बेंगलुरु, दिल्ली और नूंह, हरियाणा: वसीम* अपनी चेकदार लूंगी का एक हिस्सा मोड़कर पड़ोस के अस्थायी तंबू के पास पैर फैलाकर बैठे हैं और अपने अंगूठे पर लगे खुले घाव पर मक्खियों को बैठने से रोक रहे हैं। यह अगस्त की सुबह है और हम बेंगलुरू में हैं।

वसीम कचरा बीनने का कार्य करते हैं। जहां वह बैठे हैं वह खुली जगह है और वहां से लगातार वाहनें गुजर रही हैं, जिससे उनको ठंड भी लग रही है। वह अपनी चोट के कारण लगभग एक सप्ताह से असहनीय दर्द से जूझ रहे हैं। अपर्याप्त दवा और इलाज ने इसे और बदतर बना दिया है।

एक रोहिंग्या शरणार्थी के रूप में 35 वर्षीय वसीम ने अपने जीवन का एक दशक हिंसा और अनिश्चितता के बीच में ही बिताया है। उनके पैर में एक गोली भी लगी थी, जो अब भी उन्हें पश्चिमी म्यांमार के राखीन राज्य में उनके समुदाय पर होने वाले उत्पीड़न की लगातार याद दिलाती है। यही कारण है कि वह अपना घर-देश छोड़कर भारत चले आए हैं और किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। हालांकि इस ताजा चोट ने उन्हें चिंतित कर दिया है।

जब से उन्हें चोट लगी है, वह तीन बार अस्पताल का चक्कर लगा चुके हैं। दो बार उन्हें प्राइवेट अस्पताल जाना पड़ा है और एक बार वह किसी तरह अपनी बस्ती से लगभग 5 किमी दूर सरकारी अस्पताल भी गए हैं।

उन्होंने बताया, “मुझे अपने घाव की मरहम पट्टी कराने और कुछ दवाएं लेने के लिए 800 रुपये खर्च करने पड़े, जो मैंने उधार लिए थे। जब मैं सरकारी अस्पताल गया तो उन्होंने मुझे प्राइवेट अस्पताल से एक्स-रे कराने के लिए कहा, क्योंकि वहां भीड़ थी। जब मैं दोबारा अस्पताल गया, तो उन्होंने मुझे कुछ दवाईयां दीं। मेरे पास पैसे नहीं थे, इसलिए मैंने एक्स-रे की लागत के बारे में जानने की हिम्मत भी नहीं की।”

वसीम अब कोई भी काम करने में असमर्थ हैं। उन्हें चिंता है कि वह अपने आठ लोगों के परिवार का भरण-पोषण कैसे करेंगे, जो उनकी लगभग 8,000 रुपये प्रतिमाह की कमाई पर निर्भर हैं।

बेंगलुरु से 2,000 किलोमीटर दूर उत्तर हरियाणा के नूंह की नुजरत* अपनी चार साल की बेटी की तेज बुखार के कारण परेशान हैं। नुजरत के लिए पिछला साल बेहद दुखद रहा था क्योंकि मधुमेह (डायबीटिज) और लकवा से ग्रसित उनके पति की मृत्यु हो गई थी। 2023 की शुरुआत में 17 वर्षीय उनके सबसे बड़े बेटे की भी टीबी के कारण मृत्यु हुई। उनके जीवित बचे बच्चों में सबसे बड़े 15 वर्षीय बेटे ने कचरा बीनने का काम करना बंद कर दिया क्योंकि जब उसने चार दिनों के काम के लिए मजदूरी मांगी, तो स्थानीय लोग उसे धमकाने लगे।

नुजरत के पास कोई काम नहीं है। उन्होंने अपनी बेटी और परिवार के अन्य सदस्यों की दवाई कराने के लिए अपने गहने बेच दिए हैं और अब वह 70,000 रुपये के कर्ज में डूबी हैं। उनके पांच बच्चे हैं और वह बहुत ही मुश्किल से अपना घर चला पा रही हैं। नुजरत ने बताया, "मैं हैदराबाद जाना चाहती हूं, जहां पर औरतें कुछ रोजगार कर सकती हैं। मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करना चाहती हूं।"

भारत में रोहिंग्या समुदाय के लोगों को संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNCHR) कार्ड के माध्यम से सरकारी अस्पतालों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं को मुफ़्त में प्राप्त करने का अधिकार है, लेकिन बेंगलुरु, दिल्ली और नूंह की रिपोर्टिंग के आधार पर इंडियास्पेंड ने पाया कि इस समुदाय के लिए विशेष देखभाल या आपातकालीन उपचार तक पहुंचना बहुत मुश्किल है और इसके लिए ज्यादातर उन्हें अपनी जेब से ही भुगतान करना पड़ता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि भाषा संबंधी बाधाएं, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां और स्वास्थ्य संबंधी अस्वच्छ व्यवहार उनकी परेशानियों को बढ़ा देती हैं।

भारत में कितने रोहिंग्या?

