं, “यह हमारी मेहनत का नतीजा है। हम उन्हें स्वच्छता और मासिक धर्म के बारे में बताते हैं। यह नजरिया बदलने के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता का भी हिस्सा है जो महिलाओं को खुलकर बोलने में मदद करता है।”

मेजबान समुदाय को आगे लाना होगा

बेंगलुरु में हारिस ने कहा कि किसी ने उनके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में नहीं पूछा। लेकिन अगर सहायता मिले तो "अच्छा" रहेगा। लेकिन वह समुदाय के भीतर ऐसे मामलों के बारे में जागरूकता की कमी को लेकर भी सचेत है।

विशेषज्ञों ने कहा कि शरणार्थियों को अपनी परेशानियों के बारे में बताने के लिए उनका साथ देना जरूरी है। इसके लिए मेजबान समुदायों के सहानुभूतिपूर्ण रवैये की जरूरत है। मानसिक स्वास्थ्य सहायता को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं प्रणाली के साथ लाना होगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि शरणार्थी समुदाय की क्षमता को मजबूत और संगठित किया जाए। इसका एक उदाहरण नीलोफर और उनके सहयोगियों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं हैं।

हालांकि, हर कोई शब्दों में नहीं बता पाता है कि उसके साथ क्या गुजरी है या वो किस मानसिक पीड़ा से गुजर रहा है। बिस्वास ने कहा, जहां इसकी वजह से कुछ लोगों को चिंता और अवसाद जैसे लक्षण उभर कर आने लगते हैं, तो वहीं कुछ को शारीरिक परेशानियां घेर लेती हैं।

उन्होंने कहा, "यह महत्वपूर्ण है कि मेजबान समुदाय शरणार्थियों का सच्चे पड़ोसियों के रूप में स्वागत करे , न कि एक उद्धारकर्ता की भूमिका निभाने में। भारत में अवसाद जैसी मानसिक बीमारियों को शर्मिंदगी की बात माना जाता है।"

सेवाओं तक आसान पहुंच बनानी चाहिए, शरणार्थियों को सेवाएं देने के लिए एक रूपरेखा बनाने के साथ-साथ सरकारी और गैर सरकारी संगठन सेवाओं और मानसिक स्वास्थ्य नीतियों पर सरकारी नीति को जोड़ना चाहिए।

डर्मोसोनियाडी ने कहा, "यह साबित हो गया है कि अगर उनके पास सेवाओं, सामुदायिक नेटवर्क और समर्थन तक पहुंच है, तो ज्यादातर व्यक्ति अपने समुदायों के भीतर ही ठीक हो जाते हैं।"

फारूक को एहसास है कि समुदाय में सिर्फ वह और रीना ही नहीं हैं जो उदास रहते हैं और जिन्हें मानसिक परेशानियों से निपटने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की दरकार है। उन्होंने कहा, "कुछ लोग इससे निपट सकते हैं और कुछ नहीं।"

*शरणार्थियों की पहचान गुप्त रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

यह सीरीज का अंतिम भाग है। आप पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं।

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