दुनिया भर में 1.3 मिलियन विस्थापित राज्यविहीन लोगों में से अधिकांश रोहिंग्या हैं, जो या तो म्यांमार में आंतरिक रूप से विस्थापित हैं या ज्यादातर पड़ोसी देशों में शरणार्थी हैं। 1982 के बर्मा नागरिकता कानून ने रोहिंग्या लोगों को आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 135 जातीय समूहों की सूची से बाहर कर दिया, जिससे वे राज्यविहीन हो गए।

रोहिंग्या लोग मुख्य रूप से मुस्लिम होते हैं और उन्हें दुनिया की सबसे बड़ी राज्यविहीन आबादी और सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यक बताया जाता है। म्यांमार में नागरिकता या कानूनी पहचान की कमी उनके बुनियादी अधिकारों और सुरक्षा तक पहुंच को प्रभावित करती है, जिससे उन्हें हिंसा और ‘जातीय सफाए’ के डर से देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

भारत में लगभग 212,000 से अधिक शरणार्थी शरण लिए हुए हैं। UNHCR की रिपोर्ट के अनुसार इसमें 22,110 रोहिंग्या शरणार्थी हैं, जो म्यांमार के बाहर रहने वाले लगभग 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों का 2% हैं। इसमें से अधिकतर लोग दिल्ली, जम्मू, बेंगलुरु, हैदराबाद, मेवात और देश के अन्य हिस्सों में अस्थायी अनौपचारिक बस्तियों में रहते हैं।

UNCHR के आंकड़ों के अनुसार भारत में म्यांमार से आए हर तीन शरणार्थियों में से एक रोहिंग्या होता है, जो म्यांमार की सीमा से लगे अन्य देशों में रोहिंग्याओं की संख्या से बहुत कम है। बांग्लादेश में लगभग सभी म्यांमार शरणार्थियों को रोहिंग्या बताया गया है, जबकि मलेशिया में यह संख्या 67% और इंडोनेशिया में 97% है।

हमने भारत में रोहिंग्याओं की सटीक संख्या जानने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय में RTI अनुरोध दायर किया। मंत्रालय ने इसे इंटेलिजेंस ब्यूरो को भेज दिया, जिन्होंने यह
दावा
करते हुए जानकारी नहीं दी कि उन्हें RTI अधिनियम के अध्याय VI, धारा 24 (1) और दूसरी अनुसूची के तहत ऐसी जानकारियों का खुलासा ना करने का छूट प्राप्त है। ये धाराएं ख़ुफ़िया और सुरक्षा संगठनों को प्रदान की गई छूट से संबंधित हैं, जो RTI अधिनियम के तहत उपलब्ध अधिकारों को सीमित करती हैं। भारत में कितने रोहिंग्या हैं, इस बात की जानकरी विदेश विभाग के पास भी नहीं है।

असम समझौते के नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई में सरकार ने कहा कि भारत में "अवैध आप्रवासन" का अनुमान लगाना संभव नहीं है। अप्रैल 2022 के एक RTI जवाब में गृह मंत्रालय ने इंडियास्पेंड को बताया था, “चूंकि रोहिंग्या सहित अधिकतर अवैध प्रवासी गुप्त तरीके से देश में प्रवेश करते हैं, इसलिए देश में रहने वाले ऐसे प्रवासियों की संख्या के बारे में सटीक डेटा उपलब्ध नहीं है।”

दस्तावेज़ीकरण और स्वास्थ्य

नुजरत अपने बेटे का इलाज कराने के लिए नूंह में अपने शरणार्थी शिविर से लगभग 70 किमी दूर दिल्ली के सफदरजंग सरकारी अस्पताल गईं। उन्हें दवाएं और इंजेक्शन खरीदने पड़ते थे, जो उन्हें महंगे लगे। चूंकि नूंह में उचित इलाज की सुविधा नहीं थी, इसलिए उनके पास कोई विकल्प भी नहीं था।

“मेरे पास कुछ सोना था, जिसे मैंने बेच दिया। मुझे अपने समुदाय से 35,000 रुपये और स्थानीय लोगों से 19,000 रुपये का उधार मिला,” नुजरत ने बताया।

मेवात, दिल्ली और फरीदाबाद के रोहिंग्या शरणार्थियों पर आधारित मानवाधिकार लॉ नेटवर्क की 2017 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में मेवात में अधिकांश शरणार्थियों के लिए सिर्फ दो ही अस्पताल हैं- एक नल्हर और दूसरा नूंह मेडिकल कॉलेज।

रिपोर्ट में कहा गया है, ''...दोनों ही जगहों पर बहुत कम ही दवाएं उपलब्ध हैं। नल्हर में तो जो रोहिंग्या जाते हैं, उन्हें अक्सर दिल्ली रेफ़र कर दिया जाता है।''

सरकार द्वारा रोहिंग्याओं को ‘अवैध प्रवासी’ के रूप में वर्गीकृत करने के कारण उन्हें आधार कार्ड जारी नहीं किया जाता है, जो भारत में कल्याणकारी योजनाओं को प्राप्त करने के लिए एक जरूरी, अनिवार्य और प्राथमिक पहचान प्रमाण पत्र है।

रोहिंग्या शरणार्थियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि वे आम तौर पर आधार कार्ड के बिना भी सरकारी अस्पतालों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राप्त करने में सक्षम हैं। इसके लिए UNCHR कार्ड पर्याप्त है।

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य स्वास्थ्य सेवाएं उनके लिए सुलभ हैं।

आजादी प्रोजेक्ट और रिफ्यूजी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भले ही 92% रोहिंग्या शरणार्थियों ने कहा कि उनके पास स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच है, लेकिन उनमें से अधिकांश विशेष या बड़े उपचार तक पहुंच नहीं रखते हैं।

27 अक्टूबर को आधार कार्ड जारी करने वाली एजेंसी भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) ने इंडियास्पेंड की RTI सवाल का जवाब देते हुए कहा कि ‘भारत निवासी’ नेपाल और भूटान के नागरिक अगर पात्रता मानदंडों को पूरा कर उचित दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं तो वे आधार संख्या प्राप्त करने के हकदार होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ‘भारत निवासी’ कहा जा सकता है, जो पिछले एक साल में कम से कम 182 दिन भारत में रहे हों।

शरणार्थी अधिकार वकील फजल अब्दाली ने बताया कि मौजूदा नियमों के आधार पर 2017 तक रोहिंग्या समुदाय के लोगों को भी आधार कार्ड दिए गए थे, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि जो व्यक्ति 182 दिनों से अधिक समय तक देश में रहे हों, वे इसे प्राप्त कर सकते हैं।

9 अगस्त, 2017 को केंद्र सरकार ने कहा कि देश में लगभग 40,000 रोहिंग्या अवैध रूप से रह रहे हैं। तब सरकार ने "अवैध प्रवासियों" की पहचान और निगरानी पर एक एडवाइजरी जारी की और उन्हें रोहिंग्या नाम से जाना गया। ये लोग प्रमुखतया म्यांमार के राखिन राज्य से आए थे।

अब्दाली ने कहा, “सरकार की इस घोषणा के बाद रोहिंग्या आबादी को अवैध माना गया और उनका आधार कार्ड बनना बंद हो गया। इसके अलावा अगस्त 2017 से रोहिंग्या शरणार्थियों को दीर्घकालिक वीजा (LTV) भी नहीं दिए गए।''

भारत में 180 दिनों से अधिक प्रवास के लिए जारी होने वाली LTV वीजा के लिए आधार, बैंक खाता, ड्राइवर लाइसेंस ज़रूरी होता है, जो कि रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए अब उपलब्ध और वैध नहीं है।

शोधकर्ताओं अनुभव दत्त तिवारी और जेसिका फील्ड द्वारा दिसंबर 2020 में किए गए एक अध्य्यन के अनुसार, “इसके कारण रोहिंग्या लोग कानूनी रूप से वाहन खरीदने में भी असमर्थ हैं और बैंक खाते के बिना वह तेजी से बढ़ती कैशलेस डिजिटल अर्थव्यवस्था से भी बाहर हैं।”

इस अध्य्यन के अनुसार, "ये प्रतिबंध रोहिंग्याओं के दूसरे के ऊपर निर्भरता को बढ़ा रहे हैं।"

आठ साल से अधिक समय से दिल्ली में रह रहे वसीम ने कहा कि 2014 के राखीन हिंसा के दौरान उनके पिता को गोली लगी थी और वे भागकर बांग्लादेश चले गए थे, जहां शरणार्थी शिविर में उन्हें अपर्याप्त उपचार मिला।


इसके बाद वसीम का परिवार भारत आ गया। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में महीनों के टेस्ट के बाद अंततः पता चला कि उनके पिता को कैंसर है। सरकारी अस्पताल में इलाज उपलब्ध नहीं होने के कारण वसीम को अपने पिता को एक निजी अस्पताल में ले जाने के लिए कहा गया।

वसीम ने बताया, “अस्पताल में किसी ने हमें यह भी बताया कि हम केरल जा सकते हैं, जहां मुझे मदद मिल सकती है। लेकिन किसी अपरिचित जगह की यात्रा करना बहुत दूर और महंगा था। वसीम के पिता की 2017 में मृत्यु हो गई।

मधुमेह (डायबीटिज), रक्तचाप (ब्लड प्रेशर), ट्यूमर जैसी गैर-संचारी बीमारियों (NCD) से पीड़ित रोहिंग्या शरणार्थियों ने बताया कि वे अपनी इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं।

रेहाना* के तीन साल के बेटे का एक साल पहले बेंगलुरु में गंभीर रूप से हाथ जल गया था। वह इस दुर्घटना के लिए खुद को दोषी महसूस करती हैं। उनका पति कूड़ा बीनकर प्रति माह लगभग 10,000 रुपये तक कमा लेता है। पति भी बच्चे की इस दुर्दशा के लिए रेहाना को ही दोषी मानता है।

अस्पताल ने कहा है कि इलाज में काफी मुश्किलें आएंगी और लगभग 2 लाख रुपये का खर्च भी आएगा। “हम इसे कैसे देंगे?,” रेहाना बेबस होकर कहती हैं।

2021 में कोविड-19 महामारी के दौरान शरणार्थियों को वैक्सीन लगवाने में भी बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इंडियास्पेंड ने मई 2021 की अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत की कोविड-19 वैक्सीन नीति ने अपने सभी वयस्क नागरिकों को पात्र बना दिया, लेकिन उसमें यहां रहने और काम करने वाले गैर-दस्तावेजी अप्रवासियों और शरणार्थियों का कोई उल्लेख नहीं था।

महामारी के चरम के दौरान वायरल हुई मीडिया रिपोर्टों के बाद इस समुदाय को बदनाम भी किया गया कि इन शरणार्थयों ने इस्लामिक मिशनरी समूह तब्लीगी जमात के सदस्यों के साथ संपर्क में आकर देश में कोरोनो वायरस को तेजी से फैलाया

सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर रोहिंग्या शरणार्थी

रोहिंग्या शरणार्थी भारत की स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं सहित किसी भी सामाजिक सुरक्षा योजना के दायरे में नहीं आते हैं।

केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY) का लक्ष्य भारतीय आबादी के सबसे गरीब यानी निचले 40% हिस्से को मुफ्त प्राथमिक चिकित्सा के साथ-साथ माध्यमिक और तृतीयक चिकित्सा के लिए प्रति वर्ष प्रति परिवार 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा प्रदान करना है।

भारत में आम लोगों को अपने या परिवार के इलाज के लिए बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है। यही PM-JAY को लागू करने का सबसे बड़ा कारण था, ताकि अस्पताल में भर्ती होने पर होने वाले ‘विनाशकारी व्यय’ को कम किया जा सके।


2014 के अंतिम उपलब्ध डेटा के अनुसार, शहरी भारत में किसी व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती होने पर कम से कम 26,475 रुपये का खर्च आता है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह खर्च 16,676 रुपये है। इंडियास्पेंड ने भी इस बारे में मार्च 2023 में रिपोर्ट किया था।

इस योजना के लिए ग्रामीण क्षेत्र के लाभार्थियों का चुनाव सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना के आधार पर होता है, वहीं शहरी क्षेत्र में इसके लिए 11 व्यावसायिक मानक तय किए गए हैं।

आयुष्मान योजना के प्रावधानों के अनुसार आधार कार्ड के अभाव में किसी भी जरूरतमंद को भी योजना से वंचित नहीं किया जा सकता है। लेकिन 2018 में UIDAI ने एक समाचार रिपोर्ट के आधार पर एक ट्वीट में कहा था कि यदि लाभार्थी आयुष्मान योजना के तहत दूसरी बार इलाज कराना चाहते हैं तो आधार अनिवार्य हो जाता है।

2023 की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ऑडिट रिपोर्ट में भी योजना का लाभ उठाने के लिए आधार-आधारित पहचान की अनिवार्य आवश्यकता का जिक्र किया गया है।

इससे पता चलता है कि रोहिंग्याओं को कचरा बीनने वालों के रूप में काम करने के बावजूद सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से बाहर रखा गया है।

इसी तरह रोहिंग्या शरणार्थियों को केंद्र प्रायोजित जननी सुरक्षा योजना (JSY) तक पहुंच भी सुलभ नहीं है, जो संस्थागत प्रसव को प्रोत्साहित करती है। इस योजना के तहत महिलाओं को प्रसव और प्रसव के बाद की देखभाल के लिए नकद सहायता प्रदान की जाती है। इस योजना के तहत ऑनलाइन आवेदन करने में आधार कार्ड अनिवार्य है, जिससे रोहिंग्या सहित सभी शरणार्थी स्वतः ही बाहर हो जाते हैं।

इंडियास्पेंड ने रोहिंग्या शरणार्थियों के सरकारी या निजी अस्पतालों में इलाज तक पहुंच के लिए आधार कार्ड की आवश्यकता, भारत में रोहिंग्याओं की कुल संख्या और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक उनके पहुंच सहित अन्य मसलों पर स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय और गृह मंत्रालय से RTI के तहत जानकारी मांगी थी। हालांकि मिले जवाब से यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि कैसे शरणार्थी स्वास्थ्य सेवाओं और आधार जैसी बुनियादी सेवाओं को प्राप्त कर सकते हैं।

केंद्र सरकार की RTI प्रतिक्रियाओं में शरणार्थियों के लिए अलग से कोई विशेष जानकारी नहीं दी गई

केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों ने हमारे RTI सवालों का जवाब दिया, लेकिन शरणार्थियों या विशेष रूप से रोहिंग्याओं के संबंध में विशेष जानकारी देने से वे बचते रहे। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा कि सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 योजना के तहत ‘सभी पात्र लाभार्थियों’ को छह सेवाओं का पैकेज प्रदान किया जाता है, जिसमें 0 से 6 वर्ष के बच्चे, गर्भवती महिलाएं और स्तनपान कराने वाली माताएं शामिल होती हैं।

मातृ स्वास्थ्य प्रभाग ने बताया कि उनकी अधिकतर योजनाएं, जैसे- सुरक्षित मातृत्व आश्वासन, JSY, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, पीएम सुरक्षित मातृत्व अभियान, उच्च जोखिम गर्भधारण और लक्ष्य जैसी योजनाएं जाति, धर्म या स्थानीयता से परे हैं और सब पर लागू होती हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन-2 प्रभाग ने कहा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और अस्पताल राज्य का विषय है और स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत करने के सभी मामले संबंधित राज्यों के अधीन हैं।

मैसूर में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड हियरिंग (AIISH) ने जवाब देते हुए कहा कि सभी सेवाएं मरीजों को समान रूप से प्रदान की जाती हैं और आधार की कोई अनिवार्यता नहीं है।

मुंबई के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिकल थेरेपी एंड रिहैबिलिटेशन सेंटर ने कहा कि मांगी गई जानकारी उपलब्ध नहीं है। संस्थान में रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कोई अलग से फंड आवंटित नहीं किया गया है और ना ही उनके लिए कोई विशिष्ट स्वास्थ्य देखभाल योजना है।

वहीं बाल स्वास्थ्य प्रभाग ने 4 सितंबर 2023 को दिए गए जवाब में कहा कि सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों या आंगनबाड़ियों (बाल देखभाल केंद्रों) में नामांकित किसी भी बच्चे की जांच राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत होती है।

17 अक्टूबर को इसी विभाग की तरफ़ से एक और प्रतिक्रिया आई, जिसमें कहा गया कि बाल रुग्णता और मृत्यु दर को कम करने के सभी कार्यक्रम सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में सार्वभौमिक रूप से लागू किए जा रहे हैं, जिसमें लिंग, जाति और धर्म का कोई भेदभाव नहीं है। हमारा ध्यान ऐसे क्षेत्रों पर केंद्रित है, जहां पर आदिवासी या हाशिए पर रहने वाली आबादी रहती है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के विभिन्न प्रभागों जैसे- गैर संचारी रोग-1, ई-स्वास्थ्य, सार्वजनिक स्वास्थ्य, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन और केंद्रीय तपेदिक प्रभाग ने कहा कि मांगी गई जानकारी उपलब्ध नहीं है और इसे ‘शून्य’ माना जा सकता है।

ये आधिकारिक प्रतिक्रियाएं भारत में राज्यविहीन रोहिंग्या शरणार्थियों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों को रेखांकित करती हैं। ऐसा उनके साथ सिर्फ़ भारत नहीं बल्कि अन्य देशों में भी हो रहा है, जहां पर उन्होंने शरण ली है। मई 2022 के इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ के सुरेंद्रन राजरत्नम और अजलिंडा अजमान के एक शोधपत्र में पाया गया कि मलेशिया में रोहिंग्या महिलाओं को अस्पतालों तक पहुंचने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे अपनी इलाज और दवा का खर्च वहन नहीं कर सकती है।

दिल्ली एनसीआर में रोहिंग्या शरणार्थियों का देखभाल करने वाली सामुदायिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉक्टर अक़्सा शेख़ ने बताया कि रोहिंग्याओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाओं से बाहर रखा गया है और उनकी आयुष्मान भारत तक भी पहुंच नहीं है, जो केंद्र सरकार की एक प्रमुख योजना है। .

शेख़ ने कहा, ''उनके पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं। राज्य सरकार मोहल्ला क्लीनिकों के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करती है, लेकिन जिन मामलों में दिल्ली आरोग्य कोष जैसी योजनाओं की मदद की जरूरत होती है, उन्हें कवर नहीं किया जाता है।"

आधार न होने के कारण रोहिंग्या शरणार्थियों की गैर-स्वास्थ्य जरूरतें भी प्रभावित हुई हैं। 2015 में आधार के व्यापक रूप से उपयोग होने से पहले शरणार्थी महिलाओं को भी JSY के तहत नकद सहायता मिल रही थी।

आदिवासियों, शरणार्थियों और प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों और न्याय के लिए लड़ने वाले NGO ‘विकास और न्याय पहल (DAJI)’ के निदेशक रवि हेमाद्रि ने कहा, “जब से आधार को अनिवार्य बना दिया गया है, इस योजना तक भी उनकी पहुंच बंद हो गई है। उनके बच्चों को पाठ्य पुस्तकें, पोशाकें और मध्याह्न भोजन नहीं मिलता है और उनका स्कूल में प्रवेश भी अस्थायी होता है।”

अप्रैल 2017 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने DAJI की शिकायत पर स्पष्ट रूप से कहा था कि हरियाणा में सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में प्रवेश चाहने वाले किसी भी बच्चे को प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

गैर सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा रोहिंग्या शरणार्थियों को मिल रही स्वास्थ्य सहायता

एक केंद्रीय शरणार्थी नीति की कमी के कारण वर्तमान में UN समर्थित गैर सरकारी संगठन ही शरणार्थियों के मदद के लिए आगे आ रहे हैं। वे उनके लिए योजनाएं लागू करते हैं ताकि उनके खर्चों को कवर करके स्वयंसेवकों के माध्यम से सबसे कमजोर लोगों की सहायता की जा सके।

दिल्ली में शरणार्थियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि कुछ NGO उनकी चिकत्सकीय सहायता और उनके मेडिकल बिलों के भुगतान के लिए आगे आए हैं। आपातकालीन स्थिति में वे उन्हें कालिंदी कुंज के पास उनकी बस्तियों से प्राइवेट अस्पतालों में भी ले जाते हैं। सफदरजंग और राम मनोहर लोहिया जैसे बड़े सरकारी अस्पताल वहां से कम से कम 30 मिनट की दूरी पर हैं और वहां तक पहुंचने के लिए थोड़ा अधिक समय लगता है।

एक गैर सरकारी संगठन ने अपनी पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया कि विभिन्न नागरिक समाजिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी के कारण चीजें सकारात्मक हुई हैं और डॉक्टर किसी भी अन्य मरीजों की तरह रोहिंग्या शरणार्थियों का भी इलाज करते हैं। लेकिन आधार जैसे दस्तावेज़ की कमी के कारण उन्हें कुछ जरूरी लाभ नहीं मिल पाते हैं।

DAJI जैसे कुछ गैर सरकारी संगठन नूंह में रोहिंग्या शरणार्थियों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं तक बेहतर पहुंच प्रदान करने के लिए स्थानीय स्वास्थ्य प्रशासन के सहयोग से काम कर रहे हैं, ताकि दस्तावेजों की कमी उनके स्वास्थ्य देखभाल में बाधा न बने।

UNHCR इंडिया ने इंडियास्पेंड को बताया कि वे नागरिकों के समान शरणार्थियों को भी स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने की केंद्र सरकार की सोच की सराहना करते हैं। इसमें कहा गया है कि शरणार्थी भी प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं।

हालांकि इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि सरकार द्वारा जारी कानूनी पहचान [जैसे- आधार] की अनुपस्थिति शरणार्थियों के लिए एक चुनौती है क्योंकि यह उन्हें सरकार के सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से बाहर करती है।

2022 की UNHCR भारत समीक्षा रिपोर्ट के अनुसार कुल मिलाकर 43,238 शरणार्थियों को चिकित्सा परीक्षण और उपचार प्रदान किया गया।

कोई शरणार्थी-शरण कानून नहीं!

भारत के पास शरणार्थियों या भारत में शरण चाहने वालों पर कोई कानून नहीं है। भारत शरणार्थियों से संबंधित 1951 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और 1967 प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता भी नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार के अनुसार बिना परमिट के देश की सीमा पार करने वाले किसी भी व्यक्ति को ‘अवैध प्रवासी’ माना जाएगा, जिसमें रोहिंग्या भी शामिल हैं। केंद्र सरकार के अनुसार ऐसे लोग "राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” भी हैं।

रोहिंग्या संकट उन कारणों में से एक था, जिसने तिरुवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर को फरवरी 2022 में एक निजी सदस्य विधेयक पेश करने के लिए प्रेरित किया। इसमें शरणार्थियों और शरण चाहने वालों की सुरक्षा के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करने की मांग की गई, जिसमें समान स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच भी शामिल था।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई के सेंटर फॉर स्टेटलेसनेस एंड रिफ्यूजी स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर के.एम. परिवेलन कहते हैं कि मानवाधिकारों को बनाए रखने वाले एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के पास शरणार्थी अधिकारों को संबोधित करने के लिए कुछ नीतियां होनी चाहिए।

परिवेलन ने कहा, “अस्थिर पड़ोस और आर्थिक चुनौतियों का तर्क ध्यान भटकाने वाला है। हमारा एक दायित्व है। रोहिंग्याओं पर म्यांमार में अत्याचार किया जाता है। उन्हें भारत में राजनीतिक रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए और जब उनके लिए वापस जाना सुरक्षित हो तो उन्हें स्वेच्छा से वापस भेज दिया जाना चाहिए।”

2013 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित जफ़र उल्ला की याचिका 2012 में किए गए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के एक सर्वे के आधार पर दायर की गई थी, जिसके अनुसार मेवात और दिल्ली में रोहिंग्याओं के लिए अन्य मुद्दों के अलावा मातृ स्वास्थ्य देखभाल, चिकित्सा सहायता, अपर्याप्त पोषण और स्वच्छता प्रमुख मुद्दे था।

केंद्र सरकार ने अदालत में बताया कि रोहिंग्या लोगों को JSY लाभ प्रदान नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अनुसूचित जाति और जनजाति या गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी से संबंधित नहीं हैं।

अगस्त 2018 के एक निर्देश में सुप्रीम कोर्ट ने मेवात के उप जिला अधिकारी से कहा था कि शरणार्थियों के सीमित अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए राजस्व मजिस्ट्रेट को नोडल अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाए। यह आदेश दिल्ली में कंचन कुंज और कालिंदी कुंज पर भी लागू होना था, जहां रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट में जफ़र उल्ला का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील अब्दाली ने कहा, "वर्तमान में सरकार के प्रावधान में एक व्यवस्थित प्रक्रिया का अभाव है, जिससे शरणार्थियों को आपातकालीन या विशेष स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के लिए गैर सरकारी संगठनों की सहायता पर निर्भर होना पड़ता है।"

इंडियास्पेंड ने इन सभी मामलों पर प्रतिक्रिया लेने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय, दिल्ली स्वास्थ्य सेवाओं के वरिष्ठ अधिकारियों, फरीदाबाद डिवीजन के आयुक्त, नूंह के उपायुक्त, जिला स्वास्थ्य अधिकारी और कर्नाटक स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाओं को पत्र लिखा है।

20 अक्टूबर 2023 को इंडियास्पेंड को फरीदाबाद के डिवीजन कमिश्नर से एक पत्र मिला, जिसमें नूंह के डिप्टी कमिश्नर से जानकारी प्राप्त करने की बात कही गई थी। उनका जवाब आने पर हम स्टोरी को अपडेट करेंगे।

प्रसव की समस्या

सितंबर 2023 में जब इंडियास्पेंड की टीम वसीम से मिली थी, तो वह अपनी चोट से उबर रहे थे और पिछले एक महीने से काम पर नहीं जा पाए थे। अगस्त के मध्य में हुई उनकी दुर्घटना के बाद से उन पर 40,000 रुपये का कर्ज हो गया था, जो उनकी मासिक कमाई का लगभग पांच गुना था। वसीम अब काम पर लौटना चाहते थे ताकि वह अपना कर्ज उतार सके। उनकी पत्नी नूर* ने अक्टूबर में एक बच्चे को जन्म दिया।

उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया कि उनके छह में से पांच बच्चों का जन्म घर पर हुआ है, जिसमें से तीन बच्चों का टीकाकरण नहीं हुआ है। इसमें अक्टूबर में पैदा हुआ उनका सबसे छोटा बच्चा भी शामिल है। वे हाल ही में एक बच्चे के टीकाकरण के लिए अस्पताल गए थे, लेकिन अस्पताल के कर्मचारियों ने उन्हें इधर-उधर की बात कर इंतजार कराया। तंग आकर वे वापस चले आए।

जब नूर गर्भवती थीं तो उन्हें फरवरी में जम्मू में टीकाकरण की एक खुराक मिली थी। केंद्र सरकार के मातृ एवं शिशु सुरक्षा कार्ड के विवरण के आधार पर एक गर्भवती महिला को कम से कम तीन प्रसवपूर्व जांच करानी चाहिए, दो टिटनेस टॉक्सोइड इंजेक्शन लेने चाहिए और पहली तिमाही के बाद कम से कम छह महीने तक प्रतिदिन आयरन फोलिक एसिड की एक गोली लेनी चाहिए। .

इंडियास्पेंड से बात करने वाली अधिकांश रोहिंग्या महिलाओं ने कहा कि उन्हें आयरन और कैल्शियम की गोलियां मिलीं, लेकिन अल्ट्रासाउंड कराने के लिए सरकारी अस्पतालों में भी कम से कम 100 रुपये लग रहे थे। इसके अलावा अन्य कोई संबंधित सहायता उपलब्ध नहीं थी। निजी अस्पतालों और क्लीनिकों में अल्ट्रासाउंड का मूल्य और भी अधिक हो जाता है।

दिल्ली और नूंह में रोहिंग्या समुदाय के कुछ सदस्य, विशेषकर महिलाएं स्वास्थ्य सहायता स्वयंसेवकों के रूप में भी काम करती हैं, जिनका काम होता है समुदाय के लोगों को डॉक्टरों और अन्य कर्मचारियों की मदद से सहायता उपलब्ध कराना।

नूर ने बताया, "अपनी गर्भावस्था के दौरान मैं यहां [बेंगलुरु] के सरकारी अस्पताल में दो बार गई, लेकिन उन्होंने हमसे पैसे मांगे और मेरा कोई अल्ट्रासाउंड नहीं हुआ। चाहे 100 रुपये ही क्यों न हों, हमारे पास पैसे कहाँ हैं?”

वहीं सरकारी अस्पताल का स्टाफ इस बात से नाराज था कि नूर के पास थायी कार्ड (कर्नाटक में प्रयोग होने वाला मातृ एवं शिशु सुरक्षा कार्ड) नहीं था। नूर को फिर प्राइवेट दुकान से दवाईयां खरीदनी पड़ी।

एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चिकित्सक और शोधकर्ता सिल्विया करपागम कहती हैं, "यदि महिलाएं केवल प्रसव के दौरान ही अस्पतालों में जाती हैं और उससे पहले नहीं, तो इससे समुचित देखभाल सुनिश्चित नहीं हो पाता है। प्रसव के दौरान जटिलताओं को जल्दी ही समझना होता है।”

UNHCR इंडिया ने कहा कि शरणार्थी बच्चों को टीकाकरण तक पहुंच प्राप्त है, हालांकि वे पूरक पोषण सहायता प्राप्त करने में असमर्थ हैं क्योंकि यह आधार कार्ड से जुड़ा हुआ है।

लगभग 10,000 रुपये कमाने वाले किसी भी परिवार में आधे से अधिक व्यय भोजन और किराने के सामान पर होता है। ऐसे परिवारों में बचत के रूप में लगभग कुछ भी नहीं बचता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर होने के कारण रोहिंग्या शरणार्थियों की पौष्टिक भोजन तक पहुंचने की क्षमता भी सीमित होती है, जो बच्चों और स्तनपान कराने वाली माताओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।

NGOs के लिए भी सहायता प्रदान करते समय धन की कमी एक चुनौती बन जाती है। UNHCR इंडिया के साथ पंजीकृत 47,000 से अधिक शरण चाहने वाले शरणार्थियों के लिए 21.7 मिलियन डॉलर (181 करोड़ रुपये) की वित्तीय आवश्यकता का केवल 28% ही पूरा किया जा सका है।

UNHCR इंडिया ने बताया, “UNHCR पंजीकृत लोगों को सुरक्षा, समाधान और सहायता प्रदान करता है। हालांकि हमारी क्षमता को सीमित फंडिंग से गंभीर खतरा है।”

स्वास्थ्य संबंधी व्यवहार

अक्सर रोहिंग्या महिलाएं घर पर ही बच्चे को जन्म देना पसंद करती हैं। आमतौर पर एक बड़ी उम्र की महिला बच्चे के जन्म के समय मां की देखभाल और सहायता करती है।

मोहम्मद रिदवानुर रहमान और उनके साथियों ने दुनिया की सबसे बड़ी शरणार्थी बस्ती बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में रोहिंग्या शरणार्थियों की स्थिति पर एक अध्य्यन किया है, जिसमें उनकी खराब स्वास्थ्य और साक्षरता पर चिंता जताई गई है।

इस अध्य्यन के अनुसार रोहिंग्या लोगों में डायरिया जैसी सामान्य बीमारियों के इलाज के बारे में समझ कम थी और अधिकांश (90%) प्रसव घर पर हुए। इनमें से केवल 4% प्रसव प्रशिक्षित स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता (नर्स) की उपस्थिति में हुए।

बेंगलुरू के शरणार्थियों ने बताया कि आमतौर पर बच्चों को अस्पताल दौरे के दौरान टीका लगाया जाता है और अगर यह संस्थागत प्रसव हो तो उन्हें जन्म प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। हालांकि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का रोहिंग्या बस्तियों का दौरा कर इस बारे में जागरूक करने की प्रक्रिया व्यवस्थित नहीं है।

UNHCR सरकारी अस्पताल में एक संस्थागत प्रसव के लिए 6,000 रुपये देता है। लेकिन, जैसा कि हमने पहले ही कहा, कि आधार और अन्य दस्तावेजों की कमी शरणार्थियों को सरकारी योजनाओं के लिए अयोग्य बनाती है।

पहचान उजागर न करने की शर्त पर एक डॉक्टर ने बताया रोहिंग्या महिलाएं महिला डॉक्टरों के द्वारा ही प्रसव कराना पसंद करती हैं, जिसके कारण वे संस्थागत प्रसव के बजाय घरेलू प्रसव को प्राथमिकता देती हैं। उन्होंने बताया, “यह उपयोगी होगा अगर सरकार समुदाय के लोगों को ही आशा के समान प्रशिक्षित करे और उन्हें लाइसेंस दे। इससे रोहिंग्या महिलाओं को भाषा संबंधी बाधाओं से निपटने और उचित स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंचने में मदद मिलेगी। ”

आजादी प्रोजेक्ट और रिफ़्यूजीज़ इंटरनेशनल द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि UNHCR और NGOs द्वारा फैलाई गई जागरूकता के कारण संस्थागत प्रसव का विकल्प चुनने वाली रोहिंग्या महिलाओं की संख्या में सुधार हुआ है, लेकिन वित्तीय चुनौतियों और भेदभाव सहित विभिन्न कारणों से वे ज्यादातर घर पर ही बच्चे को जन्म देना पसंद करती हैं।

रोहिंग्या लोगों के साथ काम करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो और भी बहुत कुछ किया जा सकता है। चिकित्सा विभाग के कर्मचारियों को शरणार्थी आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।

इस बीच वसीम अपने खराब हुए रिक्शा को ठीक कराने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, जिसमें उसे कम से कम 1,000 रुपये का खर्च आएगा, जो कि फिलहाल उसके पास नहीं है। उन्होंने अपनी चोट की ओर इशारा करते हुए कहा, "मेरी चोटें ठीक हो रही हैं, लेकिन अब भी दर्द हो रहा है।"

इस सीरीज़ की दूसरी स्टोरी शरणार्थी जीवन के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर है।

* शरणार्थियों के पहचान गुप्त रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